बिमल रॉय की फिल्म ‘बंदिनी’ में कल्याणी (नूतन), विकास कुमार ( अशोक कुमार) से बेहद प्यार करती है, लेकिन विकास उसे धोखा देता है. इसके बावजूद फिल्म के अंत में वह जाकर विकास के ही चरणों में गिर जाती है. मेरा पति परमेश्वर की तर्ज पर वह विकास कुमार के साथ आगे का सफर पूरा करती है. वह उस देवेन को भी भूल जाती है, जो उस वक्त उसके सहारा बनते हैं, जब उसके पास कोई नहीं होता. इसके बावजूद विकास के तमाम बेवफाई के वह विकास का ही साथ चुनती है. बिमल रॉय की यह फिल्म 1963 में रिलीज हुई थी. यानी आज से 49 वर्ष पूर्व. उस दौर में भारतीय समाज का परिवेश उसका ढांचा बिल्कुल अलग था. उस वक्त महिलाएं शायद उसी सोच के साथ आगे बढ.ती थीं, जिनके लिए उनके पति में ही उनकी दुनिया बसती है. उसी के मद्देनजर फिल्मों में महिलाओं की भूमिकाएं गढ.ी जाती थीं. इन 49 सालों में इस सोच में बड़ी तब्दील आ चुकी है. अब प्यार की परिभाषा भी बदल चुकी है और इसे जताने-निभाने का तरीका भी. अब अभिनेत्रियों को बंदिनी बनना नहीं बल्कि बंदूकधारिणी बनना गंवारा है. हाल ही में रिलीज हुई फिल्म ‘इशकजादे’ में जोया के रूप में परिणिति के किरदार को कुछ ऐसा ही बेखौफ दिखाया गया है. अपने पति से मिले धोखे से वह भी टूटती है. आह भरती है. लेकिन वह आह भर कर शांत नहीं हो जाती, बल्कि आह के साथ वह बंदूक में गोलियां भरती है और अपने धोखे का बदला लेने के लिए निकल पड़ती है. वह सिसकने की बजाय अपने प्रेमी से पति बने परमा की गर्दन पर बंदूक तान देती है. इससे साफ जाहिर होता है कि वर्तमान दौर की महिलाएं आंसू बहा कर चुपचाप अपनी जिंदगी व्यतीत नहीं कर सकतीं. फिल्म ‘अर्थ’ में शबाना आजिमी अपने पति की बेवफाई को चुपचाप सह लेती है, लेकिन वहीं फिल्म ‘इश्किया’ में अपने पति के सच को जानने के लिए, अपना बदला पूरा करने के लिए साजिश तक रच जाती है और अंतत: अपने पति को मारने में भी वह नहीं हिचकती. हाल ही में रिलीज हुई हेट स्टोरी की महिला किरदार अपने बदले के खिलाफ एक अलग ही रुख इख्तियार कर लेती है. दरअसल, हकीकत यह है कि वर्तमान में महिलाएं अब बेबस, लाचार कहलाने की बजाय पुरुषों को सबक सिखाने में विश्वास रखती है. पुरुष प्रधान समाज में वाकई ऐसे निर्देशक जो महिलाओं की इतनी सशक्त भूमिकाएं गढ. रहे हैं वह काबिल-ए-तारीफ हैं.
No comments:
Post a Comment