एक अभिनेत्री फिलवक्त एक खिलाड़ी की जिंदगी पर आधारित फिल्म में काम कर रही हैं. चारों तरफ उनकी ही चर्चाएं हैं, कि किस तरह वह अपने किरदार में इस कदर डूब गयीं कि उन्होंने एक खिलाड़ी की तरह मशल्स बनाये और साथ ही साथ कई अन्य कठोर परिश्रम भी किये. हालांकि उनसे यह मनसा रखना कि निजी जिंदगी में भी वह उस खिलाड़ी की तरह हो जायें. तो यह अतिश्योक्ति होगी. मगर क्या वाकई अभिनेता या अभिनेत्री या कोई भी कलाकार किसी किरदार को निभाने के बाद उन किरदारों से पूरी तरह से खुद को अलग कर पाते होंगे. जिन फिल्मों को वह अपना दिल देते हैं. जिन फिल्मों में दिमाग देते हैं. मैं उनकी बात नहीं कर रहीं. लेकिन वाकई कुछ फिल्में होती हैं, जिन्हें कलाकार अपना दिल देते हैं. फरहान अख्तर ने मिल्खा सिंह का किरदार परदे पर निभाया और यह प्रश्न जब उनसे किया था तो उन्होंने कहा कि उन्हें मिल्खा सिंह की जिंदगी से खुद को अलग करने में वक्त लगा चूंकि मुझे लगा कि क्या जिस संघर्ष से उनकी जिंदगी बीती. उस संघर्ष से मेरी बीतती तो मैं क्या करता. कुछ दिनों तक सोचता रहा...लेकिन फिर खुद को अलग कर पाया. इससे स्पष्ट है कि कलाकार भी प्रभावित होते हैं. दिलीप कुमार ने ट्रेजेडी फिल्मों से खुद को दूर किया क्योंकि वे वास्तविक जिंदगी में भी दुखी रहने लगे थे. काश, बॉलीवुड के वे कलाकार जिन्होंने खिलाड़ियों के पात्र निभाये हैं वक्त की पाबंदी के गुर ही सीख लेते. सौरभ गांगुली जब रिटायर हुए तो उन्होंने कहा कि अब मैं चैन से सो पाऊंगा. सुबह 4 बजे मुझे प्रैक्टिस के लिए नहीं जाना होगा. बॉलीवुड वक्त का पाबंद नहीं है. अमिताभ, आमिर, अक्षय अपवाद हैं. मगर कम से ऐसे किरदारों को निभा कर काश यह सीख ही वह खुद में ढाल लें. मगर यह एक ऐसा मुश्किल टास्क है, जो सिक्स पैक्स एब्स बनाने से भी ज्यादा कठिन है.
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