20120122

ब्लैक लेडी का वास्तविक सम्मान




बॉलीवुड में फ़िलवक्त अवार्ड समारोहों का दौर चल रहा है. स्क्रीन अवार्ड, जी सिने अवार्ड के बाद आगामी 29 जनवरी को फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड समारोह भी होना है. अवार्ड समारोह में विशेष कर फ़िल्मफ़ेयर समारोह का सभी कलाकारों को बेसब्री से इंतजार रहता है, क्योंकि इसे हिंदी सिनेमा का ऑस्कर माना जाता है.
हर कलाकार की तम्मना होती है कि उनके घर की मेज पर फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड के रूप में ब्लैक लेडी का आगमन जरूर हो. ठीक उसी तरह जिस तरह हर व्यक्ति व खासतौर से व्यवसायी दीवाली में मां लक्ष्मी के आगमन की कामना करते हैं. पिछले फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड समारोह में इस बात को चंद लफ्जों में खूबसूरती से बयां किया था गुलजार साहब ने कि बाद मुद्दत के फ़िर मिली हो तुम, यह जो थोड़ी-सी भर गयी हो तुम.
यह वजन तुम पर अच्छा लगता है. यह अल्फ़ाज दर्शाता है कि गुलजार साहब जैसे दिग्गज की भी तमन्ना होती है कि हर वर्ष फ़िल्मफ़ेयर लेडी हमारे घर पधारे. दरअसल, विविधता में एकता प्रदान करनेवाली हमारी भारतीय संस्कृित की यह प्रकृति है कि यहां उन सभी महिलाओं का सम्मान होता है.
जब तक वह मूर्त रूप में नजर आयें. विदेश से आयी बार्बी डॉल भी हमारे बच्चों को बहुत प्यारी लगती है. शायद यही वजह है कि हिंदी सिनेमा के कई अवार्ड के स्टैच्यू महिला के प्रारूप में ही स्थापित हैं. फ़िल्मफ़ेयर को ब्लैक लेडी के प्रारूप में सबसे पहले ओर्टस्ट एनजी फ़ानसारे ने ढाला था. वर्ष 1954 में इसकी शुरुआत हुई थी. 46.5 तांबे की धातु से सजी इस ब्लैक लेडी को शायद मूर्तिकार ने ब्लैक यानी काला रंग इसलिए दिया था, क्योंकि यह रंग शुद्धता व पारदर्शिता का पर्याय है.
साथ ही काला रंग इस बात भी पर्याय है कि यह सम्मान पूरी निष्पक्षता से दिया जाता है. एक नारी के रूप में प्रारूप होना भी इस बात का सूचक था, क्योंकि किसी भी संदर्भ में जब नारी की बात आती है, तो वह खुद ब खुद निष्पक्ष, ईमानदार व मासूमियत की प्रतीक बन जाती है.
यही वजह है कि आज भी लगभग सभी बड़े अवार्ड समारोह का प्रारूप नारी के रूप में ही है. फ़िर चाहे वह स्क्रीन अवार्ड की ट्रॉफ़ी हो या स्टारडस्ट अवार्ड की. लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि मूर्तिरूप में सजी संवरी नारी का सजीव चित्रण कुछ और ही होता है. फ़िर चाहे वह बॉलीवुड क्यों न हो.
सम्मान के रूप में बॉलीवुड के दिग्गजों ने भले ही नारी के मूर्तिरूप की कद्र की हो. लेकिन वास्तविक रूप में नहीं. गौर करें तो किसी भी समारोह में लास्ट बट नॉट द लीस्ट यानी सबसे महत्वपूर्ण अवार्ड की घोषणा सबसे अंत में की जाती है. पुरुष प्रधान इस बॉलीवुड में भी इस सम्मान की हकदार कोई महिला प्रतिनिधि नहीं होती. बल्कि बेस्ट एक्टर के खिताब की घोषणा ही, सबसे अंत में की जाती है. साथ ही हिंदी सिनेमा जगत में महिलाओं की क्या कद्र है, यह जगजाहिर है.
दरअसल, हमेशा महिलाएं बॉलीवुड में मात्र शोपीस के रूप में ही लोगों को लुभाती रहीं हैं. प्रश्न वाकई यह है कि जिस तरह वर्षो से फ़िल्म पुरस्कार की ट्रॉफ़ी के रूप में नारी के निर्जीव रूप को सम्मान देते आ रहे हैं. उसके सजीव रूप को वह सम्मान कब मिलेगा? जिसकी वह हकदार भी है.
डीप फ़ोकस शुरुआती 25 सालों तक फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड में दी जानेवाली स्टैच्यू सिल्वर से बनी होती थी. 50 साल पूरे होने पर इन्हें सोने से तैयार किया जाने लगा

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