20150420

बेफिजूल के किरदार हरगिज नहीं कर सकता : नीरज काबी


डिटेक्टीव ब्योमकेश बक् शी जिन्होंने भी देखी है. वह डॉ गुहा का किरदार नहीं भूल सकते. उनकी संवाद अदायगी, भाव भंगिमाएं  दर्शकों को दशकों तक याद रहेंगी. अभिनय में यह दक्षता उन्हें यूं ही नहीं मिली. उन्होंने कई साल तपस्या की है. उन्हें 300 करोड़ क्लब का लालच नहीं. अधिक फिल्मों की लालसा भी नहीं. उन्हें बस अच्छे किरदार चाहिए और यही वजह है कि वे पुख्ता किरदारों में ही नजर आते हैं. स्याम बेनेगल, विशाल, दिबाकर, आनंद गांधी जैसे बुद्धिजीवी निर्देशक उनके मुरीद हैं. बात हो रही है नीरज काबी की, जिन्होंने शिप आॅफ थिशियस के बाद ब्योमकेश में डॉ गुहा का किरदार निभा कर सबको चौंका दिया है.

बचपन
मेरा बचपन जमशेदपुर में बीता.मैंने 12वीं तक की पढ़ाई वहीं से पूरी की है. लॉयला स्कूल से.  मैंने कभी भी ऐसा सोच नहीं रखा था कि मैं एक्टर ही बनूंगा. मेरे पिता फार्मिंग बिजनेस में हैं. मां स्कूल में टीचर हैं. मेरे दादाजी वहां के मशहूर डॉक्टर थे. उनके नाम पर वहां की एक सड़क का नाम भी रखा गया है. चूंकि वे वहां गरीबों की बहुत मदद करते थे. नि:शुल्क चिकित्सा करते थे. तो लोग उन्हें काफी मानते थे. सो, जमशेदपुर से हमेशा खास नाता रहा है और रहेगा. मेरे जिंदगी के हसीन वक्त वही बीते. आप अगर गौर करेंगी तो महसूस करेंगी कि जमशेदपुर में जिस तरह की हिंदी बोली जाती है. मैंने ब्योमकेश बक् शी में उस तरह हिंदी बोलने का प्रयत्न किया है. वहां की भाषा अब भी मेरे लिए खास है और रहेगी. जिस संस्कार, जिस सोच के साथ आपकी परवरिश होती है. वह शहर हमेशा आपके साथ साथ चलता है.
अभिनय की तरफ झुकाव
मैं लॉयला स्कूल में जब था. नाटक किया करता था. उसके बाद मैं पुणे चला आया. वहां इंस्टीटयूट में दाखिला लिया. उस वक्त तो सोच कर आया था कि एमबीए करना है. लेकिन उस दौरान नाटक खूब किया करता था.  हमलोग अपना गुप्र लेकर आइआइटी पवई हर  साल आते थे. 1989की बात है.हर साल करता था तो अभिनय से लगाव बढ़ा. इसके अलावा उस वक्त मैं गेट क्रशर बन कर एफटीआइ आइ चला जाता था फिल्में देखने के लिए. वहां से लगाव शुरू हुआ.वहां का माहौल था. काफी लोग जानने भी लगे थे. उस दौरान नाटक को कुछ अवार्ड मिले थे तो फिल्म इंस्टीटयूट में भी सबको लगता था कि इस बंदे में कोई बात है. तो बस ऐसे ही रुझान बढ़ा और फिर पढ़ाई खत्म करने के बाद मैं मुंबई आ गया. मुंबई आने के बाद यह तो तय कर लिया था कि बेफालतू काम नहीं करूंगा. यह बात मैंने शुरू में ही ठान ली थी और आज तक डटा हुआ हूं. लेकिन इसका मुझे अफसोस नहीं. मेरे लिए अभिनय साधना है और इसे मैं बेवजह जाया तो नहीं कर सकता. हालांकि मैंने थर्ड अस्टिेंट रूप में खूब काम किया. कई जॉब्स किये. कई एड फिल्मों में काम किया. इसी दौरान मुझे सुमित्रा भावे के साथ सीरियल में काम करने का मौका मिला. छोटा सा ही किरदार था. और इसके बाद मुझे पता चला कि एक के धीर ओड़िया फिल्म बना रहे हैं, जिसमें उन्हें 29 साल के लड़के की खोज थी.मेरे पिता उ िड़या हैं तो मुझे भाषा की समझ थी. मैंने आॅडिशन दिया तो फिर सेलेक्ट हुआ. साथ ही इस फिल्म की जरूरत छऊ डांस थी और मुझे वह आती थी. चूंकि मैंने वह देखा था. सीखा था.  इस फिल्म का अंगरेजी नाम था द लास्ट वीजन जिसे नेशनल अवार्ड मिल चुका है. और यही से फिल्मों का सफर शुरू हुआ और मैंने निर्णय लिया कि अब यों ही कहीं भी अभिनय नहीं करूंगा. सो, इस दौरान मैंने अपनी तैयारी जारी रखी. उस तैयारी में यह नहीं था कि मैं जिम जाता और बॉडी बनाता था. बल्कि अभिनय शैली को निखारने की प्रैक्ट्सि शुरू की. रियाज किया. कई नाटक किये. हैमलेट तो कई बार प्ले किया. 1999 की बात है. जगह जगह जाता था. फिर अपना गुप्र बनाया और नये लोगों को, कलाकारों के साथ रियाज शुरू किया. प्रवाह नामक थियेटर गुप्र को पहचान मिली.
