20160129

रंग दे बसंती के 10 साल

कोई भी देश परफेक्ट नहीं होता. उसे परफेक्ट बनाना पड़ता है. जिंदगी जीने के दो ही रास्ते होते हैं. जो हो रहा है उसे होना दिया जाये या फिर उसे बदलने की जिम्मेदारी उठाई जाये...कुछ ऐसी सोच के साथ राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने आज से 10 सालों पहले रंग दे बसंती की नींव रखी थी. फिल्म युवाओं पर आधारित थी और लंबे अरसे के बाद किसी क्रांतिकारी फिल्म ने उन्हें झकझोरा था. हाल ही में फिल्म के 10 साल पूरे हुए. इस मौके पर फिल्म के सारे कास्ट व सदस्य एक साथ मिल कर जश्न में शामिल हुए और उन्होंने फिल्म से जुड़े कई पहलुओं से रूबरू कराया. 

 कैसे पड़ी थी नींव
रंग दे बसंती पहले सिर्फ डॉक्यूमेंट्री के रूप में बनाई जानेवाली थी. निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा व लेखक कमलेश पांडे ने साथ में मिल कर इससे पहले अक् श बनाई थी. मन में उलझन थी कि अब आगे क्या. उस वक्त कमलेश पांडे को संत तुकाराम के बारे में कहानी सुनने को मिली थी कि किस तरह तुकाराम को पूजने वाले ही खुद को तुकाराम समझ बैठे थे...वहां से कमलेश पांडे के जेहन में यह बात आयी कि कोई ऐसी कहानी गढ़नी चाहिए, जहां कलाकार किरदारों को निभाते- निभाते, मजाक-मजाक में वही किरदार जीने लगे. उन्होंने रंग दे बसंती में अपनी यह सोच डालने की पूरी कोशिश की. बकौल लेखक कमलेश पांडे इस फिल्म का नाम पहले आहूति रखा गया था. लेकिन आहूति उस दौर की कहानी के लिए फिट शीर्षक नहीं था. सो, उन्होंने फिर इसे यंग गन आॅफ इंडिया के नाम से बनाना शुरू किया. लेकिन यह नाम भी फिट नहीं बैठा.बाद में रंग दे बसंती नाम पर सबने हामी भरी.
दलेर पाजी के इटैलियन निर्देशक
दलेर मेहंदी इस फिल्म का शीर्षक गीत गाने वाले थे. वे स्टूडियो पहुंच चुके थे. फिल्म के गीतकार प्रसून जोशी के साथ उनकी बातचीत का सिलसिला जारी था. दलेर मेहंदी लगातार सवाल पूछ रहे थे कि आखिर रिकॉर्डिंग कब होगी. रिकॉर्र्डिंग में वक्त लग रहा था, क्योंकि एआर रहमान अपने टयून पर और काम कर रहे थे. ऐसे में जब निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा उनके सामने आये तो दलेर को लगा कि वह कोई इटैलियन निर्देशक हैं. चूंकि उनके बाल भी काफी लंबे थे. और उनकी बातचीत का लहजा भी वही था. बाद में उन्हें जानकारी मिली कि वह इंडियन ही हैं. दलेर मेहंदी लंबे इंतजार के बाद जाकर सो गये थे. उस वक्त सुबह के चार बज रहे थे. उस वक्त एआर रहमान अपने कमरे से बाहर आये और उन्होंने आकर कहा कि दलेर जी को बुला लीजिए. सबने कहा कि वह सो चुके हैं...रहमान ने कहा कि तो क्या हुआ. जगा कर बुलाइए. उस वक्त दलेर फौरन उठ कर आये और उन्होंने एक टेक में ही पूरा गाना ओके कर दिया था.
लता जी की लुक्का- छुप्पी
इस फिल्म के गीत लुक्का छुप्पी को लेकर भी खास बात यह हुई थी कि यह गीत पहले फिल्म का हिस्सा नहीं बनने वाला था. चूंकि शूटिंग पूरी होने के बाद गाने की रिकॉर्र्डिंग थी. लेकिन प्रसून को महसूस हुआ कि यह गीत फिल्म का हिस्सा बनना ही चाहिए. और उनकी ही यह इच्छा थी कि लुक्का छुप्पी शब्द मैं फिल्म में जरूर इस्तेमाल करूं. बहरहाल यह तय हुआ कि गाना फिल्म का हिस्सा बनेगा. लेकिन इसे गायेगा कौन. उस वक्त लता जी खुद स्टूडियो आयीं. और वे लगातार गाने की रिहर्सल करती रहती थीं. वे रिहर्सल के वक्त भी लगातार खड़ी होकर ही रिहर्सल करतीं. लगभग आठ घंटे वह खड़ी रहीं और उन्होंने फिर इस गाने की रिकॉर्डिंग पूरी की.
जब नहीं बन रहा था संयोग
इस फिल्म को लेकर राकेश जब आमिर के पास गये थे तो आमिर ने स्क्रिप्ट सुन कर हामी भर दी थी. वे यह फिल्म करेंगे. लेकिन राकेश बजट का इंतजाम नहीं कर पा रहे थे. लेकिन आमिर के जेहन में यह बात बैठ गयी थी कि यह फिल्म उन्हें करनी ही है. वे एक दिन राकेश से मिलने गये तो राकेश से पूछा क्या कर रहे इन दिनों. राकेश ने उन्हें अपनी किसी दूसरी फिल्म के ड्राफ्ट्स दिखाया. उस वक्त आमिर ने कहा कि मेहरा जिसमें दिल है वो बना... फिर एक दिन उन्हें मेसेज करके उनकी ही स्क्रिप्ट की बात कही कि जिंदगी जीने के दो ही रास्ते होते हैं. जो हो रहा है, उसे होने दें या फिर उसे सुधारने की जिम्मेदारी उठायें. फिर जाकर राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने ठान लिया कि वह यह फिल्म बनायेंगे और वह इस बात का पूरा श्रेय आमिर खान को दे देते हैं.
यूं मनाया वहीदा जी को
वहीदा रहमान को राकेश इस फिल्म में किसी भी तरह शामिल करना चाहते थे. लेकिन वहीदा जी तैयार नहीं हो रही थीं. राकेश और उनकी पत् नी भारती कई बार वहीदा जी से बेंग्लुरु में जाकर मिल कर भी आये थे. वहीदा बताती हैं कि भारती को जब यह पता चला कि वहीदा जी बेंग्लुरु हैं तो उन्होंने उन्हें ढेर सारे अचार बना कर भी भेजे. लेकिन जब फिर भी बात नहीं बनी. तो राकेश ने वहीदा जी से कहा कि अगर वह कहें तो वह उनके घर के बाहर ही सेट तैयार कर देंगे. लेकिन उनके बगैर फिल्म नहीं बनायेंगे. आखिरकार वहीदा जी मानी और फिल्म का हिस्सा बनीं.



गीतकार शैलेंद्र कुमार ने लिखा है कि
भगतसिंह इस बार न काया लेना देशवासी की,
क्योंकि देश प्रेम के लिए अभी भी सजा मिलेगी फांसी की...मैं मानता हूं कि रंग दे बसंती फिल्म का भी यही सार था. -कमलेश पांडे, फिल्म के लेखक

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