20160130

एंटरटेनमेंट का कंफ्यूजन



एक ही वक्त पर तीन चैनल एक साथ अकबर के चरित्र का अलग-अलग चित्रण कर रहे होते हैं. दर्शक उन्हें लेकर असमंझस में होते हैं. तो कहीं किसी शो में अचानक राम की बहन शांता का जिक्र होता है. तो दर्शक इस सोच में पड़ जाते हैं कि क्या पहले जो उन्हों ने रामायण देखी तो उसमें आधी-अधूरी जानकारी थी. चाणक्य अशोक के गुरु बताये जाते हैं, तो कभी कर्ण और राधा के प्रेम पर सवालिया निशान लगाये जाते हैं.  लेकिन  फिर भी वे इन बातों की फिक्र नहीं करते, चूंकि उनके लिए भी अब कोई पौराणिक कथाओं, या धार्मिक कथाओं या ऐतिहासिक शोज सिर्फ एंटरटेनमेंट का जरिया हैं. लेकिन चिंतनीय विषय उस वक्त होता है, जब बच्चे धारावाहिकों में दिखाये जा रहे पात्रों को ही और कहानियों को ही इतिहास और हकीकत मान बैठते हैं. ऐसे में क्या धारावाहिकों के मेकर्स, लेखक की यह नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह अध्ययन के साथ इतिहास की कहानी परोसें, और उसे केवल भव्य सेट, आभूषणों व परिधानों पर ध्यान केंद्रित करने वाले शोज न बना कर. थोड़ी ठोस जानकारी वाले शोज के रूप में भी दर्शाये या फिर सिर्फ डिस्क्लेमर मात्र भर दे देने भर से उनकी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है. जितने शोज, उतने नजरिये भी हैं. इस पूरे मुद्दे पर अनुप्रिया अनंत और उर्मिला कोरी की पड़ताल 



मल्कानी कमिटी और डिस्क्लेमर 
 डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी
 डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी इतिहास, पौराणिक व शास्त्रों की गहरी और गंभीर समझ रखते हैं. उनके धारावाहिक चाणक्य को आज भी टेलीविजन जगत के श्रेष्ठ धारावाहिकों में से एक माना जाता रहा है. चूंकि उन्होंने इस शो का निर्माण इतिहास के प्रमाण और साक्ष्य के साथ किया था. उनका मानना है कि जहां प्रमाण और साक्ष्य है. भले ही वह विशुद्ध इतिहास न हो. लेकिन वह आधार है.वहां इतिहास है. टीवी के इतिहास में चाणाक्य को रियलिस्टिक शो माना गया है. विशेषज्ञ भी उसे चाणाक्य विषय पर महत्वपूर्ण दस्तावेज मानते हैं.   उन्होंने हाल ही में उपनिषद गंगा की सीरिज का भी निर्माण किया था. वे अपने धारावाहिक और उस दौर की बातें याद करते हुए बताते हैं कि जब मैं 80 या 90 के दशक की बात करता हूं तो उस वक्त कबीर का विरोध हुआ. हालांकि  उनका विरोध दूसरे कारणों से हुआ. तमस का विरोध हुआ. चाणाक्य का विरोध हुआ. टीपू सुल्तान का विरोध हुआ. लेकिन उस वक्त जो विरोध हुआ. उस समय जो भी दशक था. समूह था. विचारों को लेकर सक्रिय था.  