दिबाकर बनर्जी जब अपनी फिल्म ‘खोंसला का घोंसला’ लेकर आये थे, तो इस फिल्म ने बनने में जितना वक्त लिया, उससे कहीं अधिक वक्त व संघर्ष उन्होंने फिल्म को रिलीज कराने के लिए किया. जब फिल्म रिलीज हुई थी, तो सभी चकित थे. क्योंकि दिबाकर ने एक ऐसे विषय पर फिल्म बनायी थी, जिसके बारे में लोगों ने सोचा भी नहीं था. आम आदमी की सामान्य सी समस्या को उन्होंने फिल्म पर जीवंत रूप से दर्शाया और अपनी पहली फिल्म से ही उन्होंने साबित कर दिया कि वे बिल्कुल मौलिक सोच के साथ नवीन विषयों पर फिल्में बनानेवाले निर्देशक हैं. दिबाकर दरअसल, उन निर्देशकों में से एक हैं, जिन्होंने हमारे ही बीच की कहानियों को, किरदारों को दिलचस्प तरीके से दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया है. वे अपनी फिल्मों से बौद्धिक होने का दावा नहीं करते, लेकिन फिर भी वह आकर्षित करते हैं. उनके निर्देशन शैली की यह खासियत है कि उन्होंने अब तक केवल चार फिल्मों का निर्माण किया है और चारों ही फिल्में किसी भी दृष्टिकोण से एक दूसरे से नहीं टकराती. गौर करें तो उन्होंने अपनी हर फिल्मों में दो साल का अंतराल रखा है. इन दो सालों में वे बिल्कुल नये तेवर, नये सरप्राइज पैकेज के साथ दर्शकों के सामने आ जाते हैं. ‘खोंसला का घोंसला’ 2006 में आयी, ‘ओये लकी..’2008, ‘एलएडी’ 2010 में और 2012 में आ रही है ‘संघई’. ‘खोंसला..’ में उन्होंने आम आदमी की एक ऐसी समस्या को दर्शाया जिससे वाकई हर व्यक्ति कई बार जूझता है. ‘ओय लकी..’ में अजीबोगरीब बंटी चोर की दास्तां ही गढ. दी तो ‘एलएसडी’ में उन्होंने खूफिया कैमरे के फायदे, नुकसान के साथ कई कहानियां ही कह दी. ‘एलएसडी’ प्रयोगात्मक सिनेमा के रूप में एक महत्वपूर्ण फिल्म है, जिसे फिल्म मेकिंग के छात्रों को जरूर देखनी चाहिए. जल्द ही उनकी फिल्म ‘संघई’ रिलीज हो रही है. जिसमें उन्होंने इमरान हाशमी के किरदार को गढ. कर सबको चौंका दिया है. दिबाकर अखबार व किताबें पढ.ते रहते हैं. यही वजह है कि वे छोटी खबरों पर भी नजर रखते हैं और उन्हें उसी में अपनी एक कहानी मिल जाती है. हो सकता है कि जब मुंबई को संघई बनाने की कवायद चल रही थी, तभी दिबाकर के मन में यह ख्याल आ गया हो और उन्होंने इसकी तैयारी कर ली होगी. ‘संघई’ के प्रोमोज आकर्षित कर रहे हैं. दिबाकर फिर कुछ सरप्राइज लेकर आयेंगे और फिर अपना हस्ताक्षर छोड़ जायेंगे. ऐसे ही निर्देशक हैं, जो खुद फार्मूला निर्देशक नहीं बनते, बल्कि लोग उनके बनायी गयी चीजों को फार्मूला मानते हैं. वे युवा लीडर फिल्मकारों में से एक हैं.
प्रतिभा उम्र या दर्जे का मोहताज़ नहीं होता .एक अवसर मिलाना चाहिए पौधा विशाल वृक्ष बनाते देर नहीं लगता .हाँ भाग्य और अच्छे मित्रों का साथ .........ज्यादा कुछ नहीं .शानदार कहूँ या जानदार
ReplyDeleteअच्छा लिखा है अनुप्रिया। दिबाकर की विशिष्ठता को रेखांकित किया जाना ज़रूरी है। उनकी फ़िल्में हमारे समाज का वो आईना हैं जिसमें हम आज भी अपनी शक्ल देखने से बिदकते हैं।
ReplyDelete