20120229

एक किरदार, एक जुनून




उस वक्त निदर्ेशक तिग्मांशु शेखर कपूर के साथ चंबल में बैंडिंट क्वीन की शूटिंग कर रहे थे.जब उनकी नजर अखबार या पत्रिका के प्रकाशित एक खबर पर गयी. पान सिंह तोमर के बारे में. जो धावक के रूप में चैंपियन थे. उस खबर में उनके इनकाउंटर की जिक्र थी. तिग्मांशु ने चंबल के लोगों से पान सिंह के बारे में जानने का प्रयास किया. थोड़ी जानकारी मिली. पता चला कि पान सिंह तोमर एक सुबेदार थे. उन्होंने सात सालों तक नेशनल गेम्स में धावक के रूप में पुरस्कार हासिल किया. वे चैंपियन रहे. लेकिन इसके बावजूद आज उनके बारे में कोई रिकॉर्ड्स उपलब्ध नहीं.उन्होंने तय किया कि वे इस विषय पर फिल्म बनायेंगे. पान सिंह तोमर के किरदार के लिए उन्होंने अभिनेता इरफान खान पर भरोसा किया. और इरफान ने उसे पूरी शिद्दत से निभाया.और यह बन गया इरफान की जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण किरदार. अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण किरदार के बारे में इरफान खान ने अनुप्रिया अनंत से बातचीत की.साथ ही फिल्म के निदर्ेशक, लेखक व पान सिंह के जुड़े लोगों से भी बातचीत


इरफान खान पान सिंह तोमर में मुख्य किरदार निभा रहे हैं और इसे वह अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म मानते हैं.
इरफान, आपने इस किरदार को निभाने के लिए कई फिल्में छोड़ीं. क्या यह किरदार की मांग थी? इस किरदार ने आपको क्यों प्रभावित किया.

