20130322

तिग्मांशु धूलिया




मुझे खुशी है कि पान सिंह तोमर जैसी फिल्म को राष्टÑीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है. यह मैं इसलिए नहीं कह रहा क्योंकि यह मेरी फिल्म है. लेकिन खुशी इसलिए है, क्योंकि ऐसी बायोपिक फिल्मों को अब राष्टÑीय सम्मान का दर्जा दिया जा रहा है. हिंदी फिल्मों में इन दिनों बायोपिक का जो दौर शुरू हुआ है, वह एक बेहतरीन और सार्थक कदम है. दरअसल, हिंदी सिनेमा को बायोपिक फिल्मों की जरूरत है. पान सिंह तोमर के बाद राकेश ओम प्रकाश मेहरा की फिल्म भाग मिल्खा भाग भी एक सार्थक फिल्म होगी. चूंकि बायोपिक फिल्मों की वजह से कई चीजें सामने आती हंै. हम ऐसे कई शख्सियत के बारे में जान पाते हैं, जिन्हें हम जानते भी नहीं. जिस वक्त मैंने तय किया था कि पान सिंह तोमर पर फिल्म बनाऊंगा. उस वक्त मुझे पान सिंह के बारे में बस छोटी सी खबर मिली थी कि कैसे कोई धावक एक डाकू बन जाता है. परिस्थिति से हार कर. ऐसे में मुझे जरूरत थी कि मैं इसका रिसर्च करूं. लेकिन पान सिंह के बारे में कोई भी खबर नहीं थी. न अखबार, न इंटरनेट . ऐसे में मेरी टीम ने और मैंने खुद ने रिसर्च किया. वहां गांव जाकर लोगों से मिला. मैं मानता हूं कि किसी भी बायोपिक फिल्म के लिए उसका रिसर्च बहुत खास होना चाहिए. रिसर्च दुरुस्त हो , तभी अच्छी फिल्में बन पाती हैं. हॉलीवुड में बायोपिक फिल्में बनती रहती हैं. लेकिन हमारे यहां गिने चुने लोगों पर ही बायोपिक फिल्में बनती हैं. ज्यादातर जो विषय हैं या शख्सियत हैं वे स्वतंत्रता सेनानी ही होते हैं. जबकि मैं मानता हूं कि हमारे आस पास, गांव मोहल्ले में ऐसी कहानियां हैं. जिन पर फिल्में बननी चाहिए. ऐसे लोग हैं, जो कभी सामने नहीं आये हैं. लेकिन बड़े कारनामें किये हैं. उनके नाम सामने आने चाहिए. उन पर फिल्में बननी चाहिए. द डर्टी पिक्चर्स्र को मैं एक बेहतरीन कोशिश मानता हूं कि हम सिल्क स्मिथा के कई पहलुओं से रूबरू हो पाये. मैं बेगम समरु पर फिल्म बनाने जा रहा हूं. यह मेरठ की एक नौटंकी करनेवाली महिला थीं और कैसे वह बेगम बनी. इस पर पूरी कहानी है. लेकिन मैं इस पर यूं ही फिल्म नहीं बनाऊंगा. मैं इसके रिसर्च पर पूरा वक्त दूंगा. हिंदी सिनेमा की यह भी त्रासदी है कि हमारे पास वैसे कलाकार नहीं मिल पाते. जो कि बायोपिक फिल्मों में फिट बैठें. गिने चुने कलाकार हैं. खुद मैं बेगम समरु को लेकर सोच रहा हूं कि किसे लिया जाये. संजय लीला भंसाली ने मैरी कॉम पर फिल्म बनाने का निर्णय लिया है. यह भी एक बेहतरीन सोच है. चूंकि ऐसी हस्तियों को हमें फिल्मों के जरिये सामने लाना ही होगा. आखिर एक फिल्म एक महत्वपूर्ण दस्तावेज होती है. इससे उस व्यक्ति के जीवन की पूरी कहानी सबकुछ का डॉक्यूमेंटेशन होता है और हिंदी फिल्मों में इसकी बहुत कमी है. एक दौर फिलवक्त अगर बायोपिक का चल रहा है तो यह अच्छा