20160205

मेरे दिल से मेरे गांव को कोई नहीं निकाल सकता : धर्मेंद्र


 कोई बच्चा जिस फिल्म को देख कर यह ख्वाब बसा ले कि मुझे फिल्मों में हीरो बनना है और आगे चल कर उसी फिल्म के निर्देशक उन्हें अपनी फिल्म में काम करने का न्योता भेजें तो जाहिर है उस शख्स के ख्वाब को पंखों लगे ही होंगे. वह फिल्म थी शहीद और निर्देशक थे रमेश सेहगल. शहीद फिल्म देखने से शुरू हुआ वह सिलसिला उस दौर में जाकर पहले पड़ाव पर पहुंचता था और यही उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी खुशी में से एक थी. जिनके अंदाज पर वे मर मिटे थे. एक दिन उन्होंने ही आकर कहा कि खुदा मुझे ऐसा हुस्र क्यों नहीं दिया था. किसी व्यक्ति के लिए इससे बड़ी कामयाबी और क्या होगी कि जिनसे उन्हें इश्क हुआ था. वह खुद उनकी तारीफों के पूल बांध रहे. जी हां, हम बात कर रहे हैं ही मैन धर्मेंद्र सिंह देओल उर्फ सबके चहेते धर्मेंद्र साहब की, िजन्होंने अपने बलबुते एक अलग पहचान बनायी. और आज भी कई दशकों के बावजूद उनकी बातें, उनके अंदाज के लोग कायल हैं. धर्मेंद्र हिंदी सिनेमा के उन सदाबहार अभिनेताओं में से एक थे, िजनके अंदाज, सूरत, सीरत के लोग दीवाने हुए. वे कई मायनों में स्टाइल आइकॉन बने. बंदिनी, सतकाम, अनुपमा, हकीकत व कई गंभीर  व विषयपरक फिल्में करते हुए उन्होंने चुपके-चपुके और शोले जैसी फिल्मों से मनोरंजन को नये मायने दिये. धर्मेंद्र ने हमेशा यह कोशिश की कि उन्होंने कभी खुद को किसी छवि में नहीं बांधा. अमूमन ऐसा होता है कि स्टार जब किसी टाइटिल से बंध जाते हैं तो वे सीमित हो जाते हैं. लेकिन यह धर्मेंद्र की खासियत थी कि उन्होंने हीमैन वाली छवि के बावजूद अनुपमा, देवर जैसी फिल्में करने से गुरेज नहीं की.  एक तरफ वह रफ एंड टफ रहे, तो दूसरे तरफ उनके व्यक्तित्व में  आपको सरलता,सहजता और मासूमियत नजर आयेगी. उनका अब तक का सफर बेहद सुहावना रहा है और सबसे खास बात यह है कि वे बेहतरीन अभिनेता के साथ साथ बेहतरीन इंसान भी हैं. आज भी उनका दिल गांव से जुड़ा है. उनकी जिंदगी के कुछ ऐसी ही पहलुओं पर प्रस्तुत है बातचीत के मुख्य अंश 


आप आज जहां हैं, वहां से मुड़ कर देखते हैं तो कैसा लगता है?
मुझे बस यही महसूस होता है कि ये लोगों का प्यार, मेरे अपनों का प्यार, ऊपर वालों की मेहर ही थी कि आज भी इस उम्र में लोगों ने मुझे प्यार करना कम नहीं किया है. जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो यही सोचता हूं कि जिस गांव ने मुझे इतना प्यार दुलार दिया है. आज भी देता आ रहा है. अगर मैं उस गांव का नहीं होता तो क्या जिंदगी जी पाता. मैं मानता हूं कि मैं भाग्यशाली रहा हूं कि मेरा जन्म गांव की मिट्टी में हुआ है. तभी तो मुझे जिंदगी की असली हकीकत पता चली है. शायद यही वजह है कि आज भी दिल से मैं किसान हूं. जमीन से जुड़ा हुआ हूं.  मैं आज भी भले ही मुंबई में रहूं. लेकिन दिल और आत्मा मेरे पिंड में ही रहती है. मैंने अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण पल यहां बिताये हैं. मुझे याद है, जब मां को मैंने पहली बार कहा था कि मैं बांबे जाना चाहता हूं. मां ने कहा था कि बाबूजी सुनेंगे तो नाराज हो जायेंगे. लेकिन फिर उन्होंने ही मुझे कहा कि अरजी देदो. देखो बुलावा आ जाये. उस वक्त फिल्मफेयर कांटेस्ट हो रहा था. मैंने जय माता दी बोल कर, गायत्री मंत्र पढ़ कर वह अरजी भरी थी. अपनी तसवीर भेजी थी. और कुछ हफ्तों के बाद बुलावा आया था. यह मेरे जैसे बच्चे के लिए बहुत बड़ी बात थी. मुझे याद है मेरे घर के ड्रेसिंग टेबल में मैं खुद को देखता था और बोला करता था कि मुझे दिलीप कुमार बनना है. मुझे तो एक्टिंग का ए भी नहीं आता था. क्या होता है ये सब कुछ भी नहीं पता था. फिर भी सपना देख लिया था.