तिग्मांशु ने मुझे पान सिंह के बारे में बताया. साथ ही एक पत्रिका में मैंने एक स्टोरी पढ़ी थी. वह जेहन में थी. तिग्मांशु से बात करने पर कई बातें स्पष्ट हुईं. हमने महसूस किया कि इस पर फिल्म बननी चाहिए. चूंकि पान सिंह वास्तविक जिंदगी में धावक,सुबेदार, किसान परिवार के व्यक्ति फिर एक बागी बने. तो, इस लिहाज से इस किरदार के लिए मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार होना था. ताकि मैं किरदार के साथ न्याय कर सकूं. मुझे दौड़ने की ट्रेनिंग लेनी पड़ी, चूंकि पान सिंह चैंपियन थे दौड़ में. तो सामान्य ट्रेनिंग से बात नहीं बनती. इसमें कोच सतपाल सिंह ने मेरी बहुत मदद की. फिर मुझे चंबल में लोगों के साथ समय बिताना जरूरी था. ताकि वहां से फ्रेंडली हो सकूं. दूसरी बात पान सिंह एक दिलचस्प किरदार है. एक ऐसा व्यक्ति जो सात सालों तक चैंपियन रहा. फिर बागी बना, लेकिन लोग उनके बारे में जानते ही नहीं. ऐसे में मैंने तय किया कि मैं यह फिल्म जरूर करूंगा.आप जब यह फिल्म देखेंगे तो खुद महसूस करेंगे कि यह कितनी दिल को छू देनेवाली फिल्म है. यह बेहद संवेदनशील फिल्म होगी.अगर मैं यह कहूं कि मैंने इस किरदार को अपना दिल दिया है तो यह गलत न होगा. एक और बात की खुशी है कि इस फिल्म को तिग्मांशु ने जल्दबाजी में नहीं बनाया है. लगभग 1.5 सालों तक रिसर्च किया. और इसलिए मैंने कोई और फिल्म इस दौरान नहीं कि ताकि इस फिल्म में कंटीन्यूटी की परेशानी न हो.
किरदार को निभाने में किस तरह की चुनौतियां सामने थी.
दरअसल, पान सिंह वास्तविक जिंदगी में एक साथ बहुत कुछ थे. मुझे भी उसी तरह खुद की तैयारी करनी पड़नी. उनके बारे में बहुत जानकारी उपलब्ध नहीं. सो, किरदार के साथ न्याय भी करना था.मैं चंबल में रहा. उनके गांववालों से मिला. डाकुओं के व्यवहार को समझने की कोशिश की. हमने गर्मी के वक्त जलती धूप में शूटिंग की. वह भी पैदल चलके. सच यह है कि निदर्ेशक तिग्मांशु बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस कठिन फिल्म को साकार कर दिया.और मैं खुद मानता हूं कि हिंदी सिनेमा में बतौर अभिनेता मेरी तरफ से यह कंट्रीब्यूटिंग फिल्म होगी.
पान सिंह के गांव से व उनके परिवार वालों से आपको उनके बारे में क्या जानकारियां मिली?
वहां के लोगों ने बताया कि वे सुबेदार थे. लेकिन उन्होंने समय से पहले रिटायरमेंट ले लिया और अपने गांव मोरेना चले आये. वह अपनी जमीन से जुड़े किसी मुद्दे को लेकर परेशान थे. उन्होंने कई लोगों से मिलने की कोशिश की. मदद मांगी, लेकिन जब मदद नहीं मिली तो वह बागी बन गये. 50 साल की उम्र में उनका इनकाउंटर हो गया था.फिर हम उनके परिवार के कई सदस्य से मिले. उनके व्यक्तित्व को जानने का मौका मिला. साथ ही यह भी महसूस किया हमने कि भारत के ऐसे कई गांव है, जहां आज भी कितनी गरीबी है. लेकिन उनकी सूध लेनेवाला कोई नहीं है. बेरोजगारी ही उन्हें तो यह सब करने पर मजबूर करती है.
आपने बताया कि आप वहां बागियों के समूह के साथ भी रहे. क्या महसूस किया आपने उनके बारे में?
यही कि वह भी इंसान है.जानबूझ कर यह सब नहीं करते. हालात से मजबूर हैं. चूंकि सरकार, प्रशासन उन्हें मदद नहीं देती. वे यह सब करते हैं. मैंने महसूस किया कि वहां तो पेट पालने के लिए व दो वक्त की रोजी रोटी का जुगाड़ करना भी कितना कठिन है. वहां जंगल है. रोजगार के कोई विकल्प नहीं है. ऐसे में इनका जीवन कितना कठिन है. इन लोगों की स्थिति पर भी प्रशासन का ध्यान जाना ही चाहिए.
फिल्म की शूटिंग किन किन स्थानों पर हुई?
चंबल घाटी के अलावा राजस्थान के धोलपुर इलाके, जिमन कॉरबेट नेशनल पार्क व रुड़की व देहरादून में शूटिंग हुई. तोमर रुड़की व देहरादून में पोस्टेड थे.
पान सिंह तोमर पर फिल्म क्यों बननी चाहिए थी.? क्या संदेश देना चाहेंगे.
क्योंकि यह सच्ची घटना है. पान सिंह होनहार थे. जूनूनी थे. वे चैंपियन थे. लेकिन इसके बावजूद उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी. उनके बारे में लोग नहीं जानते. सूध लेनेवाला कोई नहीं. यह कहानी इस बात का सूचक है कि कैसे अभाव व प्रशासन के ध्यान न दे पाने की वजह से चैंपियन डकैत के राह पर चला जाता है. मजबूरीवश. ऐसे में एक फिल्म के जरिये ही सही लोग ऐसे व्यक्तित्व को जान तो पायेंगे.