जो भी विरोध करने वाले थे. वे विचारों को लेकर सक्रिय थे. जिनको लगता  था कि इतिहास के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए और इसकी शुरुआत टीपू सुल्तान के साथ शुरू हुई. उस वक्त जब काफी विवाद हुए तो एक कमिटी बनाई गयी थी. मल्कानी कमिटी बनी थी. वही यह निर्णय हुआ कि अब  से धारावाहिकों में यह डिस्क्लेमर डाला जायेगा और उस वक्त से इसका चलन शुरू हुआ. मुझे याद नहीं कि टीपू सुल्तान से पहले बने शोज में मैंने डिस्क्लेमर देखा होगा या फिर मैंने ही किसी डिस्क्लेमर के साथ चाणक्य बनाया था. मल्कानी कमिटी बनी थी. जो भी कंटेंट दिखाया जाता था इसमें टीपू सुल्तान या मल्कानी साहब का दोष नहीं था. सच्चाई  यह है कि अब दर्शक बदल चुके हैं. चाणाक्य में हर हर महादेव के नारे को लेकर लोगों ने हंगामा किया था.बहस की थी.अखबारों ने भी उस बहस को आगे बढ़ाया था.तमस को लेकर काफी विवाद हुआ था. तो इन मुद्दों को लेकर गंभीर चर्चा होती थी पूरे देश में कि किस तरह के कंटेंट िदखाये जा रहे हैं और उसमें इतिहास कितना है.अब वह सक्रियता नजर नहीं आती. न ही वह अखबारों में है. अब यह विमर्श का विषय ही नहीं रहा है. राष्टÑीय स्तर पर  कई स्थानों पर विमर्श होती थी. होना यह चाहिए था कि दर्शक जो यह शो देख रहा है. वह प्रश्न करे सोचे कि क्या जो दिखाया जा रहा है वह सच है. इस पर विमर्श करे.लेकिन अब मिलावट है. मिलावट इतनी है कि इतिहास अब बहुत कम रह गया है.और फिक् शन और कल्पना हो चुका है. बहुत सारे इतिहासकार इस बात पर सोचते हैं और यह चर्चा का विषय रहा है कि आखिरकार कल्पना में कितना इतिहास है.मेरा मानना यह है कि जहां इतिहास मौन है. वहां आप कल्पना का सहारा ले सकते हैं. लेकिन जहां साक्ष्य हैं. प्रमाण है.वहां आप कल्पना का विस्तार नहीं कर सकते. इतिहास के साथ. यहां आप इतिहास का उल्लंघन करते हैं. वह उल्लंघन नहीं करना चाहिए. यह मेरी नैतिक जिम्मेदारी है. लेखकों की नैतिक जिम्मेदारी ज्यादा है. निर्देशकों को तो जो दिया जाता है. वही वे बनाते हैं. लेकिन लेखक को इस पर अध्ययन करना चाहिए. अब यह किसी के  लिए बड़ा प्रश्न नहीं रह गया है कि क्या सच है और क्या झूठ है.सबके लिए एंटरटेनमेंट अहम है. इस समय सप्ताह के छह दिन अगर किसी ऐतिहासिक पात्र से उनका मनोरंजन होता है. तो वह इस बात को लेकर गंभीर नहीं हैं कि सही क्या गलत क्या है. कुल मिला कर  यह सच है कि इतिहास के नाम पर जो धारावाहिक बन रहे हैं. जो कुछ इतिहास के नाम पर  दिखाया जा रहा है. उसमें इतिहास है ही नहीं. सवाल यह है कि इसको रोका जाना चाहिए. क्या उस उपाय है. तो इसका जवाब यह है कि इसका हल अदालत में है. संविधान में है. चूंकि संविधान में डिस्टॉरशन आॅफ हिस्ट्री पर भी आप अदालत में गुहार लगा सकते हैं. पर पिछले कुछ वर्षों से ऐसी कोई बात सुनने को नहीं मिली है कि किसी ने अदालत में जाकर गुहार लगाई हो.  छोटे छोटे मसलों को लेकर हम अदालत के पास चले जाते हैं. लेकिन जहां गंभीर मसलों की बात है. हम चुप रहते हैं. फिल्म को लेकर अधिक तमाशे हो जाते हैं. लेकिन गंभीर अध्ययन के मसले होते हैं. वहां सभी शांत हो जाते हैं. और गौर करें तो मेरी जितने भी इतिहासकारों से बातचीत होती है. वे इस मसले को लेकर उदासीन हैं. उनको  लगने लगा है कि सिर्फ यूनिवर्सिटी में पढ़ाना उनकी जिम्मेदारी है.