20120116

ढिंढोरा पीटो, वरना फ़िल्म डिब्बाबंद


युवा लेखक मुअज्जम बेग ने नवोदित कलाकारों के साथ फ़िल्म साडा अड्डा बनायी है. फ़िल्म पिछले शुक्रवार को 4084 और घोस्ट के साथ रिलीज हुई. जहां मुंबई समेत देश के कई इलाकों में 4084 व घोस्ट के प्रोमोशन हो रहे हैं, वहीं, साडा अड्डा के बारे में लोगों को जानकारी तक नहीं है.
जबकि, नये कलाकारों, सीमित बजट के साथ मुअज्जम बेग ने युवाओं की नब्ज पक़ड़ते हुए एक अच्छी कहानी कही है. सपने टूटने के कारण जीवन से निराश हो चुके युवाओं का यह फ़िल्म खास तौर पर देखनी चाहिए. यह फ़िल्म युवाओं को जागरूक करने के साथ उन्हें जिम्मेदारी का भी एहसास कराती है. लेकिन मार्केटिंग व प्रमोशन के अभाव में बेहतरीन कहानी वाली यह फ़िल्म रिलीज होकर भी लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है.
आलम यह है कि फ़िल्म के कलाकार मुंबई के सिनेमाघरों में स्वयं टिकट काउंटर पर खड़े होकर युवा दर्शकों व परिवारों को प्रोमो दिखा कर अपनी फ़िल्म देखने की गुजारिश कर रहे हैं. हर शुक्रवार कई बड़ी व छोटे बजट की फ़िल्में रिलीज होती हैं. लेकिन पहली बार किसी फ़िल्म के कलाकारों को फ़िल्म के टिकट बेचते देखा. चूंकि उन्हें विश्वास है कि फ़िल्म अच्छी है, इसलिए वे नहीं चाहते कि उनकी मेहनत बेकार जाये. फ़िल्म देखने के बाद दर्शक सकारात्मक प्रतिक्रिया दे रहे हैं.
दरअसल, फ़िल्म का निर्माण अब केवल रचनात्मक प्रक्रिया नहीं है. फ़िल्मकार को एक व्यवसायी की तरह फ़िल्म बेचने की तरकीब भी आनी चाहिए. वरना, आप दर्शकों को टिकट खिड़की तक नहीं ला सकते. यानी, फ़िल्म बनाने के साथ-साथ उसका ढिंढोरा पीटना भी जरूरी है. इसीलिए निर्देशक-निर्माता से ज्यादा अहमियत पीआर एजेंसियों की हो गयी है, जिन पर फ़िल्म पत्रकारिता की नींव टिकी है. जिन फ़िल्मों को इनका सहारा मिला, वे फ़ूहड़ होकर भी कामयाब हो जाती हैं और अर्थपूर्ण फ़िल्में डिब्बे में बंद.
बबलगम, दायें या बायें भी ऐसी ही प्रभावशाली फ़िल्में हैं, जो बहुत से सिनेमाघरों तक पहुंच भी नहीं पायीं. फ़िर आते हैं ताजा फ़िल्म साडा अड्डा पर. किराये के मकान में रहनेवाले छह लड़कों की कहानी है यह. सारे लड़के अलग-अलग प्रांत से हैं और सबके अपने-अपने सपने हैं. उनके सपने टूटते भी हैं. लेकिन पाश की कविता ‘हम लड़ेंगे साथी’ की तरह वह अपने सपनों को पूरा करते हैं. कविता की पंक्ति ‘जो लड़ते हुए मर गये, उनकी याद जिंदा रखने के लिए लड़ेंगे’ को लेखक ने अपनी फ़िल्म के माध्यम से पूरी तरह चरितार्थ किया है.
‘डेल्ही बेली’ के तीन किरदारों व साडा अड्डा के किरदारों में भी कई समानताएं हैं. डेल्ही बेली के साथ चूंकि सुपरसितारे का नाम जुड़ा है, इसलिए अपशब्दों व द्विअर्थी संवादों के बावजूद वह युवाओं का नया ट्रेंड दिखाती फ़िल्म मान ली जाती है. लेकिन साडा अड्डा जैसी फ़िल्में अपने पर नहीं फ़ैला पातीं, क्योंकि रचना पर बाजार हावी है.

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