20120216

बोलती दुनिया में गूंगे फ़ालके



Orginally published in prabhat khabar.
Date : 16feb2012

जब भी तकनीक आती है तो कहीं हरियाली आती है तो किसी के लिए मुफ़लिसी साथ लाती है.बदलाव होते हैं तो कहीं नयी उम्मीद जगती है तो कहीं आशाएं बिखर कर चूर हो जाती हैं. कोई रुपये की गड्डी पर सवार हो जाता है तो किसी के हाथों से रोजी रोटी छीन जाती है.
कुछ ऐसे ही हालात के गवाह रहे थे हिंदी फ़ीचर फ़िल्मों के पितामाह धूंधीराज गोविंद फ़ालके उर्फ़ दादा साहेब फ़ाल्के, जिन्होंने भारत में सिनेमा का उदय तो किया, लेकिन तकनीक की बदलती दुनिया से कदमताल न कर पाने की वजह से वर्ष 1944 में आज ही के दिन इस सूरज का अस्त हो गया.
हालांकि इस सूरज ने अपनी लालिमा में हिंदी सिनेमा को नयी ऊंचाईयां दी. साइलेंट फ़िल्मों के दौर में उन्होंने राजा हरिशचंद्र, श्री कृष्ण जामा, कालिया मरदान, सेतु बंधन जैसी माइलस्टोन फ़िल्में दीं. लेकिन इसके बाद बोलती दुनिया ने उन्हें गूंगा बना दिया.दादा साहब ने साइलेंट फ़िल्मों के दौर में कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बनायी, साथ ही उन्होंने फ़िल्मों में हर विधा के साथ प्रयोग किया. उन्होंने शिक्षा,कॉमिक, टैपिंग, फ़ीचर, हर तक की फ़िल्में बनायीं.
वे लगातार प्रयोग करते रहे. लेकिन फ़िल्मों में जब बोलना शुरू किया, फ़ालके अपनी आवाज खो बैठे. उन्होंने बोलती फ़िल्मों के दौर में केवल एक फ़िल्म बनायी, गंगावतारण, जो कि उनकी पिछली फ़िल्मों से सामान्य रही. फ़िर हार कर उन्होंने फ़िल्मी दुनिया को अलविदा ही कह दिया. दरअसल, यह सच्चाई है कि जब जब हिंदी सिनेमा ने नयी करवटे बदली. उसने नये लोगों को तो मौका दिया, लेकिन पुराने लोगों से उसके मुंह का निवाला छीन लिया.
आज के दौर में फ़िल्मी पोस्टर्स डिजिटलाइजड हो गये. सो, हाथों से बननेवाले पोस्टर्स के चित्रकारों की जरूरत गौन हो गयी. स्पेशल इफ़ेक्ट्स व विजुएल इफ़ेक्ट्स की दुनिया में क्रांति तो आयी, लेकिन कितने कामगार लोगों की दुनिया सुनी कर गयी. बोलती दुनिया में फ़िल्मों के कदम रखने के बाद दादा साहेब की हालत ठीक उसी तरह हो गयी होगी, जैसे एक पिता की तब हो जाती है, जब बड़े होने पर एक बेटा अपने पिता का साथ छोड़ देता है, जिसे कभी उस पिता ने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया होगा.
इस मर्म को शायद फ्रेंच निर्देशक ने माइकल हजेनाविसियस ने बखूबी समझा होगा. तभी उन्होंने आज तकनीक के साथ सरपट भागती फ़िल्मी दुनिया में भी द ओर्टस्ट नामक फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन किया. इस फ़िल्म में उन्होंने जीन डुजारडिन के किरदार द्वारा उन तमाम लोगों की पीड़ा दर्शायी, जिन्होंने बोलती फ़िल्मों की दुनिया के आगमन के बाद सबकुछ खो दिया. किस तरह फ़िल्मों ने जब बोलना शुरू किया तो पूंजीपतियों ने भी साइलेंट फ़िल्मों व उसे रचनेवाले लोगों से मुंह मोड़ लिया.
नयी पीढ़ी के लिए द ओर्टस्ट वाकई एक सबक की तरह है, जिसके द्वारा एक कलाकार की पीड़ा बेहतरीन तरीके से दर्शायी गयी है. इसे देखने के बाद शायद दादा साहेब सरीखे महान फ़िल्मकार की परिस्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है. भले ही आगे चलकर कई फ़िल्माकारों ने हिंदी सिनेमा में खाद डाल कर उसे सींचा. लेकिन इसकी उपज के असली हकदार तो दादा साहेब पाल्के ही हैं.
डीप फ़ोकस
फ़ालके की जीवनी व उनके संघर्ष को आधार मान कर परेश मोकाक्षी ने हरिशचंद्रची फ़ैक्ट्री नामक बेहतरीन फ़िल्म का निर्माण वर्ष 2009 में किया

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