टेलीविजन पर जो आ रहा है. उस पर कुछ कहना जिम्मेदारी नहीं है. यह भी हकीकत है कि हर धारावाहिक के बाद ब्राडकास्ट काउंसिल नोट देता है कि अगर आपको किसी धारावाहिक के कंटेंट से शिकायत है तो उनके पास दर्ज करें. लेकिन मेरी समझ से कभी भी उनके पास ऐसी कोई शिकायत गयी ही नहीं होगी, क्योंकि यह अध्ययन का मामला है. श्याम बेनगल साहब ने डिस्कवरी आॅफ इंडिया जैसा शो बनाया था. वह पंडित जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक थी. और मेरा मानना है कि वह एक श्रेष्ठ धारावाहिक था. वह कबीर, तूलसीदास के साथ आसाढ़ का महीना की भी बात होती है.वहां कल्पना और काव्य का वह विस्तार करते हैं. वह उस शो में उस दौर के समकालीन लेखकों की श्रेष्ठ कृतियों का इस्तेमाल करते हैं. बिना इतिहास को चोट पहुंचाये.सच्चाई यह है कि हमारे पास पात्रों के बारे में अधिक जानकारी ही नहीं है. स्कूल में पढ़ानेवाले जानते हैं कि जो दिखाया जा रहा है. वह हकीकत नहीं है. उसे इतिहास नहीं कहा जा सकता. जैसे मैंने चाणक्य और अर्थशास्त्र की नीति को लेकर कई प्रमाण और साक्ष्य रखे थे. फिर चरित्र को गढ़ने की कोशिश की थी. और इसके लिए मेरे पास प्राप्त पुस्तकें थीं. तो उस वक्त अगर कोई विवाद होता था. तो मैं कहता था कि आप मुझे अदालत में बुलायें. हम वही बात करेंगे. इतिहासकार आज के परिदृश्य से दुखी हैं. अभी जरूरत शिक्षक और अभिभावकों को जरूरत है कि वह अपने बच्चों को समझायें कि इतिहास क्या है और क्यों जो दिखाया जा रहा है वह सही नहीं है. मैं अपनी बेटी को समझाता हूं कि इतिहास को जानना है तो बहुत अच्छी अच्छी किताबें लिखी गयी हैं. उसे पढ़ो.चैनल देख कर आप इतिहास नहीं समझ सकते. यही बात उन लोगों को भी कहता हूं जो यह कहते हैं कि बच्चों पर इन धारावाहिकों का क्या प्रभाव पड़ता है. गलत प्रभाव पड़ रहा. अगर आप यह जानते हैं तो बोलें और नहीं तो आप बच्चों को ही समझायें कि अध्ययन करें तब इतिहास समझेंगे. किताबें काफी अच्छी अच्छी लिखी गयी हैं. उन्हें पढ़ना जरूरी है. अध्ययन करेंगे तो इतिहास जान पायेेंगे. लेकिन दर्शकों में वह ललक नहीं है. उस वक्त के इतिहासकार मानते हैं कि 80-90 के दशक में कोई ऐतिहासिक शो बनता था तो उनका कम से कम अप्रोच होता था.अब तो अप्रोच ही नहीं है. तो बात नैतिक जिम्मेदारी की भी है.जाहिर है कि किसी निर्माता की यह जिम्मेदारी नहीं. आप इस बात क ोलेकर उन पर दोष नहीं मढ़ सकते पूरी तरह. दर्शक को खुद को अध्ययन करना होगा.और चुप्पी तोड़नी होगी. तभी कुछ संभव है. हम जब शोज बनाते थे. तो इन बातों का ख्याल जरूर रखते थे कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ न हो और दर्शकों को सही मेसेज ही जाये. प्रमाण और साक्ष्य के आधार पर.
