20130108

ताकि यादों में जिंदा रहे झेलम



गुलजार तब भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं. उनकी शेरो शायरी और उनकी अदायगी की अदा पर युवा पीढ़ी आज भी फिदा है. हाल में उनके जीवन पर आधारित एक किताब दिल ढूंढ़ता है का विमोचन किया गया. नसीर मुन्नी कबीर द्वारा लिखी गयी इस किताब के विमोचन के दौरान गुलजार ने अपने जीवन और नगमों से जुड़े कुछ दिलचस्प किस्से सुनाये.
गुलजार साहब इस बात से बेहद खुश थे कि आज भी दर्शक और श्रोता उन्हें सुनना पसंद करते हैं. शायद यही वजह है कि बहुत कम पब्लिक अपियेरेंस देनेवाले गुलजार साहब उस दिन दिल खोल कर बातचीत कर रहे थे.
गुलजार साहब, आप अब काफी कम कार्यक्र्मो में शिरकत करते हैं. कोई खास वजह?

नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है. मुझे नये लोगों से मिलना-जुलना पसंद है. खासतौर से युवाओं से, लेकिन चाहता हूं कि केवल वही बातें न करूं, जिन्हें मैं कई बार दोहरा चुका हूं. चाहता हूं कि अब कुछ नया हो. कुछ ऐसा काम, जिसे करने और कहने दोनों में मजा आये. वैसे, मैं हर साल ही जयपुर के लिटरेचर फेस्टिवल का हिस्सा बनता हूं. और भी कई राज्यों में जाता रहता हूं. जहां तहजीब जिंदा है, वहां मैं हूं और रहूंगा.

‘दिल ढूंढ़ता है’ के माध्यम से नसीर ने आपके जीवन के कौन से नये पहलू से अवगत कराया है? वह इसमें कितनी कामयाब हो पायी हैं?
ये तो आपको किताब पढ़ने के बाद ही पता चलेगा. वैसे, मुझे इस किताब की मेकिंग में काफी मजा आया, क्योंकि पहली बार मैंने नयी तकनीक सीखी. स्काइप के बारे में. बड़ा ही रोचक रहा यह सफर. मुन्नी विदेश में बैठ कर वहां से स्काइप के माध्यम से मुझसे बात किया करती थी. तो झूठ बोलने का तो सवाल ही नहीं उठता (हंसते हुए).

कुछ छुपाना भी चाहता तो स्क्रीन पर दिख जाता और फिर मुन्नी जिद्द पे अड़ जाती. स्पष्ट है कि कई नयी चीजों को इस किताब में शामिल करने की कोशिश की है. मैंने इस किताब में मुख्यत: अपने फिल्मी कैरियर के बारे में काफी चर्चा की है. मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं फिल्मों के लिए कुछ लिख पाऊंगा, लेकिन मैं जिनकी संगत में रहा, उन्होंने मुझसे गाने लिखवा लिये. मैं तो बिमल रॉय के साथ सहायक निर्देशक के रूप में था. शैलेन्द्र ‘बंदिनी’ फिल्म के गीत लिख रहे थे, लेकिन उन्होंने फिल्म का एक गीत ‘मोरा गोरा अंग’ मुझसे जबरन लिखवाया और फिर बस एक लत-सी लग गयी और कारवां बनता गया. मुझे याद है मैंने पंचम दा के लिए जब ‘मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है’ लिखा. उस वक्त पंचम ने यही कहा कि मतलब अब ‘लगेज’ और ‘चाभी’ यही गाने के बोल होंगे. कुछ भी लिख देते हो. हमलोग उस वक्त पंचम दा के घर पर ही बैठे थे. वहां सोफे की दूसरी ओर आशा ताई थी.

वो गाने के बोल ‘वो शाम लौटा दो’ गुनगुना रही थीं. पंचम ने कहा, फिर से गाओ, पंचम ने इस पर धुन बनानी शुरू की और फिर गीत बन गया. आज भी लोग इस गीत को पसंद करते हैं. इसके बाद से पंचम ने मेरा नाम ही चाभी रख दिया. मैं जब आता वे मजाकिया अंदाज में यही कहते कि आज क्या बोल लाये हो. अखबार या कुछ और.

आपकी तमन्ना थी कि आप ही ‘आनंद’ निर्देशित करें?
हां, यह मेरी चाहत थी. हुआ यूं था कि मैं इस फिल्म के बनने से पहले काफी दिनों तक ऋषिकेश मुखर्जी को असिस्ट कर चुका था. उन्होंने ही कहा था कि अब जो फिल्म तुम लिखोगे उसे तुम ही डायरेक्ट कर लेना. जब मैंने स्क्रिप्ट लिखने के बाद उन्हें सुनायी, तो उन्होंने कहा कि इस बार छोड़ दो, अगली बार तुम कोई और फिल्म डायरेक्ट कर लेना. ‘खामोशी’ के साथ भी ऐसा ही हुआ. स्क्रिप्ट सुनने के बाद मेरा नंबर ही नहीं. उसे असित सेन ने निर्देशित किया. बाद में ‘मेरे अपने’ से मुझे वह मौका मिला.

