20120228

कल दो चार और एक्सट्रा ले आना



फिल्मों में प्रायः हमारी नजर फिल्म के अभिनेता अभिनेत्री की तरफ जाती है. लेकिन शायद ही हमने कभी गौर किया हो कि किसी गीत को और खूबसूरत बनाने में अभिनेता अभिनेत्री को सपोर्ट कर रहे पीछे खड़े वे तमाम चेहरे भी होते हैं, जिन्हें हम उनके नाम से नहीं, बल्कि एक्सट्रा के नाम से नाम से जानते हैं. वे फिल्मों की खास जरूरत हैं. हर दिन 250-500 रुपये के लिए वे उसवक्त तक काम करते रहते हैं, जब तक पैकअप न हो जाये. जिन बड़े कलाकारों के साथ वे कई बार फिल्मों में काम कर चुके हैं. शायद ही उनमें से किसी सितारे ने कभी इनकी जिंदगी में झांकने की कोशिश की हो. इस रविवार मुझे मौका मिला, कुछ ऐसे ही लोगों से मिलने का. जो कई वर्षों से लगातार एक्स्ट्रा की जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं. मुंबई के धारावी के शास्त्रीनगर में एक ऐसा समूह रहता है, जो फिल्मों में एक्स्ट्रा का काम करता है. इन लोगों में महिलाएं भी शामिल हैं. और पुरुष भी. एक महिला सुशीला राजठांडे मिलीं, जो आम दिनो में मूर्तियां बनाती हैं. और काम मिलने पर एक्स्ट्रा का काम करती हैं. वे बताती हैं कि इ अपन लोगन का मजबूरी है. एइच तरीके से एक दिन में रोकड़ा मिल जाता है. कभी 250 कभी 500 रुपये. दूसरा काम करो तो इतना नहीं मिलता. दूसरा वहां खाना भी भरपेट मिल जाता है और घर परिवार के लिए लाने को भी देते वो लोग. सुशीला की जिंदगी एक ही कमरे के अंदर सिमटी है. उसी एक कमरे में बिस्तर है. सुशीला के तीन बच्चे हैं. दो लड़की. एक लड़का. लड़का सबसे छोटा है. सुशीला कहती है कि उनके पति भी यही काम करते है. या तो मूर्ति बनाते हैं या एक्सट्रा के रूप में काम करते हैं. वे उत्साहित होकर बताती है कि नयी अग्निपथ में मांडवा गांव के सीन में थे वह. सामने देवदास की माधुरी-ऐश वाली तसवीर है. वजह पूछने पर...क्या मैडम. आपको नजर नहीं आयी. ये देखिए पीछे अपन भी तो है. उस तसवीर में सुशीला के केवल हाथ नजर आ रहे थे. लेकिन फिर भी वह खुश है. फिर मुझे अपने संदूक से वह वे सारे पोस्टर्स दिखाती है, जिन जिन फिल्मों में वह नजर आयी है. बकौल सुशीला मैडम हम लोगों को हमारा कॉर्डिनेटर बताता है कि कब जाना है? और हम चले जाते हैं. हम लोग भी स्टार लोग से कमती नहीं हैं. हमलोग भी उनकी माफिक बहुत इच फिल्म में काम किया है. कभी डांसर के रूप में. कभी गांववालों के रूप में तो कभी हॉस्पिटल के मरीज के रूप में. सुशीला अपनी फिल्मी दास्तां पूरी दिलचस्पी से सुनाती है और साथ ही कई और महिलाओं से भी मिलवाती है, जो एक्स्ट्रा के रूप में काम करती हैं. लेकिन जैसे जैसे शाम ढलता है. सुशीला के चेहरे पर मायूसी छा जाती है. सुशीला भी अपना दर्द छुपा नहीं पाती. मैडम सच तो यह है कि हम लोग को भी अच्छा नहीं लगता. वहां सेट पर हमलोगों के साथ वैसा ही व्यवहार होता है जैसे तबेले में गाय-बैलों के साथ. लेकिन क्या करें. परिवार के लिए करना पड़ता है. सबसे तकलीफ उस वक्त होती है. जब पैकअप होने के बाद हमारे कॉर्डिनेटर को कहा जात है कि कल आओगे तो दो चार एकस्ट्रा और लेते आना...जैसे हम इंसान नहीं जानवर हों या कुर्सियां टेबल.

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