20120202

फटा पोस्टर निकला हीरो


किसी दौर में हीरो हीरा लाल के यह संवाद फटा पोस्टर निकला हीरो ...निश्चित तौर पर फिल्म के संवाद लेखक हृदय लानी इसलिए लिख पाये होंगे,चूंकि उन्होंने कभी सिनेमा में हाथों से बने फिल्मी पोस्टर्स की अहमियत का दौर देखा होगा. यह वह दौर था. जब हिंदी सिनेमा ने डिजिटल दुनिया की चौखट पर अपने घुटने नहीं टेके थे. जहां, फिल्म की पब्लिसिटी के लिए पीआर एजेंसियां नहीं, महज पोस्टर्स ही कमाल कर दिखाते थे. यह इस कला की ही ताकत थी कि केवल पोस्टर्स देख कर ही दर्शक टिकट खिड़की पर खींचे चले आते थे. हिंदी सिनेमा अपने 100वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है. लेकिन अफसोस, आज किसी पोस्टर से न तो कोई हीरो निकलता है और न ही कोई हीरोइन. चूंकि पोस्टर्स कला गौन हो चुकी थी. लेकिन राउडी राठौड़ से उम्मीद फिर से जगी है.


फिल्मों का प्रमोशन तब भी होता था. और आज भी होता है. फर्क सिर्फ इतना है कि उस दौर में पीआर एजेंसियां द्वारा आयोजित कार्यक्रमों द्वारा फिल्मों का प्रमोशन नहीं किया जाता था. बल्कि लोगों को फिल्म से अवगत कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे फिल्मों के पोस्टर्स. हिंदी सिनेमा क्लासिक फिल्मों की वजह से जितनी समृध्द है. उतनी ही समृद्व वह हाथों से बने फिल्मी पोस्टर्स से भी है. जिस तरह निदर्ेशक फिल्म में अपनी सृजनशीलता दिखाता था. कलाकार फिल्म के पोस्टर्स को सजाने में. किसी दौर में हाथों से पेंटिंग किये गये फिल्मी पोस्टर्स की अहमियत थी, चूंकि वही पोस्टर्स फिल्म का गुणवत्ता व कलाकारों के फेस वैल्यू का सूचक होते थे. यही वजह थी कि निदर्ेशक फिल्म बनाने के साथ साथ फिल्म के पोस्टर्स को तैयार करने में पूरी बारिकियां बरतते थे. चूंकि वही पोस्टर फिल्म का पहला चेहरा होते थे. इन्हें बनानेवाले कई अधिकतर चित्रकार ही होते थे. और ऐसे कई स्ट्रीट कलाकार भी होते थे, जो समूह में काम किया करते थे. रंगों में मुख्य रूप से पानी के रंग का इस्तेमाल होता है. मूलरूप से छोटे पन्ने पर इसे बनाया जाता था. फिर प्रिंट के माध्यम से इसके बड़े आकार निकाले जाते थे. संजय लीला भंसाली की फिल्म राउडी राठौड़ के पोस्टर्स जारी हो चुके हैं. और यह हैंडमेड हैं. इस पोस्टर्स को दर्शकों ने बेहद पसंद किया है. इससे साफ जाहिर होता है कि आज भी हैंडमेड पोस्टर्स की लोकप्रियता डिजिटल पोस्टर्स से कहीं अधिक है. जरूरत है तो बस इसके वजूद को बरकरार रखने की.

