उन्होंने 4 सालों में 50-60 मुल्कों का भ्रमण कर लिया था. इन मुल्कों में उन्होंने जिंदगी की वास्तविकता को करीब से जाना. और यही वजह रही कि वे आम प्रेम कहानियों से हट कर काबुल एक्सप्रेस, न्यूयॉर्क जैसी फिल्में बनाने में कामयाब रहे. उनकी फिल्मों के निर्देशन शैली से ही उनकी अंतरराष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक समझ स्पष्ट तौर पर नजर आती है. वास्तविकता के नजदीक रहते हुए भी वे फिल्मों में rाुमन एंगल देने से नहीं चूकते. चूंकि वे मानते हैं कि फिल्मों से लोग भावनात्मक रूप से जुड़ेंगे. तभी वह फिल्म है. बात हो रही निर्देशक कबीर खान. जो यशराज की अब तक की सबसे महंगी और बहुप्रतिक्षित फिल्म एक था टाइगर के निर्देशक हैं. पेश है अनुप्रिया अनंत से हुई उनकी बातचीत के मुख्य अंश
कबीर खान उन हिंदी फिल्मों के उन निर्देशकों में से एक हैं जिन्होंने कम फिल्में बनाई हैं. लेकिन दर्शक उनकी फिल्मों को अब भी याद करते हैं. कबीर खान उन निर्देशकों में से एक हैं, जिनकी फिल्में देखने के बाद दर्शक थियेटर से निकलते हुए यह चर्चा निश्चित रूप से करते हैं कि यार फिल्म के निर्देशक हैं कौन. यह एक निर्देशक की बड़ी कामयाबी है.
कबीर, एक था टाइगर कैसे आयी जेहन में? कैसे बना इस फिल्म का संयोग और कैसे मिला यशराज का साथ.
आदी( आदित्य चोपड़ा) मेरे पास वन लाइनर स्टोरी लेकर आये थे. न्यूयॉर्क की शूटिंग के दौरान. उन्होंने कहा कि कबीर देखो. मुङो पुख्ता नहीं पता. लेकिन ऐसा कोई रॉ एजेंट था. टाइगर नाम था उसका शायद. वह महत्वपूर्ण व्यक्तित्व थे और मुङो लगता है कि लोगों को उनके बारे में जानना चाहिए. टाइगर एक लीजेंड थे. मुङो ऐसी कहानियों ने हमेशा ही आकर्षित किया है तो बस मैं लग गया इस फिल्म की रिसर्च में. न्यूयॉर्क उस वक्त पूरी हो चुकी थी. जैसे जैसे मैंने और मेरे को राइटर नीलेश मिश्र ने इस पर रिसर्च किया. परतें खुलती गयी. चौंकानेवाली चीजें सामने आने लगीं. हमें लगा हिंदी सिनेमा में अब तक ऐसे विषय पर कहानी नहीं बनी है. मैं वाकई आदित्य की समझ और पारखी सोच की तारीफ करना चाहूंगा. उन्हें राजनीति विषयों में दिलचस्पी नहीं है. लेकिन वह राजनीति समझ अच्छी रखते हैं. मुङो खुशी है कि ऐसे विषय पर फिल्म बनाने के लिए उन्होंने मुझ पर विश्वास किया.
रिसर्च में कितनी और कैसी मेहनत की आप दोनों ( नीलेश मिश्र)ने. परेशानियां क्या क्या आयीं?
चूंकि मैं काफी लंबे अरसे से डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के सिलसिले में और विशेष कर काबुल एक्सप्रेस बनाने के दौरान अफगानिस्तान के कई इलाकों से वाकिफ था. वहां के कई इंटेलीजेंस ब्यूरो से मिल चुका था. और इस फिल्म के लिए मैं चाहता था कि सिर्फ बैकड्रॉप के रूप में खूफिया एंजेंसी जैसी चीजें न दिखाऊं. मैं इसे वास्तविकता के करीब लाना चाहता था. सो, कोशिश की कि रिसर्च के दौरान उस दौर में जाने की कोशिश करूं. जबकि घटनाएं हैं. वहां के कई लोगों से मिले हम. तथ्यों के आधार पर और कुछ अनुमान के आधार पर चूंकि फिल्म फीचर है तो उसमें फिक् शन का टच देकर कहानी गढ़ने की कोशिश की. वैसे यह खास अंदाज मैंने आदी से सीखा है. आदी इस बात में माहिर हैं कि वे रियलिस्टिक अप्रोच देते हुए भी दर्शकों को हमेशा ध्यान में रख कर कहानी का प्लॉट डेवलप करते हैं और एक था टाइगर में वही rाुमन टच बरकरार है. यहां भी प्रेम कहानी है. लेकिन स्टोरीटेलिंग का अंदाज थोड़ा डॉक्यूमेंट्री ऐतिहासिक राजनीतिक अंदाज का है और मैं अगर अपनी फिल्मों में यह सब एंगल न दूं तो मुङो फिल्म खोखली लगने लगती है.जहां तक बात है परेशानियों की तो मुङो ऐसे ही मुल्कों में घूमने में शुरुआती दौर से ही मजा आता रहा है और मैं रिस्क को भी एंजॉय करता हूं.
