20121121

अनर्थ में अर्थ की तलाश


 
अभी हाल में मशहूर समीक्षक जयप्रकाश चौकसे की  एक किताब जो गांधी और सिनेमा पर आधारित है. उसका लोकार्पण मुंबई में हुआ. इस मौके पर मशहूर लेखक सलीम खान का पूरा परिवार उपस्थित था. सलीम खान प्राय: मीडिया से सार्वजनिक स्थानों पर मुखातिब नहीं होते. लेकिन उस दिन उन्होंने खुल कर बातचीत भी की और अपने कई अनुभव भी शेयर किये. सलीम खान ने बातों बातों में इस बात का जिक्र किया कि अक्सर लोग उनसे पूछते हैं कि सलीम जावेद में लिखता कौन था. इस पर उन्होंने कहा कि दरअसल, हम दोनों तो सोचते थे. लिखते तो खलिश लखनवी थे. उनके इस वक्तव्य को एक वरिष्ठ फिल्म पत्रकार ने अपने फेसबुक स्टेटस पर डाला और इस स्टेटस पर लगातार बाढ़ की तरह लोगों की प्रतिक्रियाएं आने लगीं. कुछ ने कहा कि यह बड़ा खुलासा है. कुछ ने कहा कि सलीम साहब ने चलो, अब जाकर तो अपनी चोरी मान ली. कई लोगों ने अपनी विशेषज्ञों वाली टिप्पणी भी की. लेकिन हकीकत में जो सलीम खान कहना चाहते थे और उनका जो तात्पर्य था वह किसी ने समझा ही नहीं और आगे बढ़ कर अपनी प्रतिक्रियाओं का अंबार लगाते चले गये. लोगों को लगा कि सलीम खान खलिश लखनवी की चोरी की गयी स्क्रिप्ट पर अपना नाम देते थे और अपनी चोरी को वह अब स्वीकार रहे हैं.जबकि सलीम खान के कहने का तात्पर्य था कि उस दौर में खलिश उनकी स्क्रिप्ट को पन्नों पर उतारते थे या टाइप करते थे. न कि खलिश स्क्रिप्ट लिखा करते थे. दरअसल, यह हमारे स्वभाव का एक हिस्सा बन चुका है. विशेष कर फिल्मों के जानकार तो आज हर जगह हैं. फिल्में समाज का वह विषय हो चुकी है. जिस पर हर कोई लिख सकता है. जबकि हकीकत यह है कि जल्दबाजी में हम अक्सर अर्थ का अनर्थ बना देते हैं. अनुराग बसु ने अपनी फिल्म बर्फी में इस बात का अच्छा जिक्र किया है कि आज का प्यार कैसा दो मिनट नूडल्स जैसा...हकीकत भी यही है कि आज केवल प्यार ही नहीं, हर काम नूडल्स की तरह फास्ट फूड की तरह हो चुका है.  विशेष कर फिल्मों व अभिनेताओं को लेकर सबसे अधिक प्रतिक्रियाएं आने लगती हैं. किसी स्टार की दो फिल्में न चलें तो लोग उनके करियर का अंत ही बता देते हैं. प्राय: मीडिया भी स्टार कुछ कहते हैं और उनकी बातों को तोड़ मड़ोड़ कर कुछ इस तरह पेश करते हैं कि सामने वाले अगर किसी की बुराई न भी की हो तो उन्हें यही महसूस होगा कि उनके बारे में बुरी बातें कही गयी है. या कमेंट किया गया है. यह हर तरह से घातक है.

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