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20120203
सेभ दादा व सिनेमा का शंखनाद
जब भी हिंदी सिनेमा के इतिहास के पन्ने पलटे जाते हैं तो हमारे सामने दादा साहेब फाल्के की फिल्म राजा हरिशचंद्र का नाम उभर आता है. चूंकि हिंदी सिनेमा के नाम पहला कीर्तिमान इसी फिल्म से स्थापित हुआ था. इस लिहाज से यह फिल्म सबसे महत्वपूर्ण फिल्म है. लेकिन इसके साथ ही साथ हरिशचंद्र नाम से ही जुड़े एक महत्वपूर्ण शख्स और भी हैं, जिन्हें सिनेमा से संबध्द रखनेवाले हर शख्य को पूरे सम्मान से स्मरण करना चाहिए. दादा साहेब फाल्के ने हिंदी सिनेमा में जो योगदान दिया है. वह अतुल्नीय है. लेकिन इनके साथ ही एक और शख्सियत भी हैं, जिन्होंने भारत में पहली बार सिनेमा का उदय किया. हरिशचंद्र सखावराम भाटवेडकर उर्फ सेभ दादा. विशेष कर सिनेमा में रुचि रखनेवाली नयी पीढ़ी के लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि शुरुआती दौर में एक सामान्य से दिखनेवाले सीधे साधे हरिशचंद्र ने किस तरह छोटे छोटे प्रयासों से भारत में पहली बार सिनेमा की परिभाषा गढ़ी. कम ही लोगों को यह जानकारी होगी कि राजा हरिशचंद्र से पहले भी कुछ मिनटों की फिल्मों का निर्माण हुआ था और उसे बनानेवाले थे हरिशचंद्र उर्फ सेभ दादा. दरअसल, सच्चाई यह है कि भारतीय लोगों को शुध्द रूप से भारतीय अंदाज में सबसे पहले सिनेमा से रूबरू करानेवाले शख्स सेभ दादा ही थे. वह मुंबई( तब बांबे) के निवासी थे. पेशे से वह स्टील फोटोग्राफर थे. वर्ष 1896 में जब पहली बार मुंबई में लुमिनियर ब्रद्रर्स ने फिल्म शोज किये थे. उसे साक्षात देखनेवाले लोगों में से एक थे. उस फिल्म से ही प्रभावित होकर उन्होंने लंदन से एक मूवी कैमरा व प्रोजेक्टर मंगवाया. और मुंबई में होनेवाले आयोजनों को रिकॉर्ड करने लगे. वह भारत के पहले फिल्म निर्माता बने. उन्होंने पहली बार दो पहलवानों की लड़ाई के खेल को शूट किया. फिल्म का नाम रखा दो पहलवानों की कुश्ती. साथ ही उन्होंने एक और फिल्म भी बनायी. बंदर को नचाता हुआ मदारी. यह दोनों ही फिल्में वास्तविक घटना पर आधारित थी. यह फिल्में वर्ष 1899 में रिलीज हुई थीं. यानी 1913 से कुछ 14 वर्ष पहले ही भारत में सिनेमा का शंखनाद हो चुका था. इन फिल्मों के बाद उन्होंने लोकल सीन्स, अफतास बेहराम, सर रैंगलर, दिल्ली दरबार जैसी फिल्मों का निर्माण किया था. जो बाद में जाकर सिनेमा को समझने व जानने के लिहाज से महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित हुई.उस दौर में सेभ दादा को यह बात सबसे अजूबी लगी थी, कि जो घटना बीत चुकी है. हम उसे वीडियो के माध्यम से दोबारा देख सकते हैं. सेभ दादा ने एहसास किया कि दस्तावेजों के संरक्षण का यह महत्वपूर्ण तरीका है. सो, उन्होंने लगातार रिकॉर्डिंग शुरू किया. कहा जा सकता है कि भारत में पहली डॉक्यूमेंट्री बनाने का श्रेय भी सेभ दादा को ही जाता है. स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भी कई महत्वपूर्ण घटनाओं को अगर वीडियो के माध्यम से संरक्षित रखा जा सका तो वह सेभ दादा की ही बदौलत. उम्मीद है कि हिंदी सिनेमा के 100 साल पूरे होने पर सेभ दादा व उनके योगदान की अनदेखी नहीं की जायेगी. चूंकि वे इस सम्मान के प्रथम हकदार हैं.
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