20120710

धरोहरों को सहेजते नेटवर्किग समूह


 हिंदी सिनेमा में प्राय: कंट्रीब्यूटिंग सिनेमा की बात की जाती है. विशेष कर ऐसे अवसर पर जब भारतीय सिनेमा अपने 100वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है. कलाकारों से निर्देशकों से या फिल्मी जगत से जुड़े शख्सियतों से प्राय: यह प्रश्न पूछे जाते हैं कि उनका सिनेमा में योगदान क्या है? और जवाब में इन हस्तियों के पास कुछ नाम रह जाते हैं. जिन्हें वे खुद सिनेमा में योगदान मानते हैं. लेकिन सिनेमा का महत्वपूर्ण योगदान मेरी समझ से यह भी है कि वैसी फिल्में, वैसे लोग जिन्हें दर्शक या लोग उनके न होने पर भी याद करें. उन पर चर्चा करें. सिनेमा का व्यापक असर बिना उस शख्सियत के मौजूदगी के ही दरअसल, वास्तविक में सिनेमा का प्रभाव है. कुछ ऐसे ही कंट्रीब्यूटिंग सिनेमा को निर्देशक बासु चटर्जी  ने भी बढ़ावा दिया है. और यह उनकी फिल्मों का ही असर है कि नयी युवा पीढ़ी का पसंदीदा सोशल नेटवर्किग साइट फेसबुक पर बने एक गुप्र ( संगीत के सितारे) में उनकी फिल्मों से जुड़े विषयों पर तीन दिनों तक ट्रीब्यूट के रूप में चर्चा हुई. यह सच है कि ऐसी चर्चाओं के बारे में कहीं किसी अखबार में चर्चा नहीं होती. लेकिन ऐसी चर्चाओं से कुछ बात जो साबित होती है, वह यह कि अगर सिनेमा में बेहतरीन काम हो तो उसका व्यापक असर लंबे अरसे तक रहता है और इसके प्रशंसकों की फेहरिस्त भी लंबी रहती है. बासु चटर्जी जैसे निर्देशक भी ऐसी ही फेहरिस्त में शामिल हैं. फिल्मों से संबंधित विचारों के आदान प्रदान का संगीत के सितारें जैसा समूह एक बेहतरीन मंच है. बासु चटर्जी से संबंधित कई अनछुए पहलुओं के बारे में इस समूह द्वारा अदभुत जानकारी उपलब्ध है.समय समय पर यहां हिंदी फिल्मी गीतों व संगीत से जुड़ी हस्तियों पर भी चर्चा हो रही है. हिंदी फिल्म के धरोहरों को सहेजने में ऐसे सोशल नेटवर्किग समूह भी अहम भूमिकाएं निभा रहे हैं. 

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