20120724

मेरा पहला फिल्मी प्रीमियर: लाइफ इन अ मेट्रो @ पीवीआर जूहू



फिल्मी प्रीमियर की तसवीरें अखबारों व टीवी में देखती सुनती रहती थीं. मन
में कई तरह की जिज्ञासाएं थीं. लेकिन दो दिनों के मुंबई भ्रमण के पहले ही
मौके पर प्रीमियर में जाने का मौका मिल जायेगा. यह सोचा नहीं था. वर्ष
2007 की बात है. मैं और मेरे दोस्त पुणो आये थे. हमारी एक डॉक्यूमेंट्री
फिल्म का चयन एफटीआइआइ प्रभात फिल्मोत्सव में हुआ था.  सो, उसी दौरान
पहली बार दरअसल, महाराष्ट्र में पहला कदम रखा था.5 दिनों का आयोजन था.सो,
हमने फिल्मोत्सव से वक्त निकाल कर मुंबई का कार्यक्रम बनाया. मुंबई में
परिवार के कई सदस्य रहते हैं. सो, हम मिलने मिलाने चले आये. पहले यही
योजना थी कि एक दिन में सबसे मिल कर चले आयेंगे. लेकिन हम भूल गये थे कि
हम आ रहे हैं मुंबई शहर. जहां बनी बनाई योजनाएं भी फेल हो जाती हैं और पल
में क्या बदल जाता है. पता नहीं रहता. सो, हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ.
मुंबई आये. दिन बुधवार था. दादर के बस स्टैंड पर आकर रुकी थी पुणो से
हमारी बस. वहां उतर कर गोरेगांव का रास्ता पूछा. मुङो याद है. टैक्सी वाले
ने उस वक्त 80 रुपये लिये थे. रास्ते में हम दोनों ही उत्सुकता से मुंबई
की सड़कों, वहां के लोगों को, बेस्ट बस को देख रहे थे. लाइफ इन अ मेट्रो
के पोस्टर्स भी नजर आ रहे थे. बहरहाल हम पहुंचे गोरेगांव. हमें दूसरे दिन
पुणो वापसी करनी थी. दिन था गुरुवार. इसी दिन मुंबई में प्राय: फिल्मी
प्रीमियर आयोजित किये जाते थे. हम भी लकी थे. यह सुन कर कि आज रुक जाओ
लाइफ इन मेट्रो रिलीज हो रही है. प्रीमियर देख आओ. यह सुनते ही फिल्मी
लालची मन ने तुरंत मन बदल दिया. एक बार में हां में सिर हिला दिया कि हम
रुकेंगे.रात में 9 बजे का शो था. उस वक्त मुंबई के किसी भी इलाके से मैं
वाकिफ नहीं थी.( सच कहूं तो मुङो आज भी मुंबई के कई इलाकों के रास्ते एक
से लगते हैं. विशेष कर पीवीआर जूहू). पीवीआर जूहू में ही प्रीमियर था
शायद. किसी मल्टीप्लेक्स में भी फिल्म देखने का यह पहला अनुभव था
मेरा.जहां तक मुङो याद है. हम तीन लोग थे. हम ऑटो से उतरे ही थे कि मेरी
नजर इरफान खान पर गयी. वे ब्लैक या स्लेटी कलर के कोट में थे. किसी
फिल्मी हस्ती को इतने नजदीक से देखने का पहला मौका था. हम अंदर गये. वहां
रेड कारपेट का कार्यक्रम चल रहा था और इरफान मीडिया को बाइट दे रहे थे.

मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था कि आज पहली बार फिल्मी सितारों के साथ फिल्म
देखने का मौका मिलेगा. लेकिन अचानक जैसे ही सामने एक्सलेटर की सीढ़ी नजर
आयी. मेरी खुशी में लंबा सा पॉज लग गया. मैं ठहर गयी. मेरे दोस्त और
विपुल मामा दोनों एक्सलेटर से ऊपर जा चुके थे. उन्होंने ध्यान नहीं दिया
था. लेकिन मैं डरपोक नीचे ही रह गयी. कि पीछे से आवाज आयी. चलिए मैडम
चलिए, कोई दिक्कत नहीं है.डरिए मत. नहीं गिरियेगा. पलट कर देखा तो इरफान
खान थे. मैंने कहा नहीं नहीं मैं नहीं जा पाऊंगी. मैं किनारे हो गयी.
इरफान ने दोबारा कहा अरे मैडम डरिए मत. अच्छा ऐसा करिये डर रही हैं तो उस
तरफ सीढ़ी है. वहां से आ जाइए. इधर कैमरों के फ्लैश फ्लैश हो रहे थे
इरफान पर. और वे मुङो निर्देश दे रहे थे. लेकिन मुङो इरफान की उतनी देर
के बरताव से ऐसा लगा कि वाह फिल्मी सितारे तो बहुत कॉपरेटिव होते हैं.
बहरहाल मैं, सीढ़ियों से ऊपर आयी. मेरे साथ आये और दो महारथियों की अब
मेरी याद आ गयी थी.मेरे रोमांच के पल्स जिसने वहां एक्सलेटर के पास पॉज
ले लिया था. वह फिर से प्ले मोड में चले गये. हम थियेटर में पहुंचे. तो
थियेटर के अंदर जाते हुए भी मैं कुछ नया महसूस कर रही थी. तभी बगल से
समीर सोनी, रॉनित रॉय, उनकी पत् नी मानसी जोशी, मीता भट्ट, कल्पना
लाजिमी, सुधीर मिश्र जाते दिखे. जिन्हें हमेशा से टीवी पर देखती रहीं. आज
उन्हें मैं अपने सामने देख रही थी. हमें कोने की तीन सीट मिल गयी. अभी शो
शुरू नहीं हुआ था. सितारों का आना जाना जारी था. मेरी आंखें लगातार सबको
पहचानती जा रही थी. जिनके नाम याद नहीं थे. उनके धारावाहिक के किरदार से
उन्हें याद कर रही थी. लोग आपस में चर्चा कर रहे थे कि कंगना भी आनेवाली
है. उस वक्त कंगना की केवल गैंगस्टर ही रिलीज हुई थी. मुङो उस फिल्म से
प्यारी लगी थी कंगना सो, मैं इंतजार करने लगी थी. सच कहूं तो ईमानदारी
से. उस दिन भले ही आयी थी मैं फिल्म देखने. लेकिन मैं लगातार जो भी
कलाकार आ रहे थे. उन्हें ही देख रही थी. लेकिन थोड़ी ही देर के बाद
लाइट्स ऑफ हुए और फिल्म लाइफ इन अ मेट्रो शुरू हुई. फिल्म शुरू होने से
पहले यकीनन मेरा मन भटक चुका था. कलाकारों को देखने में. लेकिन जैसे जैसे
फिल्म आगे बढ़ती गयी. फिल्म की कहानी ने इस कदर बांधा  और मैं इस कदर
कहानी में रमी कि फिर खोती चलती गयी. लाइफ इन मेट्रो इसलिए मेरी आज भी
पसंदीदा फिल्मों में से एक नहीं है, क्योंकि यह मेरे जीवन का पहला
प्रीमियर शो था. लेकिन इसलिए क्योंकि अनुराग बसु ने न सिर्फ कहानी के
आधार पर, बल्कि संगीत से भी मुंबई की जिंदगियों की जो सैर करायी थी. वह
खासियत थी इस फिल्म की. 