असली को नकली नकली को असली मान बैठे हैं : 
डॉ बोद्धी सत्व, कविताएं लिखता हूं, स्क्रिप्ट राइटर, रिसर्चर, स्टोरी राइटर( जोधा अकबर, हनुमान)
 मेरा मानना  है कि टेलीविजन में कोई डायरेक्ट सेंसर नहीं होता, जो हर दिन किसी एपिसोड की जांच होकर कि क्या दिखाया जा रहा, क्या नहीं. यह दर्शकों तक पहुंचे. लोग पहले ही डिस्क्लेमर के रूप में मापी मांग लेते हैं. लेकिन मेरी समझ से यह लेखक और निर्माता के विवेक पर निर्भर करता है कि वह कितनी हकीकत दिखाते हैं, कितना नहीं. यह उनकी ही जिम्मेदारी है. हमारे यहां सोच है कि चलो दिखा देते हैं...क्या होता है. इसलिए बस भेड़चाल में लोग बढ़ते चले जा रहे हैं. आपने अभी प्रश्न किया कि हनुमान और रावण की कभी बचपन में लड़ाई ही नहीं हुई है. गलत दिखाया जा रहा है. हकीकत यह है कि इसका वर्णन पूर्णरूप से भविष्य पुराण में है. लेकिन लोगों ने पढ़ा ही नहीं है तो आपको पता कैसे चलेगा कि सच क्या है. लोग असली को नकली, नकली को असली मान रहे हैं. इसलिए पढ़ना जरूरी है. तभी आप तय कर पायेंगे. रही बात धारावाहिकों की तो मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करता कि इतिहास की मर्यादा के साथ खिलवाड़ न हो. मैंने कई बार कई दृश्य रोक वाये हैं. अपने राइटर से कहा है कि उसे सुधारें. किसी के पास वक्त ही नहीं है कि वह इतनी गंभीरता से अध्ययन करें. जबकि यह बेहद अहम पहलू है. यह हमारा दुर्भाग्य है. लेकिन मेरी कोशिश होती है कि मैं सही तरीके से ही लोगों तक अपनी बात पहुंचाऊं.  जो पढ़ेंगे वही जानेंगे कि कैकयी की भी बेटी थी. ऐसे कई बातें हैं, जो आने चाहिए सामने. लेकिन इन चीजों की मेकिंग में अध्ययन में वक्त लगता है. और डेली सोप के पास इतना वक्त नहीं होता. 

रिसर्च -एंटरटेनमेंट का मिश्रण 
एक चैनल के पूर्व प्रोग्रामिंग हेड रह चुके नमित का मानना है कि  एक ऐतिहासिक और पौराणिक शो बनाने में बहुत सारे रिसर्च की जरूरत पड़ती है. 60प्रतिशत तक जहां रिसर्च होता है 40 प्रतिशत एंटरटेंमेंट वैल्यू को ध्यान में रखा जाता है, जिसमें रिसर्च के साथ-साथ इंटरटेंमेंट का भी ध्यान रखा जाता है. चूंकि हम सीरियल बनाते हैं, कोई डॉक्यूमेंट्री नहीं. इसलिए हमें एंटरटेनमेंट के लिए थोड़ी बहुत सिनेमाटिक लिबर्टी लेनी ही पड़ती है. लेकिन कोई भी धारावाहिक कभी कोई दावा नहीं करता है कि वह ऐताहासिक प्रमाण है. धारावाहिक  देवों के देव महादेव व सिया के राम के निर्माता अनिरुद्ध पाठक मानते हैं कि लेखक जो होते हैं, वह अपने लेखनी में उस दौर  की संरचना और अपनी सोच भी डालते हैं. जैसे तुलसीदास के रामचरित्रमानस में पुरुष की सोच दिखती है. रामचरित्रमानस में शूद्र, पशु और नारी ये हैं तारण के अधिकारी...इससे समझ आता है कि आपके लेखक का भी क्या दृष्टिकोण होता है. वह एक पुरुष के नजरिये से हैं. जैसे सीता के अग्निपरीक्षा वाले प्रकरण में रामचरित कुछ और कहता. बाकी रामायण में अलग बातें हैं तो यह कह पाना मुश्किल है कि कौन सी बातें सही थीं कौन सी गलत. 
ऐतिहासिक चरित्रों के चित्रण से खिलवाड़
 समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता मानते हैं कि इन दिनों पौराणिक और ऐतिहासिक शो की धूम मची हुई है. हमें कहीं न कहीं ये शो हमारे वास्तविक जड़ों और समृद्ध इतिहास की ओर ले जा रहे हैं. मौजूदा दौर में हम सभी बहुत परेशान हैं किसी न किसी वजह से हमारा फ्रस्ट्रेशन लेवल बढ़ाता ही जा रहा है. ये शोज हमें जीवन की चुनौतियों से लड़ने और पारिवारिक मूल्यों से जोड़ते हैं. ऐसे में आप एंटरनटेंमेंट के नाम पर यह नहीं कर सकते हैं कि आप किसी तथ्य या शख्स को गलत साबित कर दे. तथ्यों के साथ खिलवाड़ कर आप भारत के समृद्ध इतिहास को गलत बना रहे हैं. महाराणा प्रताप शो की बात करें तो उसमे जिस तरह से महाराणा प्रताप के किरदार को ज्यादा अच्छा बताने के लिए अकबर के किरदार को प्रस्तुत किया गया था. उससे शायद ही कोई पांच या दस साल का बच्चा अकबर को अच्छा समझेगा. फिर वह जब स्कूल की किताब में पढ़ेगा कि अकबर अच्छा था तो वह किस पर यकीन करेगा.  
