भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के की पौत्री उषा पटनकर ने दादा साहेब फाल्के द्वारा लिखे गये उनके एक मराठी नाटक रंगभूमि पर टीवी सीरिज बनाने की परिकल्पना की है. दादा साहेब ने यह नाटक अपनी पहली बनाने के 6 वर्ष बाद लिखी थी. उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार के सदस्यों ने इस नाटक का मंचन मुंबई, पुणो और नासिक में कई वर्षो पहले कराया गया था. लेकिन दर्शकों ने इसमें खास रुचि नहीं दिखाई थी.यह स्पष्ट करता है कि हिंदी सिनेमा के जनक की धरोहर को लेकर हम कितने सजग हैं.दाहा साहेब फाल्के ने इस नाटक में यह दर्शाने की कोशिश की है कि किस तरह जब कला निवेशकों पर निर्भर हो जाती है. परेशानियां शुरू हो जाती है और धीरे धीरे कला का लोप होने लगता है. दरअसल, हकीकत भी यही है. कला के क्षेत्र को जब से निवेशकों ने बुरी नजर लगायी है. कला बेसहारा ही होता जा रहा है. फिर चाहे वह नायक का क्षेत्र हो या सिनेमा की कला का क्षेत्र. हमारी सबसे बड़ी विडंबना यही है कि हम भविष्य की तलाश में अपने इतिहास को खोते जा रहे हैं. लेकिन हमें इस बात का कोई अफसोस ही नहीं.फाल्के ने जब यह नाटक लिखा था. उस वक्त उनका मानना यही था कि यह नाटक बुद्धिजीवी वर्ग के लिए है. लेकिन अफसोस की बात है कि बुद्धिजीवी वर्ग का तमगा लगाकर घूमनेवाले लोगों ने भी इस धरोहर पर ध्यान नहीं दिया.यह दर्शाता है कि हम किस कदर इस रंगभूमि के वास्तविक रंग को ही छीनते जा रहे हैं. उषा बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने उम्र ढल जाने के बावजूद यह जिम्मेदारी उठाई कि वह अपने परिवार के इस महान शख्सियत की धरोहर को सहेज रही हैं. इस लिहाज से शाद अली ने भी लक्ष्मी सेहगल पर फिल्म बनाने की परिकल्पना करके बेहतरीन काम किया है. चूंकि यह बेहद जरूरी है कि हम अपने शख्सियतों को यूं ही खोने न दें
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20120823
रंगभूमि से ओझिल होते रंग
भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के की पौत्री उषा पटनकर ने दादा साहेब फाल्के द्वारा लिखे गये उनके एक मराठी नाटक रंगभूमि पर टीवी सीरिज बनाने की परिकल्पना की है. दादा साहेब ने यह नाटक अपनी पहली बनाने के 6 वर्ष बाद लिखी थी. उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार के सदस्यों ने इस नाटक का मंचन मुंबई, पुणो और नासिक में कई वर्षो पहले कराया गया था. लेकिन दर्शकों ने इसमें खास रुचि नहीं दिखाई थी.यह स्पष्ट करता है कि हिंदी सिनेमा के जनक की धरोहर को लेकर हम कितने सजग हैं.दाहा साहेब फाल्के ने इस नाटक में यह दर्शाने की कोशिश की है कि किस तरह जब कला निवेशकों पर निर्भर हो जाती है. परेशानियां शुरू हो जाती है और धीरे धीरे कला का लोप होने लगता है. दरअसल, हकीकत भी यही है. कला के क्षेत्र को जब से निवेशकों ने बुरी नजर लगायी है. कला बेसहारा ही होता जा रहा है. फिर चाहे वह नायक का क्षेत्र हो या सिनेमा की कला का क्षेत्र. हमारी सबसे बड़ी विडंबना यही है कि हम भविष्य की तलाश में अपने इतिहास को खोते जा रहे हैं. लेकिन हमें इस बात का कोई अफसोस ही नहीं.फाल्के ने जब यह नाटक लिखा था. उस वक्त उनका मानना यही था कि यह नाटक बुद्धिजीवी वर्ग के लिए है. लेकिन अफसोस की बात है कि बुद्धिजीवी वर्ग का तमगा लगाकर घूमनेवाले लोगों ने भी इस धरोहर पर ध्यान नहीं दिया.यह दर्शाता है कि हम किस कदर इस रंगभूमि के वास्तविक रंग को ही छीनते जा रहे हैं. उषा बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने उम्र ढल जाने के बावजूद यह जिम्मेदारी उठाई कि वह अपने परिवार के इस महान शख्सियत की धरोहर को सहेज रही हैं. इस लिहाज से शाद अली ने भी लक्ष्मी सेहगल पर फिल्म बनाने की परिकल्पना करके बेहतरीन काम किया है. चूंकि यह बेहद जरूरी है कि हम अपने शख्सियतों को यूं ही खोने न दें
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सामान्यतः प्रयोग होने वाले ओझल शब्द को ही शीर्षक में ओझिल लिखा गया है या इसका कोई अन्य विशिष्ट अर्थ है.
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