जहां आज भी बोलती हैं तसवीरें
मुंबई के दक्षिण इलाके में स्थित है चोर बाजार. चारों तरफ गैजेट्स की दुकानें सजी हैं. दुनिया के हर महंगे मॉडल के उपकरणों का डुप्लीकेट रूप आपको यहां सस्ते दामों पर उपलब्ध है. यही घूमते फिरते अचानक आपकी निगाह आकर ठहर जायेगी हाजी अब्बू के पोस्टर की दुकान पर. और अगर आप पुरानी हिंदी फिल्मों के शौकीन हैं और दर्शक रहे हों तो एकबारगी वे सारी फिल्में आपकी नजरों के सामने से गुजर जायेंगी. चूंकि यह वह स्थान हैं, जहां आज भी हिंदी फिल्मों के सारे हैंडमेड पोस्टर्स उपलब्ध हैं. अबू अब इस दुकान के मालिक हैं. लेकिन कभी यह शौक उनके दादाजी का था. उन्होंने वर्ष 1940 में फिल्मों के पोस्टर्स एकत्रित करना शुरू किया. इसके बाद उनके पिता और अब अबू ही इसके कर्ता धर्ता हैं. उन्हें अब तक सबसे महंगे खरीदार मिले फिल्म कल्याण खाजिना के. एक ग्राहक ने इसे 4 लाख में खरीदा. बकौल अबू ऐेसे कई लोग हैं जो यूके, कनाडा, यूएसए से सिर्फ हिंदी फिल्मों के पोस्टर्स खरीदने आते हैं. साथ ही वे पुराने फिल्मी टिकट, ब्राउसर व पैंपलेट खरीदने में भी रुचि रखते हैं. अबू ने अपने जीवन में पहला पोस्टर 300 रुपये देकर फिल्म डॉन का खरीदा था. वर्तमान में सबसे महंगे पोस्टर देव आनंद की गाइड के हैं. अबू बताते हैं कि कई पोस्टर्स सेल के लिए हैं. लेकिन कुछ पोस्टर्स वे कभी नहीं बेचेंगे. उनमें फिल्म तराना. पुकार, शीश महल महत्वपूर्ण है. साथ ही गुरुदत्त की फिल्मों के पोस्टर्स भी वह कभी बेंचना नहीं चाहेंगे. बकौल अबू हिंदी फिल्मों के कई कलाकारों ने अपनी फिल्मों के पोस्टर्स मुझसे खरीदे हैं. राजेश खन्ना ने फिल्म आराधना के पोस्टर्स खरीदे. देव आनंद ने किनारे किनारे के व धमर्ेंद्र ने सत्यकाम के.
और बन गया सुपरहिट संवाद
पोस्टर की अहमियत को देखते हुए ही फिल्म हीरो हीरा लाल में संवाद लिखे गये थे जो आज भी बेहद लोकप्रिय है. फटा पोस्टर निकला हीरो. लेकिन धीरे धीरे जिस तरह सिनेमा ने डिजिटल दुनिया की तरफ रुख किया. इन हैंडमेड पोस्टरों की अहमियत भी खोती गयी. और आज यह कला लगभग गौन ही हो चुकी है. किसी दौर में फिल्मों के बारे में लोगों को जानकारी देने के लिए हाथों से बने यही पोस्टर हाथियों की पीठ पर दोनों तरफ रख कर हाथियों को मोहल्ले मोहल्ले में घुमाया जाता था. साथ ही हर गली में. हर दुकान में. हर ठेले पर पोस्टर सजाये जाते थे. यह पोस्टर कुछ ऐसे बने होते थे, जिनमें फिल्म के अहम कलाकारों की हूबहू तसवीर उसमें नजर आती थी. मुगलेआजम, जुगनू, बरसात, पुकार, देवदास, मदर इंडिया, महल, गाइड, दीवार ऐसी फिल्में हैं, जिनके पोस्टर्स जीवंत नजर आते थे. और दर्शक खुद को उनसे जुड़ा पाते थे. लेकिन अफसोस आज यह कला गौन हो चुकी है.
राउडी राठौड़ से वापसी
पिछले कई वर्षों से किसी भी हिंदी फिल्म के पोस्टर्स में ऐसी कला नजर नहीं आयी. लेकिन जल्द ही रिलीज होनेवाली अक्षय कुमार की फिल्म राउडी राठौड़ में वर्षों बाद यह ट्रेंड लौटता दिखाई दे रहा है. फिल्म के पोस्टर्स हाथों से बनाये गये हैं. संजय लीला भंसाली ने यह कदम उठाया है. उन्होंने चार स्ट्रीट आर्टिस्ट को फिल्म के पोस्टर हाथों से बनाने का मौका दिया. खुद भंसाली मानते हैं कि हम जिस तरह डिजिटल दुनिया जी रहे हैं. पुरानी चीजों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं. बेहद जरूरी है कि हम फिर से अपनी धरोहर को बचायें. इसलिए राउडी राठौड़ में मैंने हैंडमेड पोस्टर्स को बढ़ावा दिया है, क्योंकि मैं मानता हूं कि वे सारी फिल्में जिनके पोस्टर्स हाथों से बनाये गये थे. उन्हें देख कर मुझे ऐसा लगता था. मानो उसके सारे कलाकार हमारे बीच के हैं और वह हमसे बातें करते हैं.