आपके पिताजी शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े थे.तो कभी उधर रुझान नहीं हुआ?
नहीं, मुझे सच कहंू तो शुरू से किताबी पढ़ाई में बहुत मजा नहीं आता था. मुझे याद है मैं जब कभी स्कूल में बिना पगड़ी के जाता था. यह सोच कर कि पिताजी तो इसी स्कूल में अध्यापक हैं. मुझे कौन डांटेगा. उस दिन अधिक डांट पड़ जाती थी. खूब धुलाई होती थी मेरी. बाबूजी तो मेरे साथ अधिक सख्त रहते थे स्कूल में कि बाकी बच्चों को ये न लगे कि मास्टर जी अपने बेटे को तो कुछ कह ही नहीं रहे हैं. तो वह ज्यादा डांटते थे मुझे. और तो और घर में आने के बाद भी पहाड़ा बहुत सुनते थे. एक दिन मां को कहा था कि मां बाबूजी के साथ सो जाता हूं. मां ने भी कहा सो जाओ. गया सोने तो बाबूजी ने सोते हुए भी कहा कि चलो पहाड़ा सुनाओ. उस दिन से कान पकड़ी कि कभी भी उनके साथ नहीं सोऊंगा. मुझे याद है मैं अपने गांव से दूर जाता था फिल्में देखने. उस वक्त गांव में सिनेमा थियेटर नहीं थे. तो मैं बस में बैठ कर दूसरे गांव जाता था फिल्म देखने. और फिल्म खत्म होने के कुछ देर पहले मैं निकल जाता था. मतलब फिल्मों की एंडिंग अच्छे से नहीं देख पाता था, क्योंकि मुझे वापस अपने गांव आना होता था और आखिरी बस मुझे पकड़नी होती थी. लेकिन मैं फिल्में खूब भाग भाग कर देखा करता था. मुझे याद है मां कभी कभी मुझे छेड़ने के लिए कह देती थी कि मैं सुंदर नहीं हूं. लेकिन जब मैं फिल्मफेयर कांटेस्ट में सेलेक्ट हुआ तो उस दिन ही मुझे उन्होंने कहा था कि तू जितना चंगा दिखता है. देखना तुझे बुला ही लेंगे. मुझे याद है, कि एक फिल्म में मैंने प्रोफेसर का रोल किया तो पिताजी को बताया कि बाबूजी इसमें प्रोफेसर बना हूं. अब तो फिल्म देख लीजिए. तो उन्होंने मुझसे कहा कि तुझे ऐसा प्रोफेसर नहीं बनाना चाहता था. फिल्मी प्रोफेसर नहीं वास्तविक प्रोफेसर बनता तो कोई बात होती.
क्या आप महसूस करते हैं कि एक मूल्य के रूप में धैर्य और सहिष्णुता कम हुई है या बढ़ी है?
