20120113

झारखंड-बिहार में फ़िल्म पॉलिसी नहीं

प्रत्येक वर्ष भारत की क्षेत्रीय भाषाओं की फ़िल्मों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. विशेषकर मराठी, पंजाबी, बांग्ला व दक्षिण की क्षेत्रीय भाषाओं में बेहतरीन फ़िल्में बन रही हैं. नतीजतन फ़िल्मों के माध्यम से इन राज्यों की संस्कृति फ़िल्मों में नजर आ रही है. यहां की संस्कृति का विकास हो रहा है.
इन राज्यों से संबंद्ध रखनेवाले फ़िल्मकार भी अपने राज्य की कहानी कहने की पहल कर रहे हैं. इन राज्यों के कई युवा हर साल इस क्षेत्र में आ रहे हैं और बतौर नये निर्देशक अपनी पहचान भी बना रहे हैं. बांग्ला, मराठी व दक्षिण की कई फ़िल्में विश्व स्तरीय फ़िल्मों की श्रेणी में आ चुकी है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इन राज्यों में फ़िल्म को संस्कृति का अहम हिस्सा माना गया है.
इसलिए इन राज्यों की सरकार द्वारा अपने राज्य की स्थानीय भाषाओं में बनायी गयी फ़िल्मों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, पंजाब, केरल व उन सभी राज्य जहां स्थानीय भाषाओं की फ़िल्मों का निर्माण हो रहा है, वहां नये फ़िल्मकार व फ़िल्मों के लिए पॉलिसी बनायी गयी है.
इसके तहत स्थानीय भाषा में बना रहे फ़िल्मों को फ़ंड के साथ साथ थियेटर में रिलीज कराने तक की जिम्मेदारी ली जाती है. महाराष्ट्र में नये फ़िल्मकार अगर मराठी में फ़िल्म बना रहे हैं, तो उन्हें दूसरी फ़िल्म से 35 लाख रुपये तक फ़ंड दिया जाता है. साथ ही उन फ़िल्मों का थियेटर में लगाना भी अनिवार्य किया गया है. कर्नाटक में भी फ़िल्मकारों को 3 से 4 लाख तक फ़ंड मुहैया कराया जाता है. शेष अन्य राज्यों में भी यही नीति है.
हाल ही में उत्तर प्रदेश ने भी फ़िल्म निधि के अंतर्गत स्थानीय फ़िल्मों को प्रोत्साहन देने की नीति बनायी. लेकिन अब तक झारखंड-बिहार में ऐसी कोई नीति बनाने पर विचार नहीं किया गया है. झारखंड व बिहार के कई ऐसे फ़िल्मकार हैं, जिन्होंने अपने बूते झारखंड-बिहार की कहानियां डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों के माध्यम से कहा है. पश्चिमी देशों में आज भी वहां की स्थानीय फ़िल्मों को सबसे अधिक तवज्जो दिया जाता है. भारत में ही यह अन्य राज्यों में लागू है.
बिहार-झारखंड लोकेशन के साथ साथ कहानियों से परिपूर्ण हैं, जिन पर बेहतरीन फ़िल्में बन सकती हैं. इन राज्यों की कला संस्कृति को बढ़ावा मिल सकता है. फ़िल्म पॉलिसी के ही तहत फ़ंड के साथ साथ फ़िल्म का प्रदर्शन थियेटर में अनिवार्य किया जाये, साथ ही प्रत्येक वर्ष अगर फ़िल्मोत्सव कराये जाये. तो फ़िल्म मेकिंग भी रोजगार का माध्यम बनेगा. साथ ही बिहार-झारखंड के महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों की कहानी भी संरक्षित की जा सकेगी. |
हाल ही में इस वर्ष झारखंड के फ़िल्मकार मेघनाथ व बिजू टोप्पो को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया.पहले भी झारखंड व बिहार की कई फ़िल्में विश्व के फ़िल्मोत्सव का हिस्सा बन चुकी है. ऐसे में अगर ऐसे फ़िल्मकारों को सहयोग मिले तो निश्चित तौर पर झारखंड-बिहार में भी फ़िल्म संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा, व यहां की कहानियां फ़िल्मों के माध्यम से विश्व स्तर पर पहुंचेंगी

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