बजट, प्रोमोशन है प्राथमिकता
 जी हां, यह भी हकीकत है कि जब जब इस तरह  के शोज की लांचिंग होती है. इसे बड़े स्तर पर लांच किया जाता है. शो के सेट पर अत्यधिक खर्च किया जाता है. ताकि सबकुछ भव्य नजर आये. स्टारकास्ट के कॉस्टयूम पर भी पानी की तरह पैसे बहाये जाते हैं. लेकिन कहानी और उसकी मौलिकता पर किसी का खास ध्यान नहीं जाता. स्टार प्लस पर कुछ महीने पहले प्रसारित हुआ महाभारत सीरियल की बात करें तो यह शो १०० करोड़ की लागत से बना था. यह टेलीविजन के  बजट के स्तर से एक मेगा बजट प्रोजेक्च था. भारी भरकम और चमकीले गहने, कपड़ों, हथियार से लेकर मुकुट सभी पर विश्ोष ध्यान दिया गया था.इस सीरियल के प्रमोशन के लिए इन्हीं ज्वेलरी, कपड़ों  और हथियारों का जगह-जगह पर प्रर्दशन कर इस मायथोलोजिकल शो का प्रमोशन किया गया था. सीरियल के वीएफएक्स पर भी बहुत ध्यान दिया गया था.बस कहानी पर नहीं. इस पौराणिक महागाथा के सूत्रधार भगवान कृष्ण थे,  जिस तरह से बी आर चोपड़ा के महाभारत के सूत्रधार समय का वह चक्र था. कृष्ण के महाभारत की कहानी के सूत्रधार बनाए जाने से कई लोग नाराज भी हुए थे. उनका कहना था कि कृष्ण का जन्म ही नहीं हुआ था ऐसे में वह पांडु और धृतराष्ट्र की कहानी को कैसे सुना सकते हैं.  गौर करें तो मौजूदा शो सूर्यपुत्र कर्ण की बात करें तो उसमे में तथ्यों के साथ बहुत खिलवाड़ देखने को मिल रहा है. व्यास के महाभारत में कर्ण का नदी के किनारे राधे और आदिरथ को मिलने की बात ही अब तक थी. लेकिन इस शो में दिखाया गया है कि कुंती की दासी सबकुछ प्लान कर आदिरथ को कर्ण को सौंप देती है. आदिरथ को सबकुछ पता है लेकिन उनकी पत्नी राधे को नहीं.इस तरह के कई तथ्यों के साथ इस सीरियल में समय समय पर छेड़छाड़ देखने को मिलता है. कुछ ऐसा ही रजिया सुल्तान, जोधा अकबर जैसे धारावाहिकों के साथ भी होता रहा है. फैशन डिजाइनर्स बताते हैं कि कई ऐतिहासिक शोज ने फैशन ट्रेंड भी सेट करते हैं. जैसे जोधा अकबर के गहने कई दुल्हनों की पसंद बने थे. तो गौर करें कि ये विषय मनोरंजन के रूप में इस कदर दर्शकों पर हावी हो जाते हैं कि वे इन्हें इतिहास नहीं एंटरटेनमेंट के रूप में ही देखने लगते हैं और उनके अंदाज को वे अपना स्टाइल स्टेटमेंट भी मानने लगते हैं. तो इस बात से भी उस शो की लोकप्रियता बढ़ती जाती है. एक तरह से वह शो सिर्फ फैशनेबल शो बन कर ही रह जाता है. और दर्शक भी उससे ही प्रभावित होते हैं. उन्हें भी कहानी से कोई खास फर्क नहीं पड़ता. और न ही किसी की यह चिंता है कि क्या हकीकत है. िकतना वास्ता है हकीकत से. यह भी वजह है कि टीवी पर इसे लेकर गंभीरता नहीं दिखायी जा रही है. लेखक, निर्देशक और निर्माता इसे लेकर कैचुअल अप्रोच ही रखते हैं.


