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20120216
अपने लिये जिये तो क्या जिये
Orginally published in prabhat khabar.
Date : 16feb2012
हाल ही में अरुणा ईरानी को 57वें फिल्मफेयर अवार्ड में लाइफ टाइम अचिवमेंट अवार्ड से नवाजा गया. वे पिछले 51साल से हिंदी सिनेमा में सक्रिय रही हैं. अवार्ड प्राप्त करने के बाद उनकी आंखों में आंसू थे. उन्होंने उस वक्त स्वीकारा कि फिल्मों का रास्ता उन्होंने अपने शौक की वजह से नहीं, बल्कि घर की मजबूरियों व घर की सबसे बड़ी बेटी होने की वजह से चुना था.हिंदी सिनेमा में अरुणा पहली ऐसी बेटी नहीं, जिन्होंने अपने परिवार की परिस्थिति को समझते छोटी उम्र से ही परिवार की जिम्मेदारियों को उठा लिया. लता मंगेशकर, नरगिस, मधुबाला व मीना कुमारी जैसी शख्सियत अपनी खुशी के लिए बल्कि दूसरों के लिए जीती रहीं. बलराज साहनी ने खुद अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है कि कैसे उनके बेटे परीकक्षित ने छोटी उम्र से परिवार की जिम्मेदारी उठायी.
वर्ष 1961 में रिलीज हुई फिल्म बादल के गीत के बोल खुदगर्ज दुनिया में ये, इंसान की पहचान है जो परायी आग में जल जाये. वह इंसान ही क्या... अपने लिये जिये तो क्या जिये के बोल वाकई उन लोगों पर बिल्कुल सटीक बैठते हैं, जिन्होंने अपनी खुशियों से बढ़ कर अपने परिवार की खुशियों को अहमियत दी. हिंदी सिनेमा जगत में जहां कई ऐसे खानदान हैं, जिन्होंने अपने बेटे और अपने परिवार की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें फिल्मों में आने के लिए प्रेरित किया, तो वही कई ऐसी शख्सियत भी हैं, जिन्होंने परिवार व अपने भाई बहनों के पालन-पोषण का जिम्मा खुद उठाया और फिल्मी दुनिया उनके लिए आय का स्रोत बनी. बेशक आज वे सभी शख्स कामयाब हैं. पहचान स्थापित कर चुके हैं. लेकिन किसी दौर में उन्होंने कई मुश्किलों का सामना किया था. उस वक्त उनके पास न तो किसी का सहारा न था. न पैसे. न परेशानियों पर अपना काबू. हां,लेकिन इन सभी के पास कुछ था तो जज्बा और साथ ही एक ललक थी आंखों में अपने परिवार को हर खुशियां देने की. और शायद इम्तियाज अली की फिल्म रॉकस्टार में यह वास्तविकता ही दिखाई गयी है कि जिंदगी में अगर दर्द हो तभी वह कलाकार बन सकता है.
अरुणा ईरानी ः भाई बहनों की जिम्मेदारी संभाली
अरुणा को बचपन से ही फिल्में देखने का शौक अपने पिता फरदून ईरानी से मिली. वे मुंबई में पारसी थियेटर में काम करते थे. अरुणा अपने माता-पिता की पहली संतान थीं. पिता चूंकि थियेटर से जुड़े थे. तो उस वक्त तक परिवार की स्थिति ठीक चली. जब तक थियेटर को सिनेमा ने उखाड़ न फेंका. सिनेमा के आते ही थियेटर का अस्तित्व खोने लगा. अब घर की सारी जिम्मेदारी केवल पिता नहीं उठा सकते थे. और यही से उनकी जिंदगी बदल गयी. परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ती चली गयी. अरुणा स्कूल की फीस नहीं भर पायीं तो उन्हें स्कूल से बाहर निकाल दिया गया. उस वक्त ही अरुणा ने समझ लिया कि उन्हें अपनी जिम्मेदारियां निभानी ही होंगी. दिलीप कुमार ने अरुणा को पहला मौका दिया था. अरुणा का परिवार उस वक्त गैंट रोड के चॉल में रहता था. अरुणा ने उसके बाद लगातार फिल्मों में काम किया और अपने भाई बहनों व मौसेरे भाई बहनों को भी पढ़ाया-लिखाया और उन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया. अरुणा ने शुरुआती दौर में कैरेक्टर आर्टिस्ट के रूप में काम किया. फिर उन्हें कई फिल्मों में मुख्य किरदार निभाने का भी मौका मिला.