मैं यह सब नहीं जानता. मैं बस अपने बारे में यह कहना चाहता हूं कि जब मैं पिंड से मुंबई आ रहा था. मेरी माताजी या पिताजी ने मुझे एक ही बात समझायी थी कि तहजीब ही तेरा सम्मान है और इंसानीयत तेरी ताबिज़ इंसानीयत ही धर्म है. वही मजहब है. वही जात है और कोई जात नहीं. मैं आज भी इसी बात को मुक्कमल मानता हूं. मुझे याद है पार्टिशन से पहले मेरे कई यार दोस्त थे. सभी दूसरे धर्म के थे लेकिन कभी मैंने उनका धर्म नहीं पूछा. उस वक्त तो समझ भी नहीं आया था कि वे क्यों मुझसे बिछुड़ रहे हैं. क्यों अलग हो रहे हैं. हमारे प्रिय मास्टर जी भी जा रहे थे और मैं उन्हें पकड़ कर बहुत रोया था कि आप क्यों जा रहे हैं. न जाइये. उस वक्त मास्टर जी ने कहा था कि जाना पड़ेगा. एक छोटी सी लड़की थी, उसे हम घर लेकर आये थे. वह बाबूजी को अब्बा अब्बा कह कर बुलाती थी. लेकिन बाद में उसे जब हम काफिले में छोड़ने जा रहे थे.तो वह भी रो रही थी मैं भी रो रहा था. मुझे लगता है कि मुझे जिंदगी में उससे अधिक दुख कभी नहीं हुआ था. चूंकि मैंने पार्टिशन के दर्द को महसूस किया था. अपनी आंखों से देखा था. तो मैंने उस वक्त यह बात समझ ली थी कि ये सब धर्म के नाम पर ही हो रहा है और इसलिए मैंने हमेशा इंसानीयत को ही अहमियत दी है. और माता-पिता की इसी परवरिश पर आगे बढ़ा हूं. अपने बच्चों को भी यही सिखाया है. और मुझे पूरा यकीन है कि वे भी यही सोच रखते हैं. इस बात की तो मुझे खुशी है कि मैंने अपने बच्चों को एक अच्छा इंसान तो जरूर ही बनाया है और यही मेरी जिंदगी की उपलब्धि है. उस वक्त जब पार्टिशन हुआ तो मैंने कई दोस्तों को खोया था और उस वक्त से ही मेरे दिल में ये बातें घर कर गयी थी कि धर्म सिर्फ अपनों को दूर करता है और कुछ नहीं और मैंने सिर्फ इंसानीयत को ही अहमियत दी बस.
क्या चीजें सबसे ज्यादा खुशी देती हैं?
मुझे अपनों का साथ सबसे ज्यादा पसंद है. मुझे अपने गांव की दुनिया पसंद है. मेरी वहां आत्मा बसी होती है और मैं हमेशा वहां की बातें याद करता हूं. मेरा मानना है कि वह गांव ही है, जहां कुछ भी आर्टिफिशियल नहीं. न चीजें, न लोगों की सीरत, न लोगों की सूरत. वहां तालाब का कीचड़ भी मुझे अपनी ओर आकर्षित करता है. मुझे वहां के लोगों की मासूमियत आकर्षित करती है. मुझे याद है. मैं तालाब में कितनी डूबकी लगाता था और घर आने पर मां कितना नाराज होती थी. लेकिन कीचड़ में खेलना नहीं छोड़ता था. पहले जब वहां स्टेशन पूरी तरह नहीं बना था. फिर बाद में स्टेशन बना तो वहां के पब्लिक ब्रिज पर मैं घंटों वक्त बिताया करता था. मुझे वहां के खेत-खलियानों में वक्त बिताना पसंद है. ट्रैक्टर पर घूमना अब भी पसंद है. वह सारी यादें मेरी जेहन में जिंदा हैं और मुंबई आने के बाद भी मैंने खुद को ग्लैमर की दुनिया में पूरी तरह कभी नहीं रंगा और न ही वह रंग चढ़ने दिया पूरी तरह. मुझे खुशी होती थी, जब माता-पिता मुंबई आते थे. जब मैं शूटिंग के लिए जाता था उनके पैर छूता तो वही कहते थे, जल्दी आ जाना बेटे...मां भी मेरा इंतजार करती रहती थी.जब तक मैं आ ना जाऊं. ये सारी बातें याद है मुझे. पापा से पूछता कि पापा किसी चीज की जरूरत है क्या. वह नीचे गार्डन में धूप सेंका करते थे. तो पापा कहते क्या चीज की कमी होगी. सबकुछ है तो यहां. बस थोड़ा तू कभी कभी जल्दी आ जाया कर...और मेरी कोशिश भी हमेशा यही रही कि मैं अपने बच्चों को भी परिवार का महत्व समझा सकूं. मैंने हमेशा परिवार को अहमियत दी है और वही मेरी दुनिया. मेरी खुशी रही है. पैसे को तो मैंने कभी जिंदगी में खास माना ही नहीं. कभी पैसों का लालच मुझसे कुछ भी नहीं करा पाया. मुझे हमेशा अपने लोगों से घिरे रहना अच्छा लगा. और तसल्ली है कि मेरी जिंदगी में ऐसे कई लोग मुझे मिले. इसके अलावा मैं खुशनसीब मानता हूं कि इस उम्र में भी लोग मुझे प्यार देते हैं. जहां भी जाता हूं. मुझे लगता है कि चलो कुछ तो अच्छे कर्म किये हैं जो लोग आज भी मुझे याद रखते हैं. या रखना चाहते हैं. लोग मुझे बतौर एक्टर के साथ बेहतर इंसान के रूप में याद करते हैं तो और ज्यादा खुशी होती है मुझे. और सबसे खुशी की बात है कि मैंने अपने अंदर के इंसान को मरने नहीं दिया है.