खोता अस्तित्व
हिंदी सिनेमा जगत के लिए यह अफसोस की बात है कि इसी कला का एक अहम हिस्सा आज अपना अस्तित्व खो चुका है. आज हालत यह है कि नेशनल फिल्म आर्काइव पुणे में कुछ ही फिल्मों के पोस्टर मौजूद हैं. इसके अलावा मुंबई के चोर बाजार व दिल्ली के हॉज खास विलेज में ही कुछेक कलाकारों के पास कुछ फिल्मों के पोस्टर्स उपलब्ध हैं.
पोस्टर्स के थीम
शुरुआती दौर में हिंदी पोस्टर्स के थीम फिल्म के विषय पर आधारित होते थे. फिल्मों के पोस्टर्स से फिल्मों में सामाजिक पुट नजर आती थी. फिर धीरे धीरे धार्मिक तत्व नजर आने लगे. 30 दशक के बाद पोस्टर्स में मुख्य केंद्र में फिल्म के मुख्य किरदारों को जगह मिलने लगी. 1970 के दशक में हैंडमेड पोस्टर्स की लोकप्रियता कम होने लगी. फिल्म डिस्को डांसर, कुबानीङ व अरमान जैसी फिल्मों ने डिजिटल रूप धारण कर लिया. अब कलाकारों के चेहरे डिजिटल तसवीरों के रूप में नजर आने लगे.
अभिनेत्रियां होती थीं मुख्य आकर्षण
वर्तमान में जहां बॉक्स ऑफिस की सफलता का पूरा श्रेय अभिनेता को दिया जाता है. उस लिहाज से फिल्म के फर्स्ट लुक पोस्टर में अभिनेता के चेहरे ही मुख्य रूप से नजर आते हैं. 1940 से 1960 का दौर ऐसा रहा था. जब अभिनेत्रियां फिल्मों के पोस्टर्स में केंद्र में नजर आती थीं. मदर इंडिया, महल,आन, मुगलेआजाम ऐसी ही फिल्में थीं. चूंकि उस दौर में अभिनेत्रियां अभिनेताओं को अभिनय में बराबरी का टक्कर देती थीं. यह दौर 60 दशक तक चला. फिर अभिनेताओं ने जगह बनायी. अमिताभ बच्चन की जंजीर, दीवार, शोले व मुकद्दर का सिंकदर के पोस्टर बेहद लोकप्रिय हुए.
कोटेशन ः कपिल देव आर्यन, पोस्टर्स के संग्रहकर्ता
मैंने शुरुआती दौर में केवल रुपये में शोले के पोस्टर्स खरीदे थे. आज उनकी कीमत छह हजार हो गयी है. आपको जान कर शायद आश्चर्य हो लेकिन मदर इंडिया के पोस्टर्स आज भी विदेशों में बेहद लोकप्रिय हैं और आज भी मुझे पत्र आते हैं. साथ ही अमिताभ बच्चन व राज कपूर के पोस्टर्स के आज भी विदेशों में लोग मुंहमांगी कीमत देना चाहते हैं. लेकिन अफसोस भारत में ही इस कला का सम्मान नहीं.
एसएस करन, पोस्टर्स सेलर, हॉज खास विलेज
मैं पिछले 25 सालों से इसी व्यवसाय में हूं. आज भी लोग दीवार, कश्मीर की कली, रफू चक्कर, दो आंखें बारह हाथ के पोस्टर 1500 रुपये की कीमत पर देकर खरीदते हैं.

एक्सट््रा शॉट
एसएम पंडित, डीआर भोंसले, जफर, जी कामले, पंडित राम कुमार शर्मा, दिवाकर करकरे व सी मोहन वे कलाकार हैं, जिन्होंने हिंदी सिनेमा के कई माइलस्टोन फिल्मों के पोस्टर्स सजाये .
हिप्पी डॉट इन एक ऐसा वेबसाइट है, जिसके माध्यम से आप खुद अपनी तसवीरें पुराने फिल्मों के पोस्टर पर बनवा सकते हैं. मुंबई के नेहरु प्लैनेटोरियम में इंडियन हिप्पी नामक यह संस्थान फिल्म के प्रशंसकों के लिए यह सुविधा उपलब्ध कराती है.

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