अधूरी हैं जानकारियां 
देवदत्त पटनायक, इतिहासकार व सिया के राम के कंसलटेंट लेखक
स्टार प्लस के धारावाहिक सिया के राम में जब राम की बहन शांता के वाक्ये को दर्शाया जाता है. तो दर्शक भी आश्तर्यचकित रहते हैं और वे भी चौंकते हैं कि इससे पहले कभी भी शांता की कहानी दर्शकों के सामने नहीं आती है. गौर करें तो बहुत हद तक सिया के राम में कई नयी घटनाओं से परिचित कराया जा रहा है. एक महिला के दृष्टिकोण को भी शो में दर्शाने की कोशिश है. इस शो की खासियत है कि इसे तर्कपूर्ण बनाने की कोशिश की गयी है. साथ ही इसे धार्मिक न बना कर वैचारिक दृष्टिकोण देने की कोशिश की गयी है. कई स्थानों पर सीता के कई सवाल कई सवाल खड़े करते हैं. शांता प्रकरण एक नयी दुनिया में ले जाते हैं रामायण के. सो, इस लिहाज से सिया के राम में कई बातें नवीन हैं. लेकिन वाकई क्या यह घटनाएं हुई थीं. इसके साक्ष्य हैं. इस बारे में देवदत्त पटनायक अपना नजरिया प्रस्तुत करते  हैं.  देवदत्त पटनायक इन दिनों सिया के राम के कंसलटिंग राइटर हैं. वे मानते हैं कि कोई दावा नहीं कर सकता कि कौन सा रामायण सही है कौन सा नहीं. वे मानते हैं कि अब तक राम की दृष्टिकोण वाले रामायण ही दर्शक देखते आये हैं. लेकिन सिया के राम में कोशिश है कि सीता की जिंदगी के अहम पहलू को दिखाया जाये. मेरा मानना है कि रामायण के कई वर्जन हमने बचपन से सुने और देखे हैं. सिर्फ रामायण ही नहीं, महाभारत और कई गंथ्रों के बारे में हम बचपन से सुनते आते हैं और देखते आते हैं. लेकिन हम कभी यह दावा नहीं कर सकते कि कौन सी कहानी सच है. कौन सी नहीं. मैं मानता  हूं कि वे सारी अधूरी जानकारियां है.रामायण के बहुत सारे अनछुए पहलू हैं. जिनसे आज भी हम सभी अनजान हैं. आज तक हमने रामायण को राम के नजरिये से देखा है और उसे ही सच मान लिया है. जबकि रामायण के भी अपने वर्जन है. जैन धर्म में तो लोग मानते हैं कि राम ने हथियार उठाया ही नहीं था. लक्ष्मण ने उठाया था. तुलसीदास के रामचरितमानस  और वाल्मिकि के रामायण में भी काफी अंतर हैं. जैन धर्म में रामायण में अहिंसा पर जोड़ है. रावण की हत्या लक्ष्मण करते हैं. वाल्मीकि की रामायण में लक्ष्मणरेखा का शायद जिक्र ही नहीं है. लेकिन बाकी जगहों पर है. तो हम इस पर दावा नहीं कर पाते कि कौन सा रामायण बिल्ुल सटीक है. कौन सा नहीं. सिया के राम में गौर करें तो हर दृश्य के साथ व्याख्या है कि यह कौन सी रामायण पर आधारित या मेल खाती है. इसमें सिया की दृष्टि से अग्निपरीक्षा राम का फैसला जैसे चली आ रही बातों का भी अलग नजरिया दिखाया गया है. शेष दावा तो कोई नहीं कर सकता. इन विषयों पर कई तरह के कंफ्यूजन हैं. और वह बने ही रहेंगे. लेकिन हर लेखक का नजरिया होता है और वह उस नजरिये के साथ जिस आधार पर बात कह रहा. उसका वह जिक्र कर देता है. 