क्या चीजें सबसे ज्यादा परेशान करती हैं?
मुझे अपनों को खोने से डर लगता है. मैं काफी इमोशनल व्यक्ति हूं और काफी अपनों को खोया है. मेरी बहन, मेरे भाई मेरी दुनिया था. और उन्हें खोना जिंदगी की पूंजी को खोने जैसा था. मां बाबूजी को खोया तब भी काफी दुख हुआ था. चूंकि माता पिता और परिवार की जगह कोई नहीं ले सकता.
जब दुखी होते हैं तो प्रेरणा कैसे मिलती है?
मुझे याद है, मैं अपने पिंड में छत पर सोना बहुत पसंद करता था और मैं रात में तारे-सितारों को देखा करता था. और बहुत कुछ सोचा करता था. लिखने की प्रेरणा शायद मुझे वही से मिली. मैं काफी लिखता हूं और मुझे लगता है कि चूंकि मैं लिखता हूं इसलिए मुझे डिप्रेशन कभी नहीं होता. चूंकि जो लिखते हैं, वे अपनी भावना को कई बार लिख देते हैं. तो मैं इससे ही प्रेरणा लेता हूं. काफी लिखता हूं मैं. लोगों का प्यार ही मेरी स्ट्रेंथ है. मेरी प्रेरणा है. मैं ये बातें हमेशा दोहराता हूं कि मोहब्बत आपकी अगर न देती रोशनी मेरे नाम को. बनता कैसे धर्म मैं आपका. पहुंचता कैसे इस मुकाम को.
कभी कोई बात जो सालती हो?
मुझे लगता है कि मेरे डनगोन गांव के लोगों को यह बात हमेशा बुरी लगी है कि मैं उस गांव के बारे में नाम नहीं लेता. वह मेरा पैतिृक स्थान है. लेकिन चूंकि मेरा ज्यादातर वक्त साहनेवाल में बीता है तो वही की बातें ज्यादा हैं जेहन में. लेकिन मैं वहां के लोगों से बहुत प्यार करता रहा हूं और मैं यह मानता हूं कि मेरे सारे गांव के लोगों को, उन तमाम स्थानों का काफी योगदान रहा है. आज मैं जो कुछ भी हूं.मैं बस यह मानता हूं कि यहां कुछ भी परमानेंट नहीं है. समदरें  शोहरत की साहिर नहीं होते..तो जानता हूं कि ये स्टारडम भी जायेगा. लेकिन बस चाहता हूं कि जब तक रहूं. लोगों के जेहन में जिंदा रहूं.
अपने प्रोफेशन की नयी पीढ़ी को किस तरह देखते हैं आप?
मुझे काफी ऊर्जा नजर आती है. मैं तो उनके साथ काफी काम करता भी रहा हूं. लोग मुझसे हमेशा पूछते हैं कि मुझ पर कभी बायोपिक बनेगी तो कौन एक्टर हैं जो सबसे बेहतरीन काम करेगा तो मैं बेझिझक नाम लेता हूं सलमान का. मुझे लगता है कि सलमान मेरी तरह ही हरफनमौला है. शाहरुख ने अपनी मेहनत से पहचान बनाई है. आमिर समझदार बच्चा है. ऋतिक जैसा डांस कौन कर सकता है भला. मुझे लगता है कि सभी बच्चे अच्छा काम कर रहे हैं. मुझे नयी पीढ़ी से कोई शिकायत नहीं. मैं मानता हूं कि वे अपने वक्त के साथ कदम ताल करते चल रहे हैं. इसलिए फास्ट हैं. हां बस ये कहना चाहता हूं कि फास्ट रहें. लेकिन अपनी जमीन को और अपने माता पिता को कभी न भूलें. अभी मेरे परिवार की एक और जेनेरशन कदम रखने वाली है. उन्हें भी यही बात समझाता हूं कि परिवार की अहमियत सबसे खास है. अब टेक्नीकली भी हम बहुत आगे निकल चुके हैं.

