हाल ही में सेंसर बोर्ड ने यह निर्देश जारी किया है कि अब किसी भी फिल्म में आयटम नंबर को दिखाने की अनुमति तभी दी जायेगी, जब फिल्मों की तरह उन्हें भी सर्टिफाइ किया जायेगा. हाल ही में इसकी शुरुआत फिल्म शूटआउट एट वडाला के बबली बदमाश गीत को ए सर्टिफिकेट दिया गया है और तय किया गया है कि इस गाने का प्रसारण फिल्म के सेटेलाइट टेलीविजन के दौरान नहीं किया जायेगा. मुंबई में आयोजित फिक्की फ्रेम्स कार्यक्रम में इसी मुद्दे को लेकर हिंदी सिने जगत की महत्वपूर्ण हस्तियों में बहस हुई.
हिंदी फिल्मों व टेलीविजन में महिलाओं के इमेज को गलत तरीके से प्रस्तुत करने के मुद्दे को लेकर लगातार हिंदी सिने के कुछ सेलिब्रिटिज एक्सपर्ट के बीच बहस होती रही है. कई लोगों ने इस पर आवाज भी उठायी है. विशेष कर आयटम सांग के मुद्दे को लेकर व आयटम सांग में इस्तेमाल किये जा रहे शब्दों व महिलाओं को गलत तरीके से प्रस्तुत करने के मुद्दे पर भी बात होती रही है. इस मुद्दे पर हाल ही में मुंबई में आयोजित फिक्की फ्रेम्स कार्यक्रम में विशेष रूप से बातचीत हुई. बातचीत का अहम मुद्दा था: हिंदी सिनेमा में महिलाओं की उपस्थिति, महिलाओं का चित्रण व आयटम नंबर में महिलाओं का चित्रण. इस खास विषय पर चर्चा के लिए मुख्य रूप से शामिल हुईंंं जानी मानी अभिनेत्री शबाना आजिमी, निर्देशिका गुरविंदर चड्डा, टीवी पर्सनैलिटी वंदना मल्लिक, पत्रकार सोनाली सिंह व निर्देशक सुधीर मिश्रा
चर्चा में कुछ विशेष प्रश्न जिन पर खुलकर बातचीत की गयी.
सवाल : क्या हिंदी सिनेमा व टीवी में महिलाओं की स्थिति पहले से बदली है या सुधरी है?
शबाना आजिमी : मैं मानती हूं कि चीजें बदली हैं. लेकिन अब भी स्थिति पूरी तरह महिलाओं के पक्ष में नहीं हैं. अब भी जेंडर बायसनेस है और यह तब तक नहीं बदल सकती, जब तक खुद हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री की महिलाएं खुद को कम तर आंकने से पीछे नहीं हटतीं. वर्तमान में जरूरत नहीं अभिनेत्रियों को कि वे सुपरस्टार के साथ किसी भी फिल्म में सेकेंडरी अभिनेत्री बन कर खुद को खुशनसीब मानें. और न ही इस बात की जरूरत है कि वे किसी भी तरह अपने मेहनताना में समझौता करे. खुद अभिनेत्रियों को अपनी आवाज बनना होगा. मेरा तो मानना है कि हिंदी सिने जगत के महत्वपूर्ण स्टार आमिर खान, शाहरुख खान और सलमान खान को यह पहल करनी चाहिए कि वे महिला प्रधान फिल्मों में काम करें. कभी अभिनेत्रियों की फिल्मों में वे सेकेंडरी किरदार निभायें, क्योंकि वे सुपरस्टार हैं. अगर वे ऐसा करेंगे तो बाकी के स्टार्स भी करेंगे और अभिनेत्रियों को पहचान मिलेगी. मैं विद्या बालन की फैन इसलिए हूं कि उन्होंने खुद को साबित किया. खुद को दर्शाया कि उन्हें पुरुष कलाकार या स्टार्स की जरूरत नहीं है. ऐसी विद्या बालन की इंडस्ट्री को और ज्यादा जरूरत है
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वंदना मलिक : मैं मानती हूं कि टेलीविजन की दुनिया में महिलाओं का स्वरूप बदला है. वे अब ज्यादा ताकतवर हुई हैं. वे बिना किसी हिचक के महत्वपूर्ण निर्णय लेती हैं और टेलीविजन आज भी महिला प्रधान ही है. हां, मगर जहां तक बात मेहनताना की है तो यह सच है कि सिर्फ फिल्मों में नहीं, टेलीविजन में भी अभिनेत्रियों को अभिनेताओं से कमतर आंक उन्हें कम मेहनताना दिया जाता है और साफतौर पर यही जेंडर बायसनेस नजर आता है.
