20121106

गूंगे फाल्के का बोलता सिनेमा

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अगर उस वक्त दादा साहेब फाल्के ने लंदन फिल्म उद्योग के फिल्मकारों की बात सुन कर लंदन में रह कर ही फिल्में बनाना शुरू कर देते तो शायद ही भारतीय सिनेमा जगत का जन्म संभव हो पाता. अगर उस वक्त दादा साहेब ने अपने दोस्तों की बात मान ली होती और फिल्में बनाने की धून छोड़ दी होती तो शायद ही भारत में सिनेमा का विगुल बजता. दोस्त उन्हें पागल बुलाते थे और यही नहीं उनके दोस्तों ने तो उन्हें थाणे के पागलखाने में भर्ती भी करवा दिया था. लेकिन अगर वे उसी वक्त अपने पागलपन को छोड़ देते. तो शायद आज हिंदी सिनेमा अपने 100 साल में प्रवेश नहीं कर पाता. अगर उस वक्त दादा साहेब फाल्के ने भी अपनी जमापूंजी को यह सोच कर फिल्मों के लिए निवेश न किया होता कि उन्हें अपने परिवार का निर्वाह करना है तो वे भारतीय सिनेमा के जनक नहीं कहलाते. दादा साहेब फाल्के ने कदम कदम पर चुनौतियां लीं तो भारतीय सिनेमा के ताकत बने. वरना, शायद ही भारत में मूविंग फिल्मों की शुरुआत हो पाती. दरअसल, दादा साहेब फाल्के जैसे जुनूनी व्यक्ति में ही एक फिल्मकार का जन्म हो सकता था. सिनेमा की सोच रखनेवाले ही किसी व्यक्ति को चाय की प्याली के हैंडल में भी कैमरा एंगल नजर आ सकता है. सिनेमा के प्रति समर्पित व्यक्ति ही मटर के पौधे के विकास को भी सिनेमा का रूप दे सकता है. दादा साहेब फाल्के को भले ही मूल प्रेरणा लंदन में देखी गयी फिल्म द लाइफ आॅफ क्राइस्ट से मिली हो. लेकिन उन्होंने उस प्रेरणा में अपनी मौलिकता और सोच से एक समझ दी और भारत में फिल्मों की शुरुआत की. फिल्म उस वक्त मूलत: विदेशी उपक्रम था. साथ ही न तो किसी के पास फिल्म बनाने के अनिवार्य तकनीक उपलब्ध थे न ही उपकरण. लेकिन इसके बावजूद फाल्के ने अपनी सूझबूझ से वह कर दिखाया, जो आज एक बड़ी इंडस्ट्री का रूप है.  दादा साहेब फाल्के  उर्फ धुंधीराज गोविंद फाल्के को बचपन से ही कला से लगाव हो चुका था. यही वजह ती कि उन्होंने शिक्षा के लिए जेजे आटर््स स्कूल से कला का प्रशिक्षएण हासिल किया. फोटोग्राफी के शौक ने यही जन्म लिया. एक मंझे फोटोग्राफर की तरह न सिर्फ उन्हें शिक्षा ली. बल्कि उन्होंने अपना स्टूडियो भी शुरू किया. दरअसल, दादा साहेब फाल्के के व्यक्तित्व की एक खासियत रही. उन्होंने हमेशा जो भी चीजें सीखीं. उसका प्रयोगात्मक रूप से इस्तेमाल करना भी शुरू किया. केवल सैद्धांतिक नहीं, बल्कि वे अपनी शिक्षा को व्यवहारिक रूप से भी प्रयोग करने लगे थे. यही वजह थी वे सन 1909 में जर्मनी भी गये. रहां उन्होंने आधुनिक मशीनों की तकनीक और संचालन के बारे में जाना. वही उनकी मुलाकात मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा से हुई थी. रवि भारतीय देवताओं की पेंटिंग बनाया करते थे. और उसी वक्त से फाल्के को भी देवी देवताओं की पेंटिंग में रुचि हो गयी थी. फिर कुछ दिनों बाद लाइफ आॅफ क्राइस्ट देखने का मौका मिला. और फाल्के के अंदर का फिल्मकार जाग उठा. उन्होंने तय किया कि वे भारत जाकर वैसी ही फिल्म बनायेंगे. लेकिन सिनेमा की समझ उतनी नहीं थी.  जुनून इस कदर सवार था कि घर परिवार सबकुछ भूल कर अपनी जमाराशि, इंश्योरेंस सबकुछ गिरवी रख कर सिनेमा सीखने गये. तो, पहले लंदन जाकर वहां फिल्में बनाने का तरीका देखा. सीखा. समझा. फिर भारत लौटे. लेकिन संघर्ष यहां समाप्त नहीं हुई थी. किसी भी काम की पहली नींव रखना कितना मुश्किल था. यह अनुमान था. फाल्के को. लेकिन वे लगे रहे. दोस्त संपाक सेसिल हेपवोर्थ ने थोड़ी मदद की और भारत में आ गया कैमरा. तय किया कि राजा हरिशचंद्र पर ही फिल्म बनायेंगे. लेकिन सिर्फ कैमरे से तो फिल्म बनना संभव नहीं था. पूरी टीम चाहिए थे. लेकिन सिनेमा की पढ़ाई तो केवल फाल्के ने की थी. बाकी लोगों ने तो नहीं. वे तो जानते भी नहीं थे. क्या है सिनेमा. फिर कैसे समझायें. लेकिन फाल्के ने भी हिम्मत नहीं हारी. एक विज्ञापन निकाला. कलाकारों की खोज के लिए. लेकिन मुसीबत खत्म कहां होनेवाली थी. लोग अभिनय का मतलब सिर्फ थियेटर समझते थे. सिनेमा में अभिनय व थियेटर में अभिनय में अंतर भला वे कैसे समझ सकते थे. बमुश्किल थियेटर  के कलाकारों को ही फिल्म के लिए राजी किया. लेकिन उस समय महिलाएं और अभिनय दूर दूर तक ताल्लुक नहीं था. महिलाओं के किरदार भी पुरुष किया करते थे. लेकिन फाल्के की इच्छा थी कि वे महिला से ही अभिनय करायें. उन्होंने खोज जारी रखी. लेकिन नाकामयाब रहे. तो मजबूरन उन्होंने सांलुके नामक पुरुष से रानी तारामती का किरदार निभवाया. लेकिन संघर्ष का साथ अभी छूटा नहीं था. लगातार काम व शोध करने की वजह से फाल्के की आंखें कमजोर हो गयी थीं. अपना घर गिरवी रख कर उन्हें दूसरे छोटे से मकान में जाना पड़ा. लेकिन इन पूरे संघर्ष में उन्हें उनकी पत् नी का साथ मिला. जिन्होंने फाल्के का हौंसला बरकरार रखा. फाल्के अपनी फिल्म में स्वयं ही कला निर्देशक, दृश्यकार, कैमरामैन, संपादक, कॉस्टयूम डिजाइनर, मेकअप आर्टिस्ट, पेंटर और डिस्ट्रीब्यूटर बने. अंतत: पहली फिल्म बनी 3 मई 1913 में फाल्के व पूरे भारत का सपना पूरा हुआ. राजा हरिश्चंद्र भारत की पहली फिल्म बन कर तैयार हुई. लेकिन फाल्के ने अपनी यात्रा यही समाप्त नहीं की. वे लगातार फिल्में बनाते रहे.  लंका दहन, श्री कृष्ण जन्म, कालिया मरदान, सेदु बंधन, गंगावर्तनमोहनी भस्मासुर और सत्यवान   सावित्री का भी निर्माण करते रहे. दरअसल, दादा साहेब फाल्के का योगदान न केवल फिल्मों के जनक के रूप में ही नहीं बल्कि कई पौराणिक व धार्मिक कथाओं जिन्हें आम दर्शक वाकिफ भी नहीं थे. उन्हें सिनेमा के माध्यम से आमजन तक पहुंचाने के लिए याद किया जाता रहेगा. उन्होंने फिल्में बनाने की परंपरा केवल सोच तक सीमित नहीं रखी. उन्होंने तकनीकी रूप से भी इस बात को समझा कि फिल्मों के लिए स्टूडियो की जरूरत होगी. उन्होंने फिल्म स्टूडियो भी स्थापित करने का फैसला लिया. उस वक्त नासिक स्टूडियो  में भवन, पुस्तकालय,चिड़ियाखाना के साथ कलाकारों व तकनीशियनो के लिए विश्रामघर की भी व्यवस्था की थी. उन्होंने खुद एडिटिंग का पूरा सेटअप भी लगवाया. उन दिनों यहां वे रात दिन फिल्मों की शूटिंग करते थे. यह फाल्के की ही पहल का नतीजा था कि धीरे धीरे बुद्धिजीवी,शिक्षित व्यक्ति और आम लोगों ने भी फिल्मों में भविष्य को खोचा. रोजगार के अवसर तलाश्े. फाल्के की सफलता से प्रभावित होकर कई लोग इस इंडस्ट्री का हिस्सा बनने लगे. भले ही सिनेमा में बाद के दौर में कई आविष्कार हुए, आज भी हर दिन नये आविष्कार हो रहे हैं. लेकिन फाल्के ने उस वक्त पहल की, जब सिनेमा को उदासीनता और निंदा की दृष्टि से देखा जाता था. उस वक्त फाल्के ने अपना पूरा जीवन इसे समर्पित कर दिया. लेकिन वक्त की विडंबना रही कि जब धीरे धीरे सिनेमा को आवाज मिली तो उस वक्त फाल्के गूंगे हो गये. मसलन वर्ष 1913 से 1920 तक तो फाल्के ने अपने तरीके की कई प्रयोगात्मक फिल्में बनायी. लेकिन 1920 में बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ. इस नयी तकनीक से फाल्के ने खुद को अपरिचित समझा और उन्होंने फिल्मों के निर्माण से अलविदा कर दिया. वाकई, कैसा रहा होगा वह लम्हा फाल्के के लिए. जिस व्यक्ति ने अपना पूरा जीवन सिनेमा को समर्पित कर दिया. उसी सिनेमा ने आवाज मिलते ही सिनेमा के जनक से ही उसकी आवाज छीन ली. गंगावतरण नामक पहली बोलती फिल्म बनाने का प्रयास फाल्के ने किया. लेकिन वे असफल रहे. संघर्षशील फाल्क के अंतिम दिन नासिक में बीते.
अनुप्रिया अनंत

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