लता मंगेशकर : दीदी नहीं घर की पिता बन गयी
लता अपने भाई बहनों में सबसे बड़ी थीं. जब लता 13 की थीं. तभी पिता की मृत्यु हो गयी. अपने परिवार की सारी जिम्मेदारी लता पर आ गयीं. उन्होंने छोटी उम्र से ही गायिकी शुरू कर दी. मुंबई आने का मौका मिला. फिर फिल्मों में गाना शुरू किया. शुरुआती दौर में सिर्फ भजन गाये. शशिधर मुखर्जी जैसे निदर्ेशकों ने लता को यह कह कर न कह दिया कि उनकी आवाज बहुत पतली है. दिलीप साहब ने कहा कि मराठी है. तो जरूर दाल भात जैसा गायेगी. लता ने इसे चुनौती के रूप में लिया, चूंकि वह जानती थीं कि उन्हें अपने परिवार का सहारा बनना है. धीरे धीरे उन्हें मौके मिले. फिल्म महल ने उनकी जिंदगी बदल दी. आशा खुद बताती हैं कि कैसे लता अपने भाई बहनों के लिए पहले कपड़े खरीदतीं. उन्हें पढ़ाती. घर का राशन भी उनके भरोसे ही आता था. लगा लगातार 13 14 घंटे काम करती रहतीं. कई कांसर्ट करतीं, ताकि घर में पैसे आ सकें. अपने भाई बहनों की जिंदगी संवारने में ही लता यूं व्यस्त रहीं कि उन्होंने कभी शादी नहीं की.
मीना कुमारी ः पिता के लिए कमाने की गुड़िया
मीना उस वक्त महजबीन थीं. अपने पिता अली बख्श की तीसरी संतान थी. खुर्शिद व मधु उनसे बड़ी दो बहने थी. जब मीना का जन्म हुआ था. उस वक्त पिता अली के पास पैसे नहीं थे. सो, उन्होंने मीना को अनाथ आश्रम में डाल दिया. हालांकि वह बाद में उसे ले आये. घर की माली हालत को देखते हुए उन्होंने महजबीन को फिल्मों में ढकेल दिया, क्योंकि महजबीन बेहद खूबसूरत ती. लेकिन महजबीन कभी नहीं चाहती थी कि वह फिल्मों में काम करे. वह पढ़ना चाहती थी. लेकिन लालची पिता ने उस नन्ही जान की एक न सुनी. 7 साल की उम्र से काम करना पड़ा. महजबीं के पैसे से घर चलता. लेकिन महजबीं को फुटी कौड़ी भी न मिलती. पिता के लिए वह अलादीन का चिराग बन गयी. मीना की कमाई ने परिवार को एक कमरे के मकान से बंगले में पहुंचा दिया. मीना को शोहरत मिली. पैसे मिले. इज्जत मिली. लेकिन मरते दम तक वह दूसरों के लिए ही जीती रही. कमाल अमरोही से प्यार किया. व्याह भी रचाया. लेकिन वह भी उन्हें बॉक्स ऑफिस पर पैसे कमानेवाली कठपुतली ही समझते रहे. 40साल तक वह दूसरों के लिए जीती रहीं. लेकिन मौत मिली तो वह अकेली थी.