गुरविंदर चड्डा : मैं जिस माहौल में पली बढ़ी हूं. वहां मैंने कभी जेंडर बायसनेस नहीं देखा है. लेकिन इसके बावजूद मैं मानती हूं कि ज्यादातर जगह जेंडर बायसनेस है. हमारी फिल्म इंडस्ट्री में अधिक है. आज भी यहां लोग मानते हैं कि महिलाएं बहुत उल्लेखनीय या बौद्धिक काम नहीं कर सकती. उन्हें खुद को बार बार प्रूफ करना पड़ता है. साथ ही मुझे इस बात से भी आपत्ति है कि क्यों माना जाता है कि महिला निर्देशिका सिर्फ महिला विषयों पर ही फिल्में बना सकती है. मैं जोया अख्तर जैसी निर्देशिकाओं की दाद दूंगी, जिन्होंने अपनी फिल्मों में महिलाओं की बेबसी नहीं दिखायी.
सुधीर मिश्रा : मैं तो इस बात के सख्त खिलाफ हूं कि महिला या पुरुष दो अलग अलग जाति के लोग हैं. मैंने शुरुआती दौर से ही दोनों को एक माना है. खुद मेरे परिवार में महत्वपूर्ण निर्णय मेरी मां लिया करती थी और मैं तो पुरुष निर्देशक होकर भी महिला केंद्रित फिल्मों को न सिर्फ अहमियत देता हूं, बल्कि मेरी अधिकतर दोस्त भी महिलाएं भी हैं तो मैं इस बात को नहीं मानता कि स्थिति बदली नहीं है. हां, लेकिन अब भी महिलाओं को खुद को साबित करने के लिए कई चीजों से गुजरना पड़ता है. वह अग्नि परीक्षा आज भी जारी है. जो कि सरासर गलत है.
सोनाली सिंह : मैं खुद एक पत्रकार हूं और प्राय: लोगों की ऐसी सोच होती है कि महिला है तो महिलाओं से जुड़े मुद्दे ही दिये जायें. जबकि मैं साफतौर पर मानती हूं कि क्या मैं महिला हूं तो मुझमें राजनीति की समझ नहीं होगी. या फिर मुझमें राजनीति से जुड़े मुद्दों की समझ नहीं. जबकि मैं भी हर तरह के मुद्दों पर अच्छी समझ रखती हूं.
सवाल : क्या आयटम नंबर पर जारी किये गये सेंसर बोर्ड के निर्देश उचित हैं?
शबाना आजिमी : मैं मानती हूं कि किसी चीज पर बैन करना किसी बात का सॉल्यूशन नहीं. मेरा मानना है कि वाकई आयटम नंबर में दिखाई जा रही चीजें आपत्तिजनक है. आप किसी गाने में ऐसी चीज दिखा रहे हैं, जिससे सीधे तौर पर एक महिला का मजाक उड़ाया जा रहा है. मैं बस यह कहना चाहती हूं कि किसी भी आयटम नंबर में इस्तेमाल किये जा रहे शब्दों पर सोचना जरूरी है. जिस तरह के मूव्स इन दिनों फिल्मों के गीतों में दिखाये जा रहे हैं. आप खुद सोचें कि उन गानों पर आपकी घर की ही बेटियां डांस करती हैं. और वह कहती हैं कि चिपकाले भईया सीने से और मैं हूं तंदूरी कबाब तो फिर इसका क्या असर होता होगा. मुझे आयटम नंबर से नहीं, उसके प्रस्तुतीकरण से प्रॉब्लम है. कट्रीना कैफ, करीना कपूर सभी ऐसी अभिनेत्रियां हैं जो आम लड़कियों की मॉडल हैं. वे जब उनसे यह सब सीखती हैं तो उन्हें लगता है कि इसमें कुछ भी गलत नहीं. बस मुझे इस बात पर आपत्ति है कि जिस तरह के कपड़े पहनाये जा रहे हैं और महिला को जिस तरह सेक्स सिंबल के रूप में दर्शाया जा रहा है. वह सरासर गलत है और मैं अपील करना चाहंूगी हिंदी सिनेमा के सुपरस्टार्स से कि वे अपनी फिल्मों में ऐसे गानों का इस्तेमाल न करें.