मेरा दूसरा दिन मुंबई में और एक ऐसी फिल्म देख
रही थी जो मुंबई की कहानी बयां कर रही थी. सो, मैं फिल्म से काफी कनेक्ट
कर पा रही थी. दो दिनों में ही मुंबई मुङो अपना सा लगने था. न जाने
क्यों. लेकिन फिल्म की कहानियां, उसके किरदार, लोकल ट्रेन सारी चीजें ऐसा
लग रहा था जैसे दो दिनों में ही मैंने  इन सभी चीजों को आस पास महसूस
किया है. विशेष कर फिल्म में धर्मेद्र और नफीशा अली के बीच का प्रेम
प्रसंग इस हिस्से ने मुङो बेहद प्रभावित किया था.बहरहाल, मेरा पहला
प्रीमियर रोमांच इंटरमिशन पर आ पहुंचा था. इंटरमिशन पर भी बेहद रोमांटक
बातें हुईं मेरे साथ. मुङो पॉपकॉर्न और कोल्ड ड्रिंक्स खाने की इच्छा थी.
लेकिन मैंने जब बाहर प्राइस लिस्ट पर नजर दौड़ाई तो मेरी हिम्मत नहीं
हुई. आकर फिर से अपनी सीट पर बैठ गयी.जबकि हमारी सीट पर आकर मुङो थियेटर
ब्वॉय ने पॉपकॉर्न ऑफर किया था. मेरे पास पैसे तो थे नहीं. विपुल मामा और
मेरे दोस्त भी बाहर गये थे.सो, मैंने मना कर दिया. दोनों आये तो दोनों से
बताया तो विपुल मामा ने बताया कि पैसे देकर नहीं खरीदने थे. प्रीमियर में
गेस्ट्स के लिए रिफ्रेशमेंट रहता है. अब फिल्म शुरू हो चुकी थी. फिल्म की
शुरुआत से ही इरफान खान के किरदार से मुङो प्यार हो गया था. एक तो फिल्म
में उनका किरदार था भी बहुत मजेदार. और बाहर जो उनसे रूबरू होकर आयी थी
जो वह भी जादू था. सो, फिल्म के इरफान वाले हिस्से को मैंने सबसे ज्यादा
एंजॉय किया. इरफान की ईमानदारी मुङो बेहद प्यारी लगी. वह जो सोचते थे वह
भी बोल जाते थे.फिल्म में शिल्पा की बेबसी, और धर्मेद्र -नफीशा के प्यार
के पूरे न हो पाने का भी अफसोस था. लेकिन लाइफ इन मेट्रो की सबसे खास बात
यह थी कि फिल्म में कई कहानियां थीं. लेकिन जिस तरह दादर सेंट्रल और
वेस्टर्न लोकल को जोड़ती है. फिल्म की सारी कहानियां. सारे किरदार उलझते,
सुलझते, एक दूसरे से जुड़े थे. अनुराग बसु की अब तक की सबसे बेस्ट फिल्म
है ये मेरी नजर में. फिल्म खत्म होने पर वापसी के दौरान शिल्पा का शाईनी
के पास वापस न जाना बार बार अखड़ रहा था मुङो. गाइड की रोजी याद आ रही
थीं. 
अनुराग बसु को उस दिन भी मैंने नहीं देखा था. लेकिन उनकी कहानी कहने का तरीका बेहद भा गया था. a. लेकिन उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलने का मौका हाल में मिला.मेरे मन में यह सवाल था कि मैं उनसे
पूछूं कि शिल्पा शाईनी के पास वापस क्यों नहीं जाती. लेकिन पूछ नहीं
पायी. अनुराग को मैं लाइफ इन मेट्रो वाले अनुराग से ही जानने लगी थी.
उम्मीदन जल्द ही वह बर्फीवाले अनुराग बसु बन जायेंगे. क्योंकि इन फिल्मों
में दरअसल, निर्देशक की अपनी छवि, उनकी वास्तविक सोच की झलक है. 2007 में
पीवीआर जूहू के अपने पहले फिल्मी प्रीमियर के अनुभव हमेशा जेहन में जिंदा
रहेंगे. मैंने वापस जाकर अपने हॉस्टल में सभी को पूरी बात बताई थी. आज भी
इरफान सामने आते हैं तो एकबारगी पीवीआर के फ्लैशबैक में चली जाती हूं.
वर्तमान में प्राय: पीवीआर जूहू में ही फिल्मों की प्रेस स्क्रीनिंग होती
है और वहां अक्सर आना जाना होता है. आज भी एक्सलेटर की सीढ़ियां वही हैं.
वे बार बार एक तरफ से चढ़ कर दूसरी तरफ उतर जा रही हैं. इन पांच सालों
में कुछ खास नहीं बदला. लेकिन फर्क बस यही आया है कि   अब मैं एक्सलेटर
पर चढ़ने से नहीं डरती और पीछे से एक्सलेटर पर चढ़ने के लिए मेरा हौसला
बढ़ानेवाले इरफान से अब पीछे से नहीं आमने सामने बातें होती हैं

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