प्रिय अभिनेता 
1.धर्मेंद्र दिलीप कुमार  साहब के   हमेशा फैन रहे. बचपन से उनकी फिल्में देखीं. उनका अंदाज बचपन से अपनाया. लेकिन वह सबसे बड़ी खुशी के पल थे, जब दिलीप साहब ने एक समारोह के दौरान धर्मेंद्र की तारीफ करते हुए कहा कि खुदा मिलेगा तो मैं उससे पूछूंगा कि हुजूर मेरा चेहरा वैसा क्यों नहीं बनाया. धर्मेंद्र ने दिलीप साहब की पहली फिल्म शहीद देखी थी और उसी वक्त से वे उनके मुरीद हो गये थे. फिल्म में किरदार का नाम राम था. तो धर्मेंद्र ने मान लिया था कि इस व्यक्ति का नाम ही राम हैं.बाद में पता चला कि दिलीप कुमार नाम है और उस वक्त से इश्क हुआ. 
2.प्रिय गायक
धर्मेंद्र मोहम्मद रफी के भी हमेशा फैन रहे. उन्हें उनकी आवाज काफी पसंद थी. खासतौर से उन्होंने जो पहला गीत धर्मेद्र के लिए गाया था जाने क्या ढूंढती रहती है आंखें मुझमें...उनका पसंदीदा गीत है. 
3. प्रिय अभिनेत्री
धर्मेंद्र को जहां दिलीप साहब से बेहद प्यार हो गया था. उन्हें अभिनेत्रियों में सुरैया से बेइतहां प्यार हो गया था. उन्होंने सिर्फ सुरैया की वजह से फिल्म दिल्लगी 40 बार देख ली थी.
4. धर्मेंद्र के दिल के आज भी यह गीत बेहद करीब है कि मुझे रात की तन्हाईयों में आवाज न दो...चूंकि ये गीत उन्हें उ्य दिनों की याद दिलाते हैं, जब वे मुंबई में संघर्षरत थे और उनके पास रात के खाने के लिए भी पैसे नहीं होते थे. वे उस दौर में कई स्टूडियोज में जाते थे. लेकिन कई बार उन्हें पैसे नहीं मिलते थे और वे वापस खाली हाथ आते थे तो यही गीत सुनते थे और यही वजह है कि आज भी यह गीत उनके दिल के बेहद करीब है.
5.1965  उनके फिल्मी करियर के लिहाज से अहम साल रहा. चूंकि इस वर्ष उनकी सात फिल्में रिलीज हुई थी.फिल्म हकीकत उस दौर की अपने तरह की अलग फिल्मों में से एक थी. इससे पहले वैसी वार वाली फिल्में नहीं बनी थी. इसी वर्ष में फूल और पत्थर रिलीज हुई तो पूरे मूल्क में एक लहर दौड़ गयी थी. इसी फिल्म से उन्हें ही मैन का टाइटिल मिला. 
6. दोस्ती को धर्मेंद्र ने जिंदगी में हमेशा महत्व दिया है. उन्होंने अपने प्रिय दोस्त मनोज कुमार साहब से भी अच्छी दोस्ती निभायी तो दूसरी तरफ देवेन वर्मा की फिल्म की शूटिंग के लिए वे दिन भर काम करने के बाद फिर रात के एक बजे भी शूटिंग के लिए पहुंच जाते थे. चूंकि वह चाहते थे कि दोस्त की फिल्म पूरी हो जाये.
7.प्रिय निर्देशक
धर्मेंद्र जी यह कहने से कभी नहीं झिझकते कि तमाम निर्देशकों के साथ काम करने के बावजूद उन्हें सबसे अधिक डर ऋषिकेश मुखर्जी के साथ लगता था. चूंकि वह काफी परफेक् शनिष्ट निर्देशक थे. उन्होंने उनके साथ कई फिल्मों में काम किया. चुपके-चुपके और सतकाम उनकी पसंदीदा फिल्मों में से एक रही. 
8. प्रिय भोजन
कम ही लोगों को यह जानकारी होगी कि पंजाबी होने के बावजूद धर्मेंद्र के घर में खाना शाकाहारी ही बनता था और अगर कभी धरम जी की इच्छा हो भी तो उन्हें और उनके भाई बहनों को बाहर जाकर खाना होता था. शाकाहारी भोजन में उन्हें टिंडा और शलगम से बने डिश खाना बेहद पसंद है. खासतौर से शलगम के गोस्त बेहद पसंद हैं. उन्हें बासी भोजन से सख्त चिढ़ है और वे मानते हैं कि जैसी रोटियां उनकी मां बनाती थी. वैसी और कोई नहीं बना सकता

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