परेश मोकाशी द्वारा निर्देशित फिल्म हरिश्चंद्राची फैक्टरी के किरदार फाल्के अपने दोस्तों के साथ बैठ कर चाय पी रहे होते हैं. इसी दौरान वे बार-बार कप के हैंडल से अपने दोस्त को देखने की कोशिश कर रहे हैं. उनके दोस्त उनकी इस हरकत को देख कर दंग हैं. वे फाल्के को कुछ नशीली दवाई देकर बेहोश करके ठाणे के पागलखाने में ले जाते हैं. उन्हें लगता है कि फाल्के पागल हो गया है, क्योंकि वह अजीबोगरीब हरकत कर रहा है. फाल्के वहां से जान बचा कर भागते हैं और फिर अपने दोस्तों से पूछते हैं तो उनके दोस्त सफाई देते हैं कि इन दिनों फाल्के को कोई भी देखेगा तो यही कहेगा कि वह पागल है. ऐसे में जब फाल्के कहते हैं कि वह फिल्म बनाना चाहते हैं. वह पागल नहीं हैं तो उनके दोस्त उन्हें दुहाई देते हैं कि किस तरह वह स्टिल फोटोग्राफी के कारोबार को डुबा चुके हैं. लेकिन फाल्के पर इसका कोई असर नहीं होता. दरअसल, अगर वाकई फाल्के उस दिन दोस्तों की बात मान लेते और उन पर पागलपंथी सवार नहीं होती तो शायद भारतीय सिनेमा जगत 100 वें साल का जश्न नहीं मना रहा होता. यह एक संयोग ही है कि 30 अप्रैल 1870 के दिन ही इस जुनूनी द्रष्टा ने इस दुनिया में कदम रखा था. 3 मई 1913 को ही पहली बार दादा साहेब फाल्के ने फिल्म राजा हरिश्चंद्र रिलीज हुई थी. हरिश्चंद्राची फैक्टरी में हीं एक दृश्य है, जिसमें फाल्के गमले में एक मटर डालते हैं और फिर जैसे जैसे वह बढ.ता है. उसे शूट करते हैं और फिर एक साथ जोड़ कर जब फिल्म तैयार करते हैं तो ऐसा लगता है कि धीरे-धीरे बीज से पौधा तैयार हुआ. दरअसल, वह बीज भारतीय सिनेमा का बीज था, जिसे फाल्के ने डाला और आज वह पौधे से पेड़ बन कर कई लोगों को छांव दे रहा है. अब तक जितनी भी बायोपिक फिल्में बनी हैं. उनमें परेश मोकाशी की हरिश्चंद्राची फैक्टरी सबसे अहम है. फिल्म देखें तो महसूस करेंगे कि आपके आसपास कहीं किसी विजन की खोज में फाल्के कहीं आसपास ही हैं. दरअसल, यह पूरी फिल्म ही एक महत्वपूर्ण इंस्टीट्यूशन है, उनके लिए जो फिल्में बनाना चाहते हैं. इसे देख लें. वे समझ जायेंगे कि फिल्में बनती कैसी हैं. क्योंकि भले ही 100 सालों में सिनेमा में कई बदलाव आ गये हैं. लेकिन मौलिकता आज भी वही है कि जुनून, धैर्य, विजन, पागलपन और टीम वर्क से बनती हैं फिल्में. यह फाल्के का जुनून ही था, जो उन्होंने अपनी आंखों की फिक्र नहीं की. बेटे को चोट लगी तो वह मूर्छित अवस्था में प.डे बेटे के शॉट ले रहे थे. दरअसल, आज भी उस हर फिल्ममेकर में फाल्के जिंदा हैं, जो जुनूनी हैं. पागल हैं
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