आपके नगमों पर कई बार विवाद भी होते रहे हैं? जैसे ‘हमने इन आंखों में देखी है’ गीत को लेकर हुआ था. ऐसा क्यों?
मुझे आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि आजतक किसी ने यह नहीं पूछा कि यह गाना एक महिला सिंगर कैसे गा सकती थी. लोगों को इस बात पर आपत्ति थी कि किसी की आंखों से महकती खुशबू कैसे आ सकती है, लेकिन किसी ने इसके पीछे की कहानी जानने की कोशिश ही नहीं की. दरअसल, ये गीत मैंने पुरुष आवाज के लिए लिखा था. लेकिन जब मैंने इसे हेमंत दा को सुनाया, तो उन्हें यह गीत बेहद पसंद आया. उनकी जिद थी कि इस गीत को लता ही गायेंगी. मैंने कई बार उन्हें समझाया कि ये गीत पुरुष की आवाज के लिए है, लेकिन वह नहीं माने. उन्होंने यह गीत लता से ही गवाया और मैं मानता हूं कि जहां कुछ सृजन होता है, पसंद-नापसंद का सिलसिला तो चलता ही रहता है.

आपने पंचम दा के साथ सबसे अधिक गीत लिखे. इसकी कोई खास वजह?

पंचम दा मेरे मेंटर हैं. मैंने जिन शब्दों को रचा, उन्होंने उसे आवाज दी. उनके साथ काम करने में बेहद मजा इसलिए आया, क्योंकि वे मेरे दोस्त बन गये थे. हम दोनों की खेल में बहुत दिलचस्पी थी. वक्त मिलने पर हम दोनों खूब खेल भी खेलते थे. वे मेरे लिखे गानों के साथ विजुलाइजेशन भी रखते थे. उनके कहने पर ही मैंने गीत ‘नदिया किनारा’ में ‘मांझी’ जोड़ा था. उनकी फिल्मों के लोकेशन और गाने के इस्तेमाल के मामले में समझ काफी अच्छी थी.

पंचम दा के बाद आपने सबसे अधिक काम विशाल भारद्वाज के साथ किया. यहां क्या खास वजह रही?

मुझे लगता है कि विशाल मेरा एक्सटेंशन है. उसकी फिल्मों और फिल्म के गानों को लेकर जो समझ है, वह औरों से बिलकुल अलग है. कम ही लोग उतनी अच्छी सोच रख पाते हैं. मैं उससे पहली बार दिल्ली में मिला था. तभी समझ गया था कि अगले दस सालों में वह हिंदी सिनेमा का कामयाब शख्स तो बनेगा ही, अगले 100 सालों तक राज भी करेगा. आज भी वह जो करता है, सबको पसंद आये-न-आये, मैं उसे हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित ही करता हूं. जनता हूं वह अलग है. अभी जब ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ के नाम की बात आयी थी, हम में काफी बातचीत हुई थी. मैंने बोला यही नाम रखो. शीर्षक ही अलग होगा तो लोगों की दिलचस्पी बढ़ेगी. मुझे खुशी है कि आज भी विशाल जैसे निर्देशक हैं, जिनके साथ काम करने में मजा आता है. विशाल पढ़ता बहुत है. काफी समझ रखता है. इमोशनल है.
इसलिए अच्छी फिल्में बनाता है. विशाल के अलावा मुझे मणिरत्नम सर (मैं मनिरत्नम को सर ही कहता हूं) उनके साथ काम करने में बेहद मजा आता है. उन्होंने ही पहली बार मुझसे गाने लिखने पर गानों के सारे सीन डिस्क्रिप्शन भी मांगे थे. उनकी इस बात पर मैं फिदा हो गया था. मणि सर के साथ हमेशा नयी चीजें सीखता रहा हूं. हाल में उनका फोन आया तो कहा वो मुझे मिस कर रहे हैं. एक तमिल फिल्म बना रहे हैं (मजाकिया अंदाज में) मैंने कहा हिंदी रीमेक बनाइये मैं जुड़ जाता हूं. उनके साथ हंसी-मजाक का रिश्ता जुड़ चुका है.

आपकी कविताओं, कहानियों, नगमों में आपके पुराने शहर दीना का कई बार जिक्र हुआ. वहां की यादों का जिक्र रहा. फिर आप वहां जाते क्यों नहीं?
इसलिए नहीं जाता ताकि वह शहर वही पुरानी सड़कों, लोग, घर के साथ मेरी यादों में जिंदा रहे. इन यादों के सहारे ही तो उसे नगमों में बयां कर पाता हूं. वरना शहर तो सारे एक साथ बदले और बढ़े. अब जिस शहर को मैं छोड़ आया, वो वैसा न होगा. वहां भी नये लोग आ गये होंगे. नयी इमारतें बन गयी होंगी. फिर कैसे लिखूंगा. जब मैं मुंबई आया था. चार बंगले के पास रहता था. रात को गर्मी लगती थी, तो बाहर आकर सो जाता था. अब तो वहां की काया बदल चुकी है. अब वो मुंबई भी नहीं, तो वो झेलम वैसा ही कैसे होगा. वैसे भी मानता हूं कि आंखों को वीजा नहीं लगता, जब भी मन करता है आंखें बंद करके घूम आता हूं वहां. जैसा छोड़ आया था, चाहता हूं झेलम हमेशा वैसा ही रहे.
फिर से फिल्म निर्देशन की इच्छा नहीं होती?
मैंने कोई रिटायरमेंट तो नहीं ली है. मुमकिन होगा तो और काम करूंगा आगे. अभी से कुछ कह नहीं सकता

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