शिफ आॅफ थिशियस
इसी दौरान आनंद गांधी का 2009 में मेरे पास फोन आया कि मैं शिप आॅफ थिशियस बना रहा हूं. तो मैंने जब सुना कि वह सीरियल लिखते हैं तो मैंने मना कर दिया. मुझे लगा कि नहीं मैं आपकी फिल्म में काम नहीं करूंगा. लेकिन फिर उन्होंने बुलाया. मुझे मेरा किरदार समझाया. और यह फिल्म जब मुझे मिली मैं 42 साल का था. डॉक्टर का कहना था 18 किलो तो हरगिज मत घटाना. ब्लड प्रेशर की समस्या होगी. लेकिन मैंने भी सोचा मैं अब तक ऐसे किरदारों के लिए ही इंतजार कर रहा था न. मैंने वह सब किया. और वाकई में जब इस फिल्म को राष्टÑीय अंतरराष्टÑीय स्तर पर पहचान मिली तो मैंने महसूस किया कि मैं तो इसी तरह के किरदार के लिए अब तक साधना कर रहा था.
ब्योमकेश बक् शी के डॉ गुहा
दिबाकर उन निर्देशकों में से एक हैं, जिनके साथ मैं काम करना चाहता था. उनकी पहले की सारी फिल्में मैंने देखी हैं और उन्होंने जब मुझे फोन किया कि मुझे डॉ गुहा का किरदार निभाना है तो मैंने पूरी स्क्रिप्ट पढ़ी. फिल्म में डॉ गुहा के ही किरदार में जितने वेरीयेशन हैं. जितना रेंज है. मेरे जैसे कलाकार के लिए इससे अच्छा मौका एक ही फिल्म में अपनी अभिनय क्षमता को दिखाने का नहीं हो सकता था. जैसे आप गौर करें फिल्म का अंतिम दृश्य. जहां गुहा खुद से बातें कर रहा है. वह 15 मिनट मैंने यों ही नहीं निभाया वह मेरे लिए इतने सालों की मेहनत थी.वहां जो मेरी आंखें अभिनय कर रही हैं. दरअसल, वह स्रेक का मूवमेंट है. जो मुझे छऊ डांस की वजह से सीखने का मौका मिला.जब गुहा हंसता है...वह एक सांप की हस्सी है हिस्ससस वाली हंसी...यह सब अभ्यास मैंने सिर्फ एक् शन के लिए नहीं बल्कि अपने अभिनय शैली को दुरुस्त बनाने के लिए की है. मार्शल आर्ट, योग, छऊ डांस जैसी चीजों से आपको अभिनय के विभिन्न रूप, भाव भंगिमाएं सीखने का मौका मिलता है. और मुझे खुशी है कि दिबाकर ने काफी शोध के बाद यह फिल्म बनाई है. मुझे विशाल भारद्वाज, जोया अख्तर, इम्तियाज अली व श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक पसंद हैं. दिबाकर जैसे निर्देशक के साथ आप काम कर रहे होते हैं तो आपको पता होता है कि यह भी आपकी तरह ही डेडिकेटेड हैं. मैंने लंबा इंतजार किया. लेकिन खुशी है कि मुझे जो करना था मैंने किया. कंप्रमाइज नहीं किया और लोग अब पसंद कर रहे हैं. जल्द ही मेघना गुलजार की फिल्म न्योयडा में खास किरदार में नजर आऊंगा.

श्याम बेनेगल की भूमिका
मुझे याद है मेरे करियर के शुरुआती दिनों में मैं श्याम बेनेगल के आॅफिस गया था और तीन चार घंटे इंतजार के बाद जब श्याम साहब आये. मैं वहां से नर्वस होकर भाग गया और फिर घर आकर फूट फूट कर रोया कि मैं तो मिलना चाहता था फिर क्यों नहीं मिला. फिर कुछ सालों बाद श्याम बेनेगल का फोन आया कि संविधान में मुझे वे गांधी की भूमिका दे रहे थे. मैं उनके आॅफिस गया और उसी कुर्सी पर उसी कोने में बैठा और पुराने दिनों को याद किया कि मैं कभी यही से डर कर भाग गया था कि मुझे तो कुछ नहीं आता, आज वही मुझे बुलाया गया है. बेनेगल साहब के साथ काम करके मैं खुद को इनरिच कर पाया. उनके पास हर फील्ड की पुख्ता जानकारी होती है और वे कितनी ज्ञान की बातें करते हैं कि आप बस बटोरते जाइए तो मुझे लगता है कि मैं जो इतने साल दिये मैं काफी कुछ अर्ज भी किया है और मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं.

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