लेकिन एक था टाइगर, न्यूयॉर्क, काबुल एक्प्रेस जैसी फिल्में यशराज जॉनर की फिल्में नहीं हैं. फिर कैसे एक के बाद एक आपने लगातार ऐसे ही विषयों का चुनाव किया और यशराज बैनर ने आपको चुना?
दरअसल, काबुल एक्सप्रेस जब मैंने लिख कर पूरी की थी. मैं नया नया दिल्ली से आया था मुंबई. फीचर फिल्मों का कोई अनुभव था नहीं न ही किसी को जानता था मैं. मैं कहानियां ले लेकर मिलता रहता था. छोटे बजट की फिल्म थी यह. हर कोई सुनता. लेकिन बनाने के लिए कोई तैयार नहीं. उस वक्त मेरे एक दोस्त ने बताया कि यशराज ट्रैक से हट कर कुछ करना चाहते हैं. उन तक स्क्रिप्ट पहुंची.मेरे दोस्त ने ही दे दी थी. मुङो यशराज से कॉल आया कि आइए बात करनी है. मिलने आया तो आदित्य ने कहा वह काबुल एक्सप्रेस प्रोडयूस करेंगे. मेरे लिए तो सपने जैसा था. इसी फिल्म से यशराज ने अपनी छवि तोड़ी. और फिर लगातार मुङो मौका दिया कुछ नये एक्पेरिमेंट करने के लिए. न्यूयॉर्क का आइडिया भी आदी का ही था. अब तो यशराज घर जैसा है. मुङो तो इसी ने सबकुछ दिया है.
लोगों की आशाएं फिल्म एक था टाइगर से बहुत ज्यादा बढ़ गयी हैं. यशराज की सबसे महंगी फिल्म है यह. तो किस तरह की जिम्मेदारी रही आप पर. और किन किन लिहाज से यह फिल्म बिल्कुल अलग है.
सबसे पहली बात फिल्म में सलमान खान हैं, जो बॉलीवुड के टाइगर हैं. दूसरा इसके साथ यशराज बैनर है. तीसरी बात यह है कि इसके दृश्य ऐसे ऐसे स्थानों पर शूट किये गये हैं, जहां आज तक बॉलीवुड तो क्या हॉलीवुड फिल्में भी नहीं फिल्मायी गयी होंगी. क्यूबा में किसी फिल्म की पहली बार शूटिंग हुई है. माजर्न, इराको जैसी जगहें हैं जहां कभी शूटिंग के बारे में सोचा नहीं जा सकता था. लोकेशन के अलावा फिल्म की दमदार कहानी. जहां तक बात है जिम्मेदारी की तो यह सच है कि जिम्मेदारी है. लेकिन बॉक्स ऑफिस पर 100 करोड़ कलेक् शन की जिम्मेदारी नहीं है. वह इस फिल्म का उद्देश्य भी नहीं है. मैं अपनी हर फिल्म से एक अलग बाउंडरी लाइन तोड़ना चाहता हूं. दस साल बाद भी अपनी फिल्में देखूं तो लगे मैंने कुछ अलग किया है और चीजों को रिडिफाइन किया है. यह स्पष्ट है कि मेरी फिल्मों में चीजों का अंतरराष्ट्रीय नजरिया. स्थिति दिखता रहेगा.
अंतरराष्ट्रीय नजरिये की बात की अभी आपने? क्या वजह है कि आपकी फिल्में भारत की सरहदों के पार के विषय पर ही होती है.
जैसा की मैंने कहा शुरुआती दौर में ही मैं सईद नकवी साहब हैं वह बेहतरीन जानकार थे. उनके साथ मैंने चार सालों में 50-60 मुल्कों का भ्रमण किया है. नजदीक से लोगों की जिंदगी देखी है. उन्होंने मुङो बताया था कि दुनिया में क्या हो रहा है क्या नहीं. इस पर केवल हम बीबीसी व कुछ चुनिंदा चैनलों के माध्यम से ही जान पाते हैं. उन्होंने जैसा दिखा दिया.हम उस पर विश्वास कर लेते हैं. जबकि हकीकत इससे परे होती है.इसलिए हमें आंखों से देखना जरूरी है और विश्व में क्या हो रहा है. इससे हम भारत में रहें कहीं भी प्रभाव पड़ता है. सो, उनकी वजह से मैंने विश्व स्तरीय नजरिये तैयार करना शुरू किया.यही वजह है कि मेरी फिल्मों में वह अप्रोच नजर आता है.
