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20120206
दीवारों पर हथेलियां
गृहस्थ जीवन में व्यस्त होने से पहले रितेश ने एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उठाई है. यह जिम्मेदारी उन्होंने अपने व्यक्तिगत परिवार के लिए नहीं, बल्कि हिंदी सिनेमा जगत के लिए उठाई है. उन्होंने हिंदी सिनेमा जगत के लीजेंडरी शख्सियत के सम्मान में लीजेंड्स वॉक नामक खास सड़क मार्ग बनाने की योजना बनायी है.
मुंबई के ब्रांदा इलाके में इसका निर्माण किया जायेगा. इस मार्ग पर बॉलीवुड की जानी मानी हस्तियों के हथेलियों के निशान लिये जा रहे हैं और फ़िर इसे इस मार्ग के दीवार पर लगायेंगे. रितेश अभिनेता होने के साथ-साथ एक आर्किटेक्ट भी हैं. यही वजह है कि उन्होंने यह बेहतरीन कंसेप्ट सोची और इस पर वे लगातार काम भी कर रहे हैं.
अब तक उन्होंने आशा पारेख, अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, राजेश खन्ना, धर्मेद्र, हेमा मालिनी व हाल ही में उन्होंने दिलीप कुमार व सायरा बानो के हाथों के निशान भी लिये. सिनेमा हस्तियों ने इस अद्वितीय कंसेप्ट के लिए रितेश की बहुत सराहना की है.
रितेश देशमुख बधाई के पात्र हैं, क्योंकि हिंदी सिनेमा जगत इन दिनों वर्तमान में जी रहा है. डिजिटल वर्ल्ड की दुनिया में सारी चीजें डिजिटल रूप से ही तैयार हो रही हैं. और उनका संरक्षण भी डिजिटल रूप से ही हो रहा है. यह हिंदी सिनेमा का दुर्भाग्य है कि हिंदी सिनेमा जगत अपने 100वें साल में प्रवेश करने जा रहा है.
लेकिन हिंदी सिनेमा की पहली बोलती फ़िल्म आलम आरा के प्रिंट्स गायब हैं. हिंदी सिनेमा जगत से जुड़ी और भी कई ऐसी चीजें हैं जिनका संरक्षण किया जाना चाहिए था. लेकिन आज वे विलुप्त हो चुकी हैं. चूंकि हिंदी सिनेमा जगत से जुड़े लोग भी इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं. जिस तरह भारत में फ़िल्में केवल एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट से चलती हैं.
यहां फ़िल्मों से जुड़े कई महत्वपूर्ण दस्तावेजों को संग्रहीत करने की कोई प्रक्रिया नहीं है. हालांकि, पिछले साल विदु विनोद चोपड़ा ने भी एक लाइब्रेरी की शुरुआत की है, जिसमें हिंदी सिनेमा के सभी क्लासिक फ़िल्मों की स्क्रिप्ट का संग्रह किया जायेगा. दरअसल, हिंदी फ़िल्म जगत के लिए यह बेहद अनिवार्य है कि वे अपने सिनेमा के इतिहास, उसके वर्तमान को भविष्य में भी जीवित रख सके.
यह तभी संभव हो सकता है, जब हर निर्देशक कलाकार मिल कर चीजों को महत्व देना शुरू करें और उन्हें सहेज कर संजो कर रखे. हम आज तकनीक में, कंसेप्ट में, कहानी हर दृष्टिकोण से विदेश की नकल करने में आतुर हैं और अपनी बेशर्मियत को पार कर चुके हैं तो फ़िर जो चीजें हमें उनसे सीखनी चाहिए. वह हम क्यों नहीं सीखते.
जिस तरह वे अपने कलाकारों के सम्मान में कई म्यूजियम का निर्माण करते हैं. यहां तक कि आज भी वहां के कई म्यूजियम में कलाकारों के परिधान भी सहेज कर रखे गये हैं. तो फ़िर इन बातों पर अब तक हिंदी के लोगों की नजर क्यों नहीं गयी. रितेश ओर्कटेक्ट भी हैं और अभिनेता भी. यानी वे दो कलाओं के कलाकार हैं.
इस लिहाज में वे इस बात से अच्छी तरह वाकिफ़ होंगे कि एक कलाकार कभी मरता नहीं. इस बात का चित्रण वी शांताराम ने फ़िल्म गीत गाया पत्थरों में भी किया है, जिसमें वे परिकल्पना करते हैं कि निर्जीव पत्थर भी गीत गाते हैं.
डीप फ़ोकस
भारत की पहली बोलती फ़िल्म आलम आरा के प्रिंट वर्ष 2003 में पुणे के आरकाइव में लगी आग की वजह से बर्बाद हो गये
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