मधुबाला ः कठपुतली-सी जिंदगी
ेयह मधुबाला की जिंदगी की सबसे बड़ी गलती थी कि उसने एक ऐसे मुसलिम परिवार में जन्म लिया. जहां उसे सिर्फ अपने परिवार का पालन पोषण करनेवाली मशीन की तरह इस्तेमाल किया गया. वह अपने परिवार में पांचवें नंबर थी. उनकी जिंदगी अपने परिवार के नाम पर उसी दिन निलाम हो गयी. जिस दिन उनके पिता अतुल्ला खान की नौकरी गयी. अतुल्ला अपनी बेटी को मुंबई लेकर आये. उस वक्त मधुबाला केवल 9 साल की थी. यहां पिता ने उन्हें फिल्म की फैक्ट्री में एंट्री दिलवा दी. मधुबाला अभिनय के गुरों के साथ साथ अदभुत रूप से सुंदर थी. इसका फायदा अतुल्ला ने उठाया. मेहनत करती मधु और ऐश करते अतुल्ला. अपनी बेटी पर 24 घंटे कड़ी निगरानी तो ऐसे रखते. जैसे वह पिता नहीं जल्लाद हों. मंजर यह रहा कि मधुबाला जिंदगी भर कठपुतली की तरह जीती रहीं. बचपन से प्यार के अभाव में जीनेवाली मधुबाला ताउम्र प्यार की खोज करती रहीं. लेकिन जल्दी ही उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. अपने हिस्से की जिंदगी जिये बगैर ही.
नरगिस ः मां के सपनों में जीती रहीं
नरगिस कोलकाता की एक तबायफ के घर में जन्मीं. बचपन से ही उन्हें जिल्लत सहने की आदत हो गयी थी. मां जद्दनबाई शुरू से ही चाहती थी कि वह खुद महान गायिका बने, लेकिन वह न बन पायी, सो वह अपने सपने अपनी बेटी नरगिस की आंखों से देखने लगी. उन्होंने नरगिस को छोटी उम्र में ही फिल्मों की दुनिया से रूबरू करा दिया. नरगिस उर्फ फातिमा पढ़ना चाहती थी. लेकिन मां ने उन्हें यह मौका नहीं दिया. 14 साल की उम्र से ही उन्हें नाम व शोहरत दोनों मिला. अपने घर की आर्थिक स्थिति को सुधारने में नरगिस ने बहुत योगदान दिया. उनकी फिल्मों की कमाई से ही उनके भाई को सहारा मिलता रहा. नाम शोहरत मिलने के बावजूद नरगिस को प्यार करनेवाला हमदम राज कपूर की आंखों में नजर आया. लेकिन कभी दोनों एक न हुए. बाद में सुनील दत्त व नरगिस से व्याह रचाया. और परिवार बसाया. बेहद छोटी उम्र से ही निरंतर काम करनेवाली नरगिस शायद थक चुकीं थी, सो बेहद कम उम्र में ही वह दुनिया छोड़ कर चली गयीं. दूसरों के लिए जीते जीते.
परीकक्षित साहनी ः पिता के बने सहारे
बलराज साहनी ने अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है कि जिस दौर में उनकी आर्थिक स्थिति बहुत बुरी हो गयी थी. उस वक्त उनके बेटे परीकक्षित साहनी ने पढ़ाई छोड़ कर परिवार की जिम्मेदारी उठायी. वे छोटी उम्र में ही कई फिल्मों में काम करने लगे. ताकि घर में पैसे आये. एक दिन जब बलराज सेट पर गये और उन्होंने देखा कि उनके बेटे के साथ सेट पर लोग किस तरह से पेश आ रहे हैं. कैसे उनका बेटा आंधी, धूल खा रहा है. और उनका कोई ध्यान नहीं रख रहा. उन्हें एहसास हुआ कि उनका बेटा कितनी परेशानियों को झेल रहा है. उन्होंने फौरन परीकक्षित को फिल्मों से दूर किया. और फिर परीकक्षित ने अपनी पढ़ाई पूरी की.
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