कबीर वाणी
टाइगर सलमान के बारे में
सलमान को दो साल पहले की मीटिंग याद थी : कबीर
मैं एक बात से स्पष्ट था कि सलमान ही इस फिल्म में टाइगर होंगे. चूंकि वर्तमान में वही एक स्टार हैं जो लाजर्र दैन लाइफ किरदार निभा सकते हैं. हुआ यूं था कि शुरुआती दौर में मैंने अपने एक दोस्त की वजह से काबुल एक्सप्रेस का नैरेशन सलमान को सुनाया था और उन्हें डीवीडी दी थी. जो मैंने रिसर्च के दौरान बनाई थी. बकायदा सलमान ने मेरी डीवीडी देखी थी और पूरा नैरेशन सुना था. उन्होंने कहा था कि अच्छी स्टोरी है. फिर बाद में न्यूयॉर्क के दौरान जब कट्रीना को मैंने अपनी फिल्म में ऑफर किया तो कट्रीना ने सलमान से पूछा. सलमान ने पूछा कि निर्देशक कौन है. कट्रीना ने बताया कबीर खान हैं कोई. सलमान ने कहा आंख बंद करके फिल्म के लिए हां कह दो. कट्रीना ने मुङो न्यूॉर्क में फिल्म शूटिंग के काफी बाद में यह बात बताई. मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया इस बात से.मैं जब सलमान से मिला तो उन्होंने पूरी कहानी सुनी और कहा करूंगा काम.ऐसी कहानियां कही जानी चाहिए. उस दिन से लेकर अब तक उन्होंने फिल्म को पूरा सपोर्ट किया. हमने 110 दिनों के शेडयूल में काम पूरा कर लिया. जो लोग यह मानते हैं कि सलमान कैजुअल कलाकार हैं तो मैं गलतफहमी दूर करना चाहूंगा. सलमान को राजनीतिक व सामाजिक समझदारी है. वे सेंसेटिव हैं.अगर ऐसा न होता तो बिइंग rाुन जैसे संस्थान को इस तरह से सफल नहीं बना पाते वह. सलमान कहानी पर बिल्कुल हावी नहीं हुए हैं. उन्होंने टाइगर को कहानी के मुताबिक जिया है.
कट्रीना के बारे में
कट्रीना सबसे मेहनती अभिनेत्री हैं: कबीर
लोगों के जेहन में यह छवि बन गयी है कि कट्रीना केवल ग्लैमरस हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि कट्रीना जितनी मेहनती लड़की कोई नहीं है पूरी इंडस्ट्री में. अगर हम 20 घंटे शूट करना चाहते हैं तो वह 22 घंटे काम करने के लिए तैयार रहती है. जानकर शायद आश्चर्य होगा कि वे स्क्रिप्ट देवनागरी में ही पढ़ती हैं आप. उन्होंने हिंदी इस तरह सुधार ली है अपनी . मेहनत की बदौलत. हम लोग आज कल सॉफ्टवेयर की वजह से रोमन हिंदी में स्क्रिप्ट पढ़ते हैं. मैं कट्रीना को बेहतरीन अभिनेत्रियों में से एक मानता हूं.
कबीर पुराण
अपनी पहली ही फिल्म काबुल एक्सप्रेस से उन्होंने एक संवेदनशील मुद्दे को उठाया और उसे परदे पर बखूबी उतारा. दो जर्नलिस्ट फोटोग्राफर किस तरह अफगानिस्तान की जिंदगी से रूबरू होते हैं और किस कदर वे उन सच्चाईयों को कैमरे में कैद कर पाते हैं. यही थी काबुल एक्सप्रेस की कहानी. हिंदी फिल्मों में अफगानिस्तान जैसे संवेदनशील स्थान पर ऐसी फिल्म बनाना. वास्तविक लोकेशन के साथ किसी जोखिम से कम नहीं था. लेकिन शुरुआती दौर से ही डॉक्यूमेंट्री फिल्मों से जुड़ाव होने की वजह से उन्होंने मुख्यधारा से विपरीत जाकर अपने डॉक्यूमेंटेशन जिंदगी को फीचर का रूप दिया. वे पहली फिल्म से ही स्थापित हो चुके थे. उनकी अगली फिल्म न्यूयॉर्क में उन्होंने 9-11 मसले को उठाया और इसे खूबसूरती से दर्शाया. फिल्म के अंत में दिखाये गये रिसर्च उनकी विश्वसनीयता को दर्शाते हैं. फिर एक लंबे अंतराल के बाद वह एक था टाइगर लेकर आ रहे हैं. तीन साल में उन्होंने इस फिल्म के लिए सबसे अधिक वक्त रिसर्च में दिया. कबीर की शैली की यह खासियत है कि उनकी फिल्में दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है और केवल गीतों के लिए खूबसूरत लोकेशन का इस्तेमाल करनेवाले हिंदी निर्देशकों को दर्शाती है कि किसी अंतरराष्ट्रीय विषय को किस नजरिये से प्रस्तुत किया जा सकता है. एक था टाइगर भी इसी क्रम की अगली कड़ी है.
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