20130629

जिंदगी से जुड़े अनुभव को पिरोता हूं शब्दों में : प्रसुन जोशी

  उनकी कलम से जब शब्द निकलते हैं तो तारें जमीं पर आ जाते हैं. वे जब कहानी बुनते हैं तो मिल्खा सिंह भाग मिल्खा भाग के रूप में दर्शकों के सामने होते हैं. वे जब बातें करते हैं तभी ऐसा लगता है जैसे शब्दों को लय में बांध कर सामने प्रस्तुत किया गया हो. वे अपने फन में माहिर हैं. महारथी हैं. बात हो रही है प्रसुन जोशी की, जो गीतकार के साथ साथ अब कहानीकार के रूप में भी दर्शकों के दिलों तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं. भाग मिल्खा भाग इस साल की बहुचर्चित फिल्म है और इसे कहानी में  प्रसुन ने ही पिरोया है. फिल्म के बारे में व कई पहलुओं पर उन्होंने   अनुप्रिया अनंत से बातचीत की.
त्र प्रसून, आपने अब तक कई गीतों के शब्द पिरोये. लेकिन अचानक फिल्म लेखन की तरफ झुकाव कैसे हुआ?
मेरे अंदर लेखन का कीड़ा है. फिर चाहे वह फिल्म का लेखन हो या छोटी सी कविता ही क्यों न हो. मुझे लिखते रहना पसंद है. भाग मिल्खा भाग की कहानी मैंने इसलिए लिखी. चूंकि मिल्खा सिंह की जिंदगी में इतने वेरियेशन है, जो एक लेखक को कई शेड्स देने के लिए प्रेरित करता है. मिल्खा सिंह जैसे व्यक्ति पर फिल्म बनाने के लिए कहानी का अपने आप में हीरो होना बहुत जरूरी था. जितनी दिलचस्प यह फिल्म गढ़ी जा सकती है. हमने गढ़ने की कोशिश की है. राकेश और मैंने एक कोशिश की है. मिल्खा सिंहजी और मेरी मुलाकात हुई. बाद में राकेश, मैंने और मिल्खाजी ने फिल्म का अनाउंसमेंट किया.

त्र भाग मिल्खा सिंह मिल्खा सिंह की जिंदगी पर आधारित फिल्म है. तो किसी फिक् शन किरदार पर फिल्म की कहानी व कैरेक्टर गढ़ने व वास्तविक व्यक्ति को कैरेक्टर में डाल कर फिल्म की कहानी बनाना कितना मुश्किल कितना आसान है?
आसान तो बिल्कुल नहीं है. चूंकि आप जब बायोपिक फिल्म लिखते हैं तो आपको इन बातों का खास ख्याल रखना होता है कि फिल्म के किरदार वास्तविक व्यक्ति से बिल्कुल मेल खाता हुआ हो. फिर चाहे वह मुख्य किरदार हो या फिर कोई कैरेक्टर आर्टिस्ट ही. चूंकि कैरेक्टर आर्टिस्ट भी तो मुख्य किरदार निभा रहे व्यक्ति की तरह ही वास्तविक ही होने चाहिए. तो यह एक बड़ी चुनौती थी. लेकिन हमने कोशिश की है फिल्म की कहानी के साथ न्याय करने की. फिर दूसरी बात यह है कि मिल्खा सिंह जी की जिंदगी में इतने शेड्स हैं कि उन्हें ढाई घंटे में दिखाना मुश्किल है. तो क्या लें, क्या छोड़े. ये भी तय करना बतौर लेखक बड़ी जिम्मेदारी थी. मैंने मिल्खाजी के साथ काफी वक्त गुजारा और उन्हें नजदीक समझने की कोशिश की.

त्रजैसा कि आपने कहा कि मिल्खा सिंह की जिंदगी को ढाई घंटे में परदे पर दर्शाना मुश्किल है तो क्या हम उम्मीद करें कि मिल्खा सिंह की फिल्म के भी सीक्वल आने की पूरी गुंजाईश है?
ट्रेंड तो वही है. लेकिन हम इसलिए फिल्म का सीक्वल अगर कभी बनाया तो इसलिए नहीं बनायेंगे कि हम ट्रेंड के साथ चलें, दरअसल, उनकी जिंदगी है ही इतनी रोमांचित. फिलवक्त हम तो मिल्खा सिंह के अंदर के धावक की जिंदगी पर फोकस कर रहे हैं. लेकिन मिल्खा सिंह की जिंदगी में उनकी पारिवारिक जिंदगी के भी कई पहलू हैं. जिन्हें दर्शकों तक पहुंचाने की कोशिश है. जब वह स्पोटर््पर्सन नहीं थे तब क्या थे. कह सकते हैं कि फिल्म बनी तो वह प्रीक्वल फिल्म बन सकती है. तो अभी से यह नहीं कह सकता कि फिल्म बनेगी ही. लेकिन लिखना तो जरूर चाहूंगा. मेरे इंटरेस्ट का विषय है.

