फिल्म रंग दे बसंती के दस साल पूरे हो रहे हैं.इस फिल्म ने एक दौर में युवाओं को काफी प्रभावित किया था. देशभक्ति की कहानी को निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने एक अलग ही रूप दिया था. मुझे याद है, पत्रकारिता में वह मेरे शुरुआती दिन थे. मैंने यह फिल्म रांची के सुजाता थियेटर में देखी थी. उस वक्त वह सिंगल थियेटर था. अब मिनीप्लेक्स बन चुका है. शो के खत्म होने के बाद युवाओं में ही खूब जोश नजर आ रहा था. संत जेवियर्स कॉलेज के कुछ छात्रों ने मिल कर इस फिल्म से प्रेरित होकर रूबरू नामक शॉर्ट फिल्म भी बनाई थी, जिसे काफी लोकप्रियता भी मिली थी. फिल्म में कुछ युवा आपस में कॉलेज कैंटीन में बैठ कर अपने भविष्य की चर्चा कर रहे होते हैं. और देशभक्ति को लेकर उनके मन में खास रुझान नहीं हैं. वे बेपरवाह हैं. कुछ फिल्मोत्सव में अवार्ड भी मिले. उस वक्त कुछ युवा अखबारों में इंटरनशिप कर रहे थे और अधिकतर युवाओं की इच्छा थी कि वे रंग दे बसंती के थीम पर कुछ लिखना चाहते हैं. इससे यह स्पष्ट होता है कि फिल्म ने किस हद तक युवाओं को प्रभावित किया था. लंबे दौर के बाद किसी देशभक्ति पर आधारित फिल्म में भाषणबाजी नहीं बल्कि एक् शन दिखाया गया था. कहीं न कहीं से फिल्म ने युवाओं को झकझोरा था. दरअसल, उस दौर से अधिक यह फिल्म अभी अधिक प्रासंगिक है. चूंकि कम से कम वह दौर युवाओं के इतने आत्म केंद्रित और सोशल नेटवर्र्किंग साइट्स पर सिर्फ भड़ास निकालने का दौर नहीं था. शायद इसलिए फिल्म की थीम को सराहा भी गया. आज अधिक चुप्पी है. आज युवाओं के पास माध्यम है. मगर वह जज्बा नहीं कि वह किसी बेगुनाह को सजा से बचा पायें. यह देखना भी रोचक होता कि आज के दौर में अगर यह फिल्म बनती तो निर्देशक किस तरह युवाओं को प्रेरित करते, चूंकि अब बसंत का रंग गेरुआ हो चुका है. अब आंदोलन का नहीं प्रेम रंग भी गेरुआ है.
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20160127
रंग दे बसंती के 10 साल
फिल्म रंग दे बसंती के दस साल पूरे हो रहे हैं.इस फिल्म ने एक दौर में युवाओं को काफी प्रभावित किया था. देशभक्ति की कहानी को निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने एक अलग ही रूप दिया था. मुझे याद है, पत्रकारिता में वह मेरे शुरुआती दिन थे. मैंने यह फिल्म रांची के सुजाता थियेटर में देखी थी. उस वक्त वह सिंगल थियेटर था. अब मिनीप्लेक्स बन चुका है. शो के खत्म होने के बाद युवाओं में ही खूब जोश नजर आ रहा था. संत जेवियर्स कॉलेज के कुछ छात्रों ने मिल कर इस फिल्म से प्रेरित होकर रूबरू नामक शॉर्ट फिल्म भी बनाई थी, जिसे काफी लोकप्रियता भी मिली थी. फिल्म में कुछ युवा आपस में कॉलेज कैंटीन में बैठ कर अपने भविष्य की चर्चा कर रहे होते हैं. और देशभक्ति को लेकर उनके मन में खास रुझान नहीं हैं. वे बेपरवाह हैं. कुछ फिल्मोत्सव में अवार्ड भी मिले. उस वक्त कुछ युवा अखबारों में इंटरनशिप कर रहे थे और अधिकतर युवाओं की इच्छा थी कि वे रंग दे बसंती के थीम पर कुछ लिखना चाहते हैं. इससे यह स्पष्ट होता है कि फिल्म ने किस हद तक युवाओं को प्रभावित किया था. लंबे दौर के बाद किसी देशभक्ति पर आधारित फिल्म में भाषणबाजी नहीं बल्कि एक् शन दिखाया गया था. कहीं न कहीं से फिल्म ने युवाओं को झकझोरा था. दरअसल, उस दौर से अधिक यह फिल्म अभी अधिक प्रासंगिक है. चूंकि कम से कम वह दौर युवाओं के इतने आत्म केंद्रित और सोशल नेटवर्र्किंग साइट्स पर सिर्फ भड़ास निकालने का दौर नहीं था. शायद इसलिए फिल्म की थीम को सराहा भी गया. आज अधिक चुप्पी है. आज युवाओं के पास माध्यम है. मगर वह जज्बा नहीं कि वह किसी बेगुनाह को सजा से बचा पायें. यह देखना भी रोचक होता कि आज के दौर में अगर यह फिल्म बनती तो निर्देशक किस तरह युवाओं को प्रेरित करते, चूंकि अब बसंत का रंग गेरुआ हो चुका है. अब आंदोलन का नहीं प्रेम रंग भी गेरुआ है.
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