है. कम से कम इस बहाने हम कुछ शख्सियतों को तो संग्रह कर पायेंगे. उनकी चीजें, उनकी यादें, उनके योगदान को देख पायेंगे. अनुराग बसु भी किशोर दा की जिंदगी पर फिल्म बनाने जा रहे हैं. यह अच्छी शुरुआत है. मुझे नहीं लगता कि केवल पॉलिटिकल या स्पोर्ट्स या स्वतंत्रता सेनानी पर ही बायोपिक फिल्में बन सकती हैं. वे सारे शख्सियत जो हमारे आसपास हैं. उन पर फिल्में बननी चाहिए. हम जब हॉलीवुड में देखते हैं कि किसी पॉलिटिकल लीडर पर फिल्में बन रही हैं तो हम काफी खुश होते हैं. और उसकी प्रशंसा भी करते हैं. और सोचते हैं कि ऐसी फिल्में भारत में बने. लेकिन सच्चाई यह है कि हम जिस तरह के राजनीतिक ढांचे में जकड़े हैं. हम कई चीजें छुपाने की कोशिश करते हैं. हमारी कोशिश किसी बात को दर्शकों तक पूरी तरह से सच्चाई बयां करने की नहीं होती. बल्कि हम पॉलिटिकली करेक्ट होने की सोचते हैं. हाल ही में स्पीलबर्ग आये थे. उन्होंने ईमानदारी से अपनी जिंदगी व फिल्मों की कमियां भी बतायीं. लेकिन हमारे भारत में तो यह हिम्मत हम में नहीं. हम बिल्कुल सच सच दर्शक के सामने नहीं ला पाते. ऐसे में एक ईमानदार फिल्म नहीं बन सकती. बायोपिक कभी भी बायस्ड नहीं होना चाहिए. बायोपिक ऐसा होगा कि उस व्यक्ति की वास्तविक शख्सियत को सामने ला पाये. लेकिन भारत में ऐसा कर पाना बहुत कठिन होता है. यहां अगर फिल्में बनने लगती है तो लोग बुरा मानते हैं, क्योंकि कई छुपी गुत्थियां सामने आ जाती हैं. जो लोग पसंद नहीं करते. दूसरी बात बायोपिक फिल्मों में सटीक किरदारों व कलाकारों की भी. चूंकि बायोपिक में पूरी तरह एक व्यक्ति के कंधों पर कहानी टिकी होती है. और ऐसे में किसी किरदार का उस व्यक्तित्व से मेल खाना बहुत जरूरी है. प्राय: हिंदी फिल्मों में बायोपिक फिल्मों में केवल लुक पर ध्यान दिया जाता है. लेकिन हकीकत यह है कि बायोपिक फिल्मों में शख्सियत की रुह तक पहुंचना जरूरी है. अगर प्रियंका मैरी कॉम बन रही हैं तो लोगों को लगना चाहिए कि और कोई मैरी कॉम हो ही नहीं सकता. मैरी कॉम की जिंदगी को वे लोग भी प्रियंका की नजर से देखें जिन्होंने कभी मैरी कॉम को नहीं देखा. जिस तरह इरफान ने पान सिंह तोमर की भूमिका निभायी.लोगों ने पान सिंह को नहीं देखा. लेकिन इरफान के जरिये लोगों ने अनुमान लगा लिया कि पान सिंह ऐसे ही होंगे. हमारे स्वतंत्रता सेनानियों पर बनी फिल्मों के माध्यम से ही हमने गांधी, नेहरू को जाना और आगे भी जानते रहेंगे. क्योंकि दर्शक इन फिल्मों से ही उन व्यक्तित्व के साथ जीते हैं. हिंदी सिनेमा ने अगर बायोपिक फिल्मों की जरूरत को समझना शुरू किया है तो यह एक अच्छी शुरुआत है और इस बात का स्वागत किया जाना चाहिए, ताकि साल में कम से कम चार से पांच उल्लेखनीय फिल्में बनें और शख्सियतों का डॉक्यूमेंटेशन किया जा सके


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