20130629

किरदारों का खोना


करन जौहर की ये जवानी है दीवानी ने अच्छा व्यवसाय कर लिया है. फिल्म ने पहले दिन ही अच्छी कमाई की थी. रणबीर कपूर की किसी फिल्म को इससे पहले इतनी अच्छी ओपनिंग नहीं मिली थी. फिल्म की रिलीज से पहले ही फिल्म का जम कर प्रोमोशन किया गया था और इस वजह से लोगों में काफी उत्सुकता भी थी. और यह भी वजह रही कि फिल्म को अच्छी ओपनिंग मिली. लेकिन  फिल्म देखने के बाद वह सारी उत्सुकता खत्म हो जाती है. चूंकि फिल्म में कहानी बेहद कमजोर थी. अयान मुखर्जी की वेकअप सीड देखने के बाद उनसे और अधिक उम्मीदें बढ़ी थी. कुछ जगहों पर और भी त्रूटियां हैं. नैना के माता पिता फिल्म के अंतराल के बाद गायब ही हो जाते हैं. दरअसल, हकीकत यही है कि इन दिनों हिंदी सिनेमा में यह एक नया ट्रेंड बन चुका है. फिल्मों के किरदार अचानक से आकर अचानक चले जाते हैं. फिल्म जब तक है जान में अनुपम खेर को कट्रीना कैफ के पिता की भूमिका में दिखाया गया है. लेकिन वे अचानक फिल्म से गायब हो जाते हैं. यह हिंदी फिल्म के निर्देशकों की कमी है. वे अपने किरदारों को लेकर उस तरह से सजग नहीं. जैसे उन्हें होना चाहिए. इस संदर्भ में अनुराग कश्यप का कोई सानी नहीं. वे अपने किरदारों न सिर्फ सही तरीके से सहेजते हैं, बल्कि वे उन्हें सही तरीके से प्रस्तुत भी करते हैं. वे अपने सारे किरदारों के बेफिजूल फ्रेम में नहीं लाते. निर्देशक की यह खूबी होनी चाहिए कि उसके छोटे किरदार भी बेफिजूल न लगें. इस मामले में अनुराग बसु भी अच्छे निर्देशक हैं. रमेश सिप्पी ने अगर फिल्म शोले में इतनी बड़ी स्टार कास्ट होने के बावजूद किरदारों की बारीकियों पर ध्यान नहीं दिया होता तो शायद ही शोले हिंदी सिनेमा की श्रेष्ठतम फिल्मों में से एक होती.यह निर्देशक की कला और उनकी दक्षता पर निर्भर करता है और इसे उन्हें 

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