गुरविंदर चड्डा : हम भले ही यह मान कर बैठे हों कि हमारी फिल्में आयटम नंबर से चलती हैं. जबकि भारत के बाहर यह सोच है कि वे सारी फिल्में जिनमें आयटम नंबर है. वह अच्छी नहीं होती. हाल ही में मैंने अपने इंग्लैंड के कुछ दोस्तों को एक हिंदी फिल्म दिखायी. सबने उसकी जम कर तारीफ की और यह फिल्म थी विकी डोनर जो बिना किसी आयटम नंबर के थी. तो मैं मानती हूं कि आयटम नंबर को पार्टी नंबर कह कर उसे प्रस्तुत न करें. पहले भी तो आते थे वैसे गाने. लेकिन जिस तरह के गाने अब आ रहे हैं. उसमें महिलाओं को अश्लीलता ही दर्शाई जाती है और महिलाएं सिर्फ उत्तेजना दर्शाने वाली कोई वस्तु तो नहीं है.
सुधीर मिश्रा : मैं तो मानता हूं कि आयटम सांग का कंसेप्ट रहना ठीक है. बिड़ी जलईकै भी तो आयटम नंबर था. लेकिन जिस तरह उसे फिल्माया गया है. वह अश्लील या असभ्य नहीं लगता. जबकि आज कल जो गाने बन रहे हैं उनमें प्राय: किसी लड़की के नाम पर शीला, मुन्नी, बबली जैसे नाम रख कर महिलाओं को ही बदनाम किया जा रहा है. वह गलत है. लेकिन मैं गानों के बैन के खिलाफ हूं. मुझे लगता है कि अगर जरूरत है तो आयटम नंबर दो. वरना न दो फिल्म में.
सवाल : विज्ञापनों में महिलाओं का चित्रण
शबाना आजिमी : मैं इस बात के भी सख्त खिलाफ हूं कि किसी मोबाइल फोन के विज्ञापन में आप जबरन किसी महिला का बाथिंग सीन दिखायें. यह एक महिला के लिए भी शर्मनाक बात है कि वह इस तरह के विज्ञापनों के लिए हां कहती है. ऐसे कंटेंट को सेंसर से पास नहीं किया जाना चाहिए. चूंकि विज्ञापन तो पूरा परिवार एक साथ देखता है. इस तरह से महिलाओं का चित्रण महिलाओं की छवि खराब करता है और उसे सिर्फ उत्तेजक उपभोक्ताओं तक सीमित करता है. जो कि सरासर गलत है.
सुधीर मिश्रा : मैं शबाना की बातों से पूरी तरह से सहमत हूं. वैसे विज्ञापनों में जहां जबरन आप महिलाओं की उत्तेजक दृश्य दिखा रहे हैं. उन्हें बैन करना चाहिए और वैसे विज्ञापनों के मेकर्स को भी नोटिस भेजना चाहिए व निर्देश दिये जाने चाहिए.
सवाल : फिल्मों में महिलाओं की उपस्थिति
शबाना आजिमी : मैं यह नहीं मानती कि सिर्फ महिला निर्देशिका को महिला प्रधान फिल्में बनानी चाहिए. उन्हें हर तरह की फिल्में बनानी चाहिए. और महिलाओं को भी हर तरह के किरदार निभाना चाहिए. एक बात को हमेशा स्वीकारें कि बोल्ड होना अश्लीलता नहीं. आप वैसे किरदार निभायें. लेकिन उत्तेजना फैलाने के इरादे से नहीं.
गुरविंदर चड्डा : मुझे याद है आज से कई सालों पहले किसी फिल्म के सेट पर केवल कुछ महिलाएं होती थीं. एक अभिनेत्री, एक अभिनेत्री की मम्मी. लेकिन अब स्थिति बदली है. अब तो हर फिल्म के सेट पर आधे से ज्यादा लड़कियां होती हैं तो यह सोच बदली है. जमाना बदला है. तकनीकी रूप से लड़कियां आयी हैं और फिल्मों को लेकर उनकी सोच बदली है. अब हर लड़की सिर्फ हीरोइन नहीं, सिनेमेटोग्राफर भी बनना चाहती हैं.
सुधीर मिश्रा : पुरुष निर्देशकों को ज्यादा से ज्यादा महिला प्रधान फिल्में बनानी चाहिए.
सवाल : बॉलीवुड व आयटम नंबर की वजह से वैश्यावृति व रेप केस बढ़ रहे हैं?
शबाना आजिमी : ये सारी बातें सरासर बकवास है. बॉलीवुड से जो अच्छी चीजें होती हैं. उसका सेहरा तो आप हम पर कभी नहीं बांधते. बॉलीवुड या सिनेमा कभी भी रेप जैसी चीजों को बढ़ावा नहीं देता और न कभी देगा. अब भी फिल्मों में स्तरीय फिल्में बन रही हैं. समाज को आईना दिखाता है. तो बेहतर हो कि बॉलीवुड की स्थिति और उसके इमेज को सुधारा जाये. कुछ गिने चुने गानों और लोगों की वजह से पूरे सिने जगत को बदनाम न किया जाये.
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