त्र प्रसून, क्या आप मानते हैं कि वर्तमान में लगातार रीमेक फिल्में बन रही हैं, सीक्वल फिल्में बन रही हैं. ऐसा इसलिए हो रहा है, चूंकि इन दिनों कहानी की कमी है?
बिल्कुल है. मेरा मानना है कि हिंदी सिनेमा में कहानी की कमी है और इसकी वजह यह है कि कहानियां मेट्रो शहरों तक सीमित रह जा रही है.पिछले कुछ सालों में हालांकि कुछेक फिल्मों ने गांव का रुख किया था. लेकिन फिल्मों की मार्केटिंग को मद्देनजर रखते हुए अब भी फिल्में मेट्रो को या बड़े शहरों को ध्यान में रख कर बनाई जा रही हैं. फिल्म से हिंदी पट्टी की कहानी गायब है और यही बड़ी वजह है कि नये विषयों पर आधारित कहानी का अभाव है. लेकिन धड़ल्ले से फिल्में बन रही हैं.

त्र और अगर लेखक के सम्मान और मेहनताना की बात करें तो क्या उन्हें वह सब मिल पाता है, जिसके वे असल में हकदार हैं?
यह हकीकत है कि फिल्मों के लेखक को अब भी उनका वह सम्मान नहीं मिला है. लेकिन मुझे लगता है कि राकेश ओमप्रकाश मेहरा जैसे निर्देशक जिनकी कहानियां ही उनका हीरो होती हैं. वैसे निर्देशक कभी भी लेखकों का साथ नहीं छोड़ेंगे. लेकिन जब तक आम लोग लेखक को पहचान न लें. उन्हें यह बात न समझाई जाये कि लेखक फिल्म के लिए क्यों खास होता है. तब तक आप नहीं कह सकते कि उन्हें सबकुछ हासिल हो चुका है. लेकिन अच्छा दौर शुरू हो चुका है और धीरे धीरे सुधार हो ही जायेंगे.

त्रआप पिछले कई सालों से लगातार बेहतरीन गानें, कविताएं लिखते आ रहे हैं. लेकिन कोई भी गीत ऊबाऊ नहीं होते. ऐसा भी नहीं लगता कि आप चीजों को दोहरा रहे हैं. तो वे कौन सी बातें हैं वह ऊर्जा है, जो आपको लगातार लिखने के लिए प्रेरित करती है?
सबसे खास बात यह है कि मंै कभी नंबर वन की रेस में शामिल नहीं हुआ. मैं इसलिए नहीं लिखता कि मुझे नंबर वन बनना है. मुझे अच्छा लिखना है. चूंकि मेरे दिल को अच्छा लगता है. इसलिए लिखता हूं. और आज भी मैंने पढ़ना नहीं   छोड़ा है. ट्रैवल करना नहीं छोड़ा है. यह सब मेरे लिए सोर्स आॅफ एनर्जी है. ट्रैवल करने से, लोगों से मिलने जुलने की वजह से मुझे वहां के अनुभव मिलते रहते हैं और यही चीजें मुझे प्रेरित करती हैं. दूसरी बात है कि जब भी गाने लिखता हंू तो कोशिश यही होती है कि अपनी जिंदगी से जुड़े अनुभव को आसान शब्दों में लोगों तक पहुंचाऊं. तो यही सब वजह है. मैंने जब तारें जमीं पर के गीत लिखे थे. तो इसलिए मेरी मां जैसा गीत निकल कर सामने आया. चूंकि वह गीत मैंने खुद को सोच कर लिखी थी. मेरी जिंदगी पर आधारित है. मैं भी बचपन में अंधेरे से डरता था. और वही से मैंने इस गाने की प्रेरणा ली थी.

त्र आपने अब तक हर जॉनर के गीत लिखे हैं. सबसे कठिन जॉनर आपके लिए कौन सा रहा?
बच्चों के लिए गीत लिखना बेहद कठिन होता है. चूंकि वे खुद बहुत सेंसिटिव होते हैं. आप उन्हें बड़ी बड़ी बातें कह कर बहला नहीं सकते. सो, उनके लिए लिखते समय आपको ध्यान देना होता है कि आप जो लिख रहे हैं, उसमें मस्ती भी हो, थोड़ा मेसेज भी हो. ममता भी हो और खास बात उनके दिल को किसी बात से ठेस न पहुंचे. इन बातों का ख्याल रखना होता है.

त्रकभी मौका मिले तो क्या भविष्य में आप निर्देशन करना चाहेंगे?
फिलहाल लेखन पर ध्यान है. लेकिन क्रियेटिविटी है निर्देशन के क्षेत्र में भी तो. कभी देखा जायेगा. वैसा संयोग बना तो जरूर करूंगा निर्देशन.

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