पौराणिक और ऐतिहासिक सीरियल से जुड़े विवाद 
 द सोर्ड आॅफ टीपू सुल्तान : 90 के ही दशक के ऐतिहासिक शो द सोर्ड टीपू सुल्तान पर ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करने की बात आयी थी. बात सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंची. जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह आॅर्डर दिया कि यह शो बंद नहीं होना चाहिए लेकिन सीरियल के शुरुआत में डिस्क्लेमर होना चाहिए। यह एक फिक्शन शो है. जो टीपू सुल्तान की जिंदगी और नियमों से जुड़े होने का दावा नहीं करता है बल्कि  भगवान गिड़वानी के उपन्यास का काल्पनिक रुपांतरण है. इस सीरियल के साथ ही भारतीय टेलिविजन पर  डिस्क्लेमर दिखाया जाने लगा. 

चंद्रकांता :90 के दशक की प्रसिद्ध सीरियल चंद्रकांता  देवकी नंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता पर आधारित था लेकिन नीरजा गुलेरी का यह टेलिविजन रुपांतरण पौत्र कमलपंति खत्री को पसंद नहीं था. उन्होंने साफ कह दिया था कि नीरजा गुलेरी ने खत्री की चंद्रकांता की आत्मा के साथ न्याय नहीं किया था. उन्होंने उपन्यास के कई कांसेप्ट को गलत ढंग से पेश किया. अय्यारी और तिलिस्म को उन्होंने जादू टोने के रुप में दिखाया. 

वीर शिवाजी: कर्लस पर २०११ में प्रसारित हुए वीर शिवाजी शो में छत्रपति शिवाजी को महाराज को हिंदू शासक के रुप में दिखाया गया था. इस बात से कई धर्म निरपेक्ष लोगों को परेशानी थी. छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा  अफजल खान के हत्या सीन को लेकर काफी हंगामा मचा था. कई लोगों ने इसे भड़काऊ करार दिया था. गौरतलब है कि महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज सभी के आदर्श हैं. कई राजनीति पार्टियां उनके नाम पर राजनीति करती रही हैं. सूत्रों की मानें तो शो की स्क्रिप्टिंग हो या प्रस्तुतिकरण उनको खुश रखने की पूरी कोशिश की गयी ताकि शो को लेकर विवाद न हो. 

जोधा अकबर -टेलीविजन क्वीन एकता कपूर के ऐतिहासिक शो जोधा अकबर को लेकर काफी हंगामा मचा था.  राजपूतों ने तो इस बात से ही इंकार कर दिया था कि जोधा अकबर की पत्नी थी. उनका साफ कहना था कि किसी किताब या ऐतिहासिक दस्तावेज में इस बात का जिक्र नहीं है. ऐसे में सीरियल में राजपूत समुदाय की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है. बात इस कदर बड़ गयी थी कि जीटीवी चैनल को कई जगहों पर बंद करवाने की इस समुदाय के लोगों ने तैयारी कर ली थी. एकता कपूर को कोर्ट का नोटिस भी मिला था. जिसके बाद यह शो कई दिनों तक टेलिविजन पर बंद भी था हालांकि बाद में डिस्क्लेमर के साथ यह वापस लौट आया. डिस्क्लेमर न सिर्फ शो के शुरुआत में बल्कि शो के बीच में नीचे एक पट्टी पर लिखा नजर आने लगा. जिसके बाद ही यह मामला शांत हुआ.  उसके बाद शो में किसी सास बहू ड्रामा शोज की तरह अजीबोगरीब टिवस्ट नजर आने लगे थे. फिर चाहे जोधा की बहन शिवानी का किरदार हो .

बुद्धा :  सीरियल में भगवान बुद्ध का पहला एपिसोड़ टेलिकास्ट ही नहीं हुआ था और नेपाल में इस सीरियल और जीटीवी चैनल को लेकर विवाद पैदा हो गया. दरअसल इस सीरियल के प्रमोशन के दौरान सीरियल के ही कलाकार कबीर बेदी ने गलती से भगवान बुद्ध के जन्मस्थान को भारत बता दिया था जिसके बाद नेपाल में हंगामा हो गया. कई लोग सड़को पर उतर आए थे. नेपाल ने भारतीय चैनलों को कुछ दिनों के लिए बंद ही कर दिया था. आखिरकार कबीर बेदी के सोशल साइट्स पर माफी मांगने के बाद  विवाद खत्म हुआ. 

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