पिछले दो दिनों से आॅस्कर विजयी निर्देशक स्टीवन स्पीलबर्ग भारत में हैं. वे यहां अपनी फिल्म लिंकन का जश्न मनाने आये थे. यहां उन्होंने अमिताभ बच्चन समेत 61 निर्देशकों से मुलाकात की. इस दौरान कुछ मीडिया प्रतिनिधियों को भी उनसे मिलने व बातचीत करने पहुंचे थे. लेकिन आश्चर्यजनक बात यह थी कि इस पूरे कार्यक्रम में किसी भी हिंदी अखबार या चैनल के प्रतिनिधियों को स्पीलबर्ग से बातचीत करने की अनुमति नहीं दी गयी थी. बॉलीवुड में हिंदी को लेकर आंखें तरेरनेवालों की कमी नहीं है. यह पहला मौका नहीं था. जब हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री में हिंदी ही नदारद थी. इससे पहले भी कई मौके ऐसे रहे हैं, जहां हिंदी के साथ दुर्वव्यवहार किया जाता रहा है. स्पीलबर्ग से इस मुलाकात करनेवालों लोगों की सूची तैयार करते वक्त निश्चित तौर पर इसके आयोजकों ने यह मान लिया होगा कि हिंदी अखबार या ैचैनल अंगरेजी में काम नहीं करते तो न तो वह अंगरेजी समझ पायेंगे और न ही स्पीलबर्ग से अंगरेजी में प्रश्न पूछने में सहज हो पायेंगे. सो, उन्हें दरकिनार कर दिया गया. ऐसा सिर्फ भारत में ही हो सकता है कि हम जिस हिंदी सिने जगत की बात करते हैं. वहां हिंदी को ही तवज्जो नहीं मिलती. कुछ दिनों पहले तिग्मांशु धूलिया ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि मुंबई वालों के लिए मुंबई से बाहर पूरी दुनिया गांव है, क्योंकि उन्हें अंगरेजी नहीं आती. तिग्मांशु की बात भी यह स्पष्ट करती है कि हिंदी के साथ कैसा रुखा व्यवहार किया जाता है. हिंदी सिने जगत में इससे किसी को आपत्ति नहीं है. वे तमाम निर्देशक जो हिंदी में फिल्में बनाते हैं. उन्होंने भी इस बात की पहल नहीं की, कि हिंदी अखबारों से कुछ प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना चाहिए. पूर्वधारणा बना लेना कि जो हिंदी में काम करते हैं वे अंगरेजी नहीं बोल सकते. सरासर गलत है. इसका विरोध होना चाहिए था
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20130322
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से नदारद हिंदी
पिछले दो दिनों से आॅस्कर विजयी निर्देशक स्टीवन स्पीलबर्ग भारत में हैं. वे यहां अपनी फिल्म लिंकन का जश्न मनाने आये थे. यहां उन्होंने अमिताभ बच्चन समेत 61 निर्देशकों से मुलाकात की. इस दौरान कुछ मीडिया प्रतिनिधियों को भी उनसे मिलने व बातचीत करने पहुंचे थे. लेकिन आश्चर्यजनक बात यह थी कि इस पूरे कार्यक्रम में किसी भी हिंदी अखबार या चैनल के प्रतिनिधियों को स्पीलबर्ग से बातचीत करने की अनुमति नहीं दी गयी थी. बॉलीवुड में हिंदी को लेकर आंखें तरेरनेवालों की कमी नहीं है. यह पहला मौका नहीं था. जब हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री में हिंदी ही नदारद थी. इससे पहले भी कई मौके ऐसे रहे हैं, जहां हिंदी के साथ दुर्वव्यवहार किया जाता रहा है. स्पीलबर्ग से इस मुलाकात करनेवालों लोगों की सूची तैयार करते वक्त निश्चित तौर पर इसके आयोजकों ने यह मान लिया होगा कि हिंदी अखबार या ैचैनल अंगरेजी में काम नहीं करते तो न तो वह अंगरेजी समझ पायेंगे और न ही स्पीलबर्ग से अंगरेजी में प्रश्न पूछने में सहज हो पायेंगे. सो, उन्हें दरकिनार कर दिया गया. ऐसा सिर्फ भारत में ही हो सकता है कि हम जिस हिंदी सिने जगत की बात करते हैं. वहां हिंदी को ही तवज्जो नहीं मिलती. कुछ दिनों पहले तिग्मांशु धूलिया ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि मुंबई वालों के लिए मुंबई से बाहर पूरी दुनिया गांव है, क्योंकि उन्हें अंगरेजी नहीं आती. तिग्मांशु की बात भी यह स्पष्ट करती है कि हिंदी के साथ कैसा रुखा व्यवहार किया जाता है. हिंदी सिने जगत में इससे किसी को आपत्ति नहीं है. वे तमाम निर्देशक जो हिंदी में फिल्में बनाते हैं. उन्होंने भी इस बात की पