20120219

स्लम व गलियों में राजकुमार


Orginally published in prabhat khabar.
Date : 19feb2012

फिल्म आइ एम कलाम का छोटू आज पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो चुका है. 63वें कान फिल्म महोत्सव में यह फिल्म दिखाई गयी. साथ ही फिल्म को राष्ट्रीय व फिल्मफेयर पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया. फिल्म की कहानी एक ऐसे गरीब बच्चे की थी, तो भारत के राष्ट्रपित कलाम से मिलना चाहता था और उनकी तरह की बनना चाहता था. दरअसल, छोटू का किरदार निभा रहे हर्ष मायर वास्तविक जिंदगी में भी दिल्ली के एक स्लम इलाके से संबध्द रखते हैं. फिल्म के निदर्ेशक नील पांडा ने हर्ष का चयन उस वक्त किया था, जब उन्होंने हर्ष को किसी इलाके में क्रिकेट खेलते हुए देखा था. उन्हें हर्ष में काबिलियत नजर आयी. और उन्होंने उसे बड़ा ब्रेक दिया. और छोटू के रूप में हर्ष बन गये गलियों के राजकुमार. हर्ष को सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है. दरअसल, भारत में आज भी ऐसी कई प्रतिभाएं हैं, जो स्लम व गलियों में मौजूद हैं. लेकिन सही मार्गदर्शन न मिल पाने के कारण उनकी प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं हो पाता. फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर के भी अधिकतर बाल कलाकार स्लम से ही चुने गये थे. फिल्म में सलमानइसी तर्ज पर हाल ही चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी ऑफ इंडिया के सौजन्य से एक फिल्म बनी है गट्टू. यह फिल्म इस वर्ष बर्लिन इंटरनेशनल चिल्ड्रेन फेस्टिवल में दिखाई गयी.गट्टू की कहानी भी एक ऐसे बच्चे पर आधारित है जो गलियों में रहता है. वह अनपढ़ है. लेकिन फिर भी उसका दिमाग सबसे तेज चलता है. वह पतंग उड़ाने में सबका उस्ताद है. फिल्म की पूरी शूटिंग रुड़की में की गयी है. फिल्म के निदर्ेशक राजन खोसा ने फिल्म की पूरी शूटिंग रुड़की के वास्तविक सती मोहल्ला में की है. गट्टू की कहानी से यह साफ जाहिर होता है कि प्रतिभा किसी पद की मोहताज नहीं होती. वह हैसियत नहीं, हिम्मत देखती है. हिंदी सिनेमा जगत में भी ऐसे कई कलाकार हैं, जिन्होंने गलियों से ही किस्मत चमकायी. जैकी श्राफ कभी चॉल में रहा करते थे. हिंदी सिनेमा के महान अभिनेता व डांसर भगवान दादा भी मुंबई के चॉल में ही रहा करते थे. बाद के दिनों वह इतने लोकप्रिय हुए कि लोगों ने उन्हें गलियों का अमिताभ बच्चन मान लिया. स्लमडॉग मिलेनियर में सलीम का किरदार निभा चुके मोहम्मद इस्माल व रुबीना मल्लिक ने हालांकि फिल्म से लोकप्रियता हासिल की. ऑस्कर तक का सफर तो तय किया. लेकिन इसके बाद इन प्रतिभाओं को कोई बड़ा ब्रेक नहीं मिला. मीरा नायर की फिल्म सलाम बांबे के अधिकतर किरदार भी मुंबई महालक्ष्मी व दादर के गलियों से ही लिये गये थे. लेकिन इस फिल्म के बाद उनकी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आये. जबकि इस फिल्म में उन सभी बच्चों के अभिनय की तारीफ की गयी है. इसकी खास वजह यह है कि हिंदी सिनेमा में बच्चों को केंद्र में रख कर कम ही फिल्में बनाई जाती हैं. ऐसे में जो कुछेक फिल्में बनती हैं, उनमें नामी बच्चे या अरबन बच्चों को ही मौके मिल जाते हैं. वैसे में ये स्लम या गलियों के प्रतिभाशाली बच्चों के लिए विकल्प नहीं रह जाते. जबकि अगर तराशा जाये तो ये बच्चे होनहार साबित होंगे. बशतर्े इन्हें सही मार्गदर्शन मिले. परखनेवाला जोहरी मिले.

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