3 मई 1913 में दादा साहेब फाल्के का एक सपना पूरा हुआ. इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने कई सालों तक जद्दोजहद किया. उन्हें कामयाबी इसलिए मिली, क्योंकि उन्होंने दुनियावालों की फिक्र करने की बजाय अपने दिल की सुनी और पहल की. भारतीय सिनेमा यह क्रांति ही थी. इस क्रांति के 99वर्ष पूरे हो चुके हैं और यह 100वें साल में गौरवान्वित रूप से अपने कदम रख रहा है. दादा साहेब फाल्के की यह क्रांति अतुलनीय है. लेकिन ऐसा नहीं था कि जिस क्रांति को दादा साहेब फाल्के ने शुरू किया था. वह आगे चल कर थम गयी. अगर ऐसा होता तो हिंदी सिनेमा जगत विस्तृत नहीं हो पाती. भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान नहीं मिलती. चूंकि कोई भी क्रांति भले ही वर्तमान में की जा रही हो, लेकिन उसका असर भविष्य तक कायम रहना चाहिए. भारतीय सिनेमा ने भी हर बार नयी क्रांति को जन्म दिया. यहां नित नये प्रयोग हुए. बने बनाये ढांचे को तोड़ा गया. अगर आलम आरा के रूप में बोलती फिल्मों की शुरुआत न होती तो शायद आज भी हम मूक फिल्में ही देख रहे होते. फिल्म में संगीत न जुड़ता तो कई लोग रोजगार से वंचित रह जाते. स्वर कोकिला लता मंगेशकर अगर गायकों की हक की बात न करतीं तो कभी भी फिल्मी पोस्टरों पर गायक -गायिकाओं का नाम अंकित न होता. जावेद अख्तर अगर खामोशी से केवल कलम चला रहे होते तो शायद आज भी पटकथा लेखकों को वह इज्जत नहीं मिलती और न ही फिल्मी पोस्टरों पर उनका नाम मिलता. नीचा नगर भारत की पहली फिल्म न होती, जिसे कान में शामिल किया गया. अनुराग कश्यप, दिबाकर बनर्जी, इम्तियाज अली जैसे मुंबई से बाहर के लोगों को इस इंडस्ट्री में जगह ही नहीं मिल पाती. भारतीय सिनेमा 3 डी फिल्में न बना रहा होता. पान सिंह तोमर जैसी फिल्में आम लोगों तक नहीं पहुंच पाती. सच तो यह है कि हिंदी सिनेमा जगत पर कभी किसी का एकाधिकार नहीं रहा. इन 100 सालों में हिंदी सिनेमा में कई क्रांतियां होती रहीं. फिर चाहे वह अपने अधिकार की लड़ाई के रूप में हो या फिर सिनेमा के विषय को लेकर. अगर एकाधिकार रहा होता तो हमें हर दौर में नये सुपरस्टार नहीं मिलते. नयी प्रतिभाओं को कभी मौका नहीं मिलता. केवल चुनिंदा निर्देशकों व फिल्मी खानदान ही फलते फुलते. आज हिंदी सिनेमा देश का सिनेमा है. कोई भी व्यक्ति आकर अपनी पहचान बना सकता है. यह सब संभव हर बार किसी न किसी क्रांति से ही संभव हो पाया. इस क्रांति ने 100वां पड़ाव पार कर लिया है. लेकिन इसकी लौ अभी भी बरकरार है और उसका तेज भी. |
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20120508
एक क्रांति का 100वा पढ़ाव
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