20151219

फिल्म : बाजीराव मस्तानी


कलाकार : रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण, प्रियंका चोपड़ा
निर्देशक : संजय लीला भंसाली
रेटिंग : 3 स्टार

संजय लीला भंसाली की फिल्मों की अपनी परिभाषा होती है. उनकी फिल्म में आप पूर्ण रूप से उनकी दुनिया में होते हैं. संजय लीला भंसाली की फिल्में किसी चित्रकार की दुनिया सी ही होती है, जो एकांत में दुनिया से बेफिक्र और गुमशुदा होकर बस एक नयी सोच को आकार दे रहा होता है. जिसकी चित्रकारी में आपको पूरी दुनिया नजर आयेगी.लेकिन उस कल्पना में कोई और शामिल नहीं होता. कुछ इसी रूप में भंसाली ने बाजीराव मस्तानी को भी गढ़ा है. भंसाली की यह खासियत है कि वह खुद को किसी भी स्तर पर सीमित नहीं करते. वे दर्शकों को विजुअल एक्सपीरियंस दिलाने में पूरी जद्दोजहद करते हैं. उनके किरदार आंखों की बोली भी बोलते हैं और जब जुबां की भाषा बोलते हैं, तब भी उनमें एक लय अवश्य होता है. भंसाली दिखाते तो प्रेम कहानियां हैं. लेकिन वे बिखरी या बेतरतीब नहीं होती अपनी भाषा में, अपने हाव भाव में. भंसाली की एक और प्रेम गाथा है बाजीराव मस्तानी.बाजीराव ने मस्तानी से मोहब्बत की है अय्याशी नहीं...इस संवाद से संजय ने फिल्म का उद्देश्य दर्शकों के सामने स्पष्ट कर दिया है. और इसे ही उन्होंने बड़े लैंडस्केप पर दर्शाया भी है. बाजीराव शस्त्र और शास्त्र में दक्ष थे. यह इतिहास बताता है. लेकिन संजय लीला ने बाजीराव की शास्त्र कला के साथ अहमियत उनकी प्रेम कहानी को दिया है. यह प्रेम कहानी बाजीराव और मस्तानी के बीच है. प्रेम कहानियां भंसाली की फैंटेसी रही है. हम दिल दे चुके सनम, देवदास, रामलीला के बाद यह प्रेम कहानी भी अलग दुनिया में लेकर जाती है. जहां, उस दौर में पेशवा के राज शास्त्र की परिस्थिति. एक योद्धा की सोच, उसकी शौर्य कुशलता से हम रूबरू होते हैं. लेकिन उस योद्धा के एक दूसरे पहलू को दर्शकों के सामने लाते हंै. फिल्म की कहानी में कई परतें हैं, जो एक एक कर दर्शकों के सामने आती जाती हैं तो दर्शक चौंकते हैं. फिल्म क ेपहले दृश्य में ही रणवीर सिंह बाजीराव के रूप में जब एंट्री करते हैं तो वे स्थापित कर देते हैं कि वे अपने अभिनय से मोहित करेंगे. उन्होंने पेशवा की कदकाठी, चाल ढाल अपनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. अपनी संवाद अदायगी में संजय लीला भंसाली ने जो तुगबंदी की है. वह संवाद लेखकों के लिए एक लर्निंग मेटेरियल है. संवाद लेखनी के लिए कम शब्दों में अपनी बात को स्थापित करते हुए लय में रहने की कहानी संजय से सीखनी चाहिए. संजय इस लिहाज से भी पूरी फिल्म की जिम्मेदारी शायद खुद पर रखते हंैं क्योंकि वे जानते हैं कि  ऐसी फिल्मों में कई लोगों के विजन पर चलने से उन्हें परेशानी हो सकती है. सो, वे अपनी कूची से निकले रंगों से हुए सृजन की पूरी जिम्मेदारी खुद ही संभालते हैं. यही वजह है कि भंसाली का विजन हमें उ्यकी फिल्मों में साफ नजर आता है. वे फिल्मों के भव्य सेट, भव्य कॉस्टयूम, को रॉयल तरीके से दर्शाने में गुरेज नहीं करते हैं. बाजीराव के साथ भी इन सारे पहलुओं में उनकी शिद्दत नजर आती है. कहानी पुणे के पेशवा बाजीराव की है, जो योद्धा है और उसे कभी हारना नहीं आया. उनकी पत् नी हैं काशीबाई, जिनसे वे बेइतहां प्यार भी करते हैं. लेकिन इसी बीच उनकी दुनिया में मस्तानी आती हैं और उनकी दुनिया बदल जाती है. मस्तानी बुंदलेखंड के राजा की नाजायज औलाद है, और वह राव के धर्म की नहीं है. बाजीराव मस्तानी को दिल दे बैठते हैं. और वे इस इश्क का नाम देते हैं. अय्याशी का नहीं. वे मस्तानी को मराठा खानदान में नाम व पत् नी का दर्जा दिलाना चाहते हैं. लेकिन उन्हें अपने परिवार व प्रजा का साथ नहीं मिलता. अंतिम दृश्यों में रणवीर सिंह को बाजीराव के रूप में एक नदी में अंर्तरात्मा से लड़ते दिखाया गया है. हकीकत यह है कि यह किरदार निभाने में उन्होंने वाकई सारी सीमाओं को पार कर, सारे बंधनों को तोड़ कर नईया ही पार की है. लेकिन बेहतर होता अगर भंसाली अपनी पिछली फिल्मों के स्पर्श  से पूरी तरह से इस फिल्म को बाहर निकाल पाते. लेकिन वह संभव नहीं हो सका है. फिल्म के संवादों, दृश्यों में रामलीला और देवदास की झलक बहुत हद तक नजर आयी है. फिल्म इतिहास के एक महत्वपूर्ण शख्सियत के नाम पर आधारित है. सो, जाहिर है विशेषज्ञों की नजर पूरी तरह से इस बात पर होगी कि उन्होंने हकीकत से कितना न्याय किया है. चूंकि यह फिल्म है. सो, उन्होंने सिनेमेटिक लीबर्टी का भरपूर इस्तेमाल किया है. निस्संदेह रणवीर सिंह के लिए एक कलाकार के रूप में यह बड़ी चुनौती है. उन्होंने उसे बखूबी निभाया भी है. लेकिन कुछ दृश्यों में उनका अति उत्साह रास नहीं आता. देवदास के देव की छाप उनके किरदार में झलकने लगती है. भंसाली ने अपनी खुशी के लिए ही प्रियंका और दीपिका के बीच गाना फिल्माया है. ऐसा महसूस होता है. चूंकि इसके पहलेऔर बाद के दृश्यों में स्पष्ट है कि काशीबाई को मस्तानी पसंद नहीं. लेकिन इसके बावजूद वह फिल्म में झूम झूम कर नाचती दिखाई देती हैं. यह तर्कसंगत नजर नहीं आया है. दीपिका पादुकोण अपनी अदाकारी में दक्ष हो गयी हैं. वे हर फिल्म में खुद को निर्देशक की चाहत के अनुसार ढाल लेती हैं. इस फिल्म में भी उन्होंने मस्तानी का वह ग्रेस बरकरार रखा है. फिल्म में चौंकाती हैं प्रियंका चोपड़ा. फिल्म के ट्रेलर या फिल्म के नाम से भी इस बात का अनुमान लगा पाना कठिन था कि प्रियंका फिल्म में इतने बेहतरीन किरदार में हैं. उन्होंने मराठी भाषा, किरदार, वेशभूषा, बॉडी लैंग्वेज को जिस तरह से अपनाया है. अनुमान लगा पाना कठिन है कि वह प्रियंका हैं. फिल्म बर्फी में झिलमिल जैसे किरदार निभाने के बाद एक बार प्रियंका ने सीमित दृश्यों में अपनी उपस्थिति से चौंका दिया है. भंसाली की कूची से निकली बाजीराव मस्तानी भी एक और अमर गाथा है. भंसाली से उम्मीदें और अधिक थीं. अगर वे वाकई अपनी पिछली फिल्मों के स्पर्श से मुक्त होते तो यह फिल्म क्लासिक फिल्म साबित हो सकती थी. फिल्म में कुछ गाने तर्क्रसंगत नहीं लगे हैं. मगर फिल्म एक बार अवश्य देखी जानी चाहिए. लेकिन दिमाग में इन बातों को भी स्पष्ट रख कर कि भविष्य में अगर बाजीराव और मस्तानी के बारे में जानकारी हासिल करनी हो तो इस फिल्म को पूरी तरह आधार न माना जाये. इसे सिनेमेटिक एक्सपीरियंस के रूप में ही देखा जाये. किसी दस्तावेज के रूप में नहीं. वरना, इतिहास के साथ यह छल होगा. शेष साल के अंत होते होते दर्शकों के लिए यह विजुअल ट्रीट तो है ही. 

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