परदे पर पान सिंह
डाकू घोड़ों पर नहीं चलते ः तिग्मांशु धुलिया, निदर्ेशक-लेखक

बैंडिट क्वीन की शूटिंग के दौरान मुझे डाकुओं की जिंदगी को बहुत करीब से जानने का मौका मिला था.वहां रहते हुए मैं यह जान पाया था कि डकैत की वास्तविक जिंदगी कितनी कठिन होती है. उनकी जिंदगी लार्जर दैन लाइफ नहीं होती, बल्कि बुरी परिस्थितियों व हालात से मजबूर होकर वह बंदूक उठाते हैं. अब तक फिल्मों में दिखाया जाता रहा है कि डकैत घोड़ों पर सवार होते हैं. मैंने यह नहीं दिखाया है, क्योंकि यह सच है कि चंबल की जमीन ऐसी पत्थरीली है कि वहां घोड़े चल ही नहीं सकते. डाकू हमेशा पैदल ही चलते हैं.अर्थात मेरी कोशिश है कि मैं सच दिखाऊं. यह फिल्म लिहाज से भी कठिन थी कि इसमें रिसर्च की बेहद जरूरत थी. और रिसर्च के लिए फंड जुटाना मुश्किल था. लेकिन विकास बहल यूटीवी से फंड करवाया.इरफान का चुनाव इस किरदार के लिए इसलिए किया, क्योंकि वह अनुशासित कलाकार हैं. इस किरदार के लिए उन्हें कई फिल्में छोड़नी पड़ी. और उन्होंने छोड़ा भी. यह सिर्फ इरफान ही कर सकते थे.

डॉक्यूमेंटेशन है पान सिंह तोमर ः संजय चौहान, को राइटर
यह बेहद निराशाजनक बात थी कि भारत में ऐसे खिलाड़ी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, जो चैंपियन रह चुका है. किस परिस्थिति में कोई सुबेदार बंदूक उठाता है और बागी बन जाता है. फिर 80 के दशक में उसका इनकाउंटर हो जाता है. यह बेहद अफसोस की बात है कि हमारे देश में आज भी कई खिलाड़ियों की दुदर्शा होती है. और हमें जानकारी भी नहीं मिलती. इस लिहाज से पान सिंह तोमर जैसी फिल्में बननी चाहिए. साथ ही इस फिल्म में एक आम व्यक्ति के जीवन की कहानी है, जो मजबूरीवश बागी बन जाता है. यह एक तरह से डॉक्यूमेंटेशन है. और ऐसी फिल्में बनती रहनी ही चाहिए. पान सिंह तोमर का किरदार गढ़ने में एक बड़ी चुनौती यह थी कि उनके बारे में कहीं कुछ भी डॉक्यूमेंटेशन नहीं है. गांव के लोगों से बातचीत व पान सिंह के कोच से बातचीत के आधार पर उनका किरदार गढ़ा.वास्तविक कहानी थी. उस लिहाज से इरफान ने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है.

वास्तविक जिंदगी में पान सिंह तोमर
1.आर्मी से उन्हें 52.50 पैसे मिलते थे. जिसमें वे केवल 2.50 पैसे अपने पास रखते. बाकी हमारे पास भेज देते थे.वह कभी किसी भी तरह का नशा नहीं करते थे.- इंदिरा, पत्नी
2.पान सिंह ने अपने गैंग में 28 डाकुओं के समूह को तैयार किया. वे उन्हें बंदूक चलाना, दौड़ना करना सिखाते थे.वह अपने गुप्र के लोगों को इस तरह तैयार करते थे जैसे वे फौजी हों.वे बेहद मजाकिया व्यक्ति थे. उनकी एक खास बात थी कि वे अपने गांव के युवाओं को कभी डकैत बनने के लिए प्रेरित नहीं करते थे. बल्कि वह चाहते थे कि सभी बच्चे पढ़ें और काबिल बनें. - बलवंता, पान सिंह के करीबी.
3.ुपान सिंह से मैं 56 में दिल्ली में मिला था.मुझे याद है. वहां पाकिस्तान के साथ हमारा मैच था. लेकिन नेशनल चैंपियन बना वह 1957 में.इसके बाद वह लगातार चैंपियन बनता रहा -मिल्खा सिंह, महान खिलाड़ी
4. पान सिंह हमेशा बहुत गंभीर, आदर्शवादी रहा. वह अनुशासित व्यक्ति था. वह कभी व्यवहार से विद्रोही नहीं लगता था. पान सिंह दौड़ते वक्त हमेशा लंबे डेग भरता था. वह अपनी हाथों से कई इशारे करता था,जिससे हम जान जाते थे कि वह किसी दिशा में मुड़ेगा.-मिस्टर साहनी, पान सिंह तोमर के कोच

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