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20120213
प्रकाश राज के धोनी
Orginally published in prabhat khabar.
Date : 13feb2012
अभिनेता प्रकाश राज अब निर्देशन के क्षेत्र में कदम रख रहे हैं. फ़िल्म धौनी से. यह फ़िल्म उन्होंने अपनी मातृभाषा तमिल में बनायी है. साथ ही वह इसे तेलुगू में भी डब करेंगे. इस फ़िल्म का निर्माण उनकी प्रोडक्शन कंपनी द्वारा ही किया गया है. फ़िल्म की कहानी एक बेटे व पिता के द्वंद्व की कहानी है.
पिता चाहता है कि उनका बेटा एमबीए करे. लेकिन बेटे को स्पोर्ट्स में दिलचस्पी है और वह भारत के कप्तान महेंद्र सिंह धौनी की तरह दूसरा धौनी बनना चाहता है. फ़िल्म में बेटे का किरदार पुरी जगन्नाथ के बेटे आकाश निभा रहे हैं. प्रकाश स्वयं फ़िल्म में पिता की भूमिका में हैं. प्रकाश ने यह फ़िल्म अपनी बेटी से प्रेरित होकर बनायी है.
उन्होंने हमेशा यह महसूस किया कि जब भी उनकी बेटी के सामने परीक्षा की घड़ी आती, वह परेशान हो जाती. इससे साफ़ जाहिर होता है कि आज एजुकेशन सिस्टम में ऐसी कई खामियां हैं, जिसकी वजह से बच्चों पर अत्यधिक दबाव बना रहता है.
साथ ही कई अभिभावक ऐसे होते हैं, जो बच्चों की भावनाओं को नहीं समझते. धौनी के बहाने, निर्देशक ने ऐसे ही अहम मुद्दे को खंगालने की कोशिश की है. फ़िल्म के शीर्षक के साथ धौनी का नाम जोड़ने का निर्देशक का मुख्य मकसद यही है कि आज भारत में ऐसे कई बच्चे हैं, जो बड़े हो कर आइएएस, आइपीएस नहीं, बल्कि स्पोर्ट्समैन बनना चाहते हैं. धौनी जैसे खिलाड़ी भी अब लोगों के आदर्श बन चुके हैं. ऐसे में धौनी का नाम दर्शकों को कहानी देखने के लिए प्रेरित करेगा.
सिनेमाई परदे पर ऐसे विषय पर और भी फ़िल्में बनती रही हैं. फ़िल्म इकबाल, तारे जमीं पे ऐसे विषयों पर आधारित फ़िल्में हैं. चूंकि यह सच है कि आज भी भारत में ऐसे कई बच्चे हैं, जो शिक्षा के क्षेत्र में अपना सवरेत्तम न दे पाने की वजह व अपने अभिभावकों की उम्मीदों पर खरा न उतर पाने की वजह से आत्महत्या कर लेते हैं.
चूंकि वे अपने कैरियर विकल्पों का चयन करने के लिए आजाद नहीं होते. ऐसे में हिंदी सिनेमा में अगर ऐसे विषयों को बार-बार उजागर किया जाता है, तो यह सराहनीय पहल होगी. फ़िल्म फ़ालतू के एक दृश्य में विष्णु नामक किरदार 94 प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण हो जाने के बाद भी कहता है कि वह फ़ेल हो गया.
क्योंकि वह अपने पिता की इच्छानुसार 95 प्रतिशत अंक प्राप्त नहीं कर पाया. इसके दूसरे ही दृश्य में विष्णु व उसके पिता की बातचीत है. जिसमें वह कॉफ़ी में दो की बजाय एक चम्मच चीनी डालते हैं और कहते हैं कि अगर दो चम्मच चीनी होती, तो स्वाद ज्यादा बेहतर होता. यह संवाद दरअसल, अभिभावकों द्वारा बच्चों पर डाले गये अत्यधिक दबाव को दर्शाता है. लेकिन इस फ़िल्म ने एक बेहतरीन पहल की, कि फ़िल्म के अंत में किसी किरदार को आत्महत्या करते नहीं, बल्कि अपना रास्ता खुद तय करते दिखाया गया.
कुछ ऐसा ही हाल ही में रिलीज हुई फ़िल्म साडा अड्डा में भी दिखाया गया. फ़िल्म में एक बेहतरीन सीख दी गयी कि अभिभावकों के दबाव में आकर कभी आत्महत्या न करें और अपने चुने गये मार्ग पर चलते रहें. चूंकि आज भी कई प्रतिशत बच्चे इस दबाव से गुजर रहे हैं. ऐसे में हिंदी सिनेमा के निर्देशकों द्वारा इस विषय को गंभीरता से लेना उन बच्चों व अभिभावक दोनों के लिए एक सीख है.
डीप फ़ोकस
बिहार से संबंध रखनेवाले निर्देशक शशि वर्मा भी इसी विषय के इर्द-गिर्द घूमती कहानी पर फ़िल्म बनाने की दिशा में प्रयासरत हैं.
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