जब हम किसी कला प्रदर्शनी में जाते हैं तो वहां स्थित पेंटिंग की खूबसूरती और उसे रचनेवाले चित्रकार की तारीफों के पूल बांधते हैं. लेकिन शायद ही हम में से किसी ने भी कभी यह कल्पना भी की होगी कि चित्रकार जिन पेंटिंग को किसी प्रदर्शनी का हिस्सा बनाता है. दरअसल, वह कई बुरी पेंटिंग के बाद बार बार अभ्यास के बाद उभर कर सामने आती है. लेकिन उस बुरी पेंटिंग को जिसे कागज का टुकड़ा समझ कर बार बार चित्रकार फेंक देते हैं. उनमें भी जान होती होगी. वे भी सोचते होंगे कि आखिर उनका क्या दोष है. जो उन्हें यूं अधूरा या बुरा कह कर हटा दिया गया. ये सारी बातें वाकई किसी काल्पनिक दुनिया की सैर कराती हैं. लेकिन इसी काल्पनिक दुनिया से बिल्कुल अलग एक दुनिया की कल्पना करना और फिर उसे एक फिल्म का रूप देना अदभुत है.इस बार मामी फिल्मोत्सव में शामिल हुई फिल्म द पेंटिंग हर तरह से एक अदभुत और अनोखी फिल्म थी. यह एक ऐनिमेशन फिल्म है. लेकिन इस फिल्म के सारे किरदार एक पेंटिंग के किरदार हैं, जो अपने चित्रकार की खोज में निकले हैं कि आखिर उन्होंने उन्हें क्यों अधूरा छोड़ दिया. अंत में जब पेंटिंग से ही निकली एक किरदार चित्रकार से मिलती है और फिर एक खोज पर निकलती है. चित्रकार उससे पूछता है कि अब तुम कहां जा रही हो तो वह बताती है कि अब वह यह तलाशने जा रही है कि आखिर इस चित्रकार को किसने बनाया. जिस तरह किसी लेखक के शब्द अगर प्रभावशाली हो तो उन्हें भी आवाज आ जाती है. ठीक इसी तरह इस फिल्म में दर्शाने की कोशिश की गयी है, जब एक चित्रकार किसी भी पेंटिंग की परिकल्पना कर अपनी कूची से किसी कैनवॉस पर किसी भी रंग से कुछ भी रचने की कोशिश करता है. उसी वक्त वे जीवंत हो जाते हैं. उनमें जान आ जाती है. वाकई फ्रेंच के निर्देशक जीन फ्रांसिस ने इस फिल्म के विषय से ही साबित कर दिया है कि सोच को व्यक्ति चाहे तो किसी भी सीमा तक ले जा सकता है. हिंदी फिल्मों में शायद ही एनिमेशन फिल्में बनाते वक्त निर्देशक इस तरह के थीम सोच पायें. हिंदी सिनेमा के निर्देशकों को ऐसी फिल्मों से सीख लेनी चाहिए. ये फिल्में अपने थीम में ही इतनी प्रबल होती है कि दर्शक ऐसी फिल्में देख कर वाहवाही ही देते हैं. वाकई, यह हकीकत है कि अच्छी फिल्म का प्रभाव दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी व्यक्ति पर हो सकता है. द पेंटिंग जैसी फिल्में प्रेरणा है. निर्देशकों के लिए. उनकी कल्पना की सोच के लिए. ऐसी फिल्में नयी सोच और नयी दिशा दिखाती है.
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20121106
पेंटिंग से निकले बोलते किरदार
जब हम किसी कला प्रदर्शनी में जाते हैं तो वहां स्थित पेंटिंग की खूबसूरती और उसे रचनेवाले चित्रकार की तारीफों के पूल बांधते हैं. लेकिन शायद ही हम में से किसी ने भी कभी यह कल्पना भी की होगी कि चित्रकार जिन पेंटिंग को किसी प्रदर्शनी का हिस्सा बनाता है. दरअसल, वह कई बुरी पेंटिंग के बाद बार बार अभ्यास के बाद उभर कर सामने आती है. लेकिन उस बुरी पेंटिंग को जिसे कागज का टुकड़ा समझ कर बार बार चित्रकार फेंक देते हैं. उनमें भी जान होती होगी. वे भी सोचते होंगे कि आखिर उनका क्या दोष है. जो उन्हें यूं अधूरा या बुरा कह कर हटा दिया गया. ये सारी बातें वाकई किसी काल्पनिक दुनिया की सैर कराती हैं. लेकिन इसी काल्पनिक दुनिया से बिल्कुल अलग एक दुनिया की कल्पना करना और फिर उसे एक फिल्म का रूप देना अदभुत है.इस बार मामी फिल्मोत्सव में शामिल हुई फिल्म द पेंटिंग हर तरह से एक अदभुत और अनोखी फिल्म थी. यह एक ऐनिमेशन फिल्म है. लेकिन इस फिल्म के सारे किरदार एक पेंटिंग के किरदार हैं, जो अपने चित्रकार की खोज में निकले हैं कि आखिर उन्होंने उन्हें क्यों अधूरा छोड़ दिया. अंत में जब पेंटिंग से ही निकली एक किरदार चित्रकार से मिलती है और फिर एक खोज पर निकलती है. चित्रकार उससे पूछता है कि अब तुम कहां जा रही हो तो वह बताती है कि अब वह यह तलाशने जा रही है कि आखिर इस चित्रकार को किसने बनाया. जिस तरह किसी लेखक के शब्द अगर प्रभावशाली हो तो उन्हें भी आवाज आ जाती है. ठीक इसी तरह इस फिल्म में दर्शाने की कोशिश की गयी है, जब एक चित्रकार किसी भी पेंटिंग की परिकल्पना कर अपनी कूची से किसी कैनवॉस पर किसी भी रंग से कुछ भी रचने की कोशिश करता है. उसी वक्त वे जीवंत हो जाते हैं. उनमें जान आ जाती है. वाकई फ्रेंच के निर्देशक जीन फ्रांसिस ने इस फिल्म के विषय से ही साबित कर दिया है कि सोच को व्यक्ति चाहे तो किसी भी सीमा तक ले जा सकता है. हिंदी फिल्मों में शायद ही एनिमेशन फिल्में बनाते वक्त निर्देशक इस तरह के थीम सोच पायें. हिंदी सिनेमा के निर्देशकों को ऐसी फिल्मों से सीख लेनी चाहिए. ये फिल्में अपने थीम में ही इतनी प्रबल होती है कि दर्शक ऐसी फिल्में देख कर वाहवाही ही देते हैं. वाकई, यह हकीकत है कि अच्छी फिल्म का प्रभाव दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी व्यक्ति पर हो सकता है. द पेंटिंग जैसी फिल्में प्रेरणा है. निर्देशकों के लिए. उनकी कल्पना की सोच के लिए. ऐसी फिल्में नयी सोच और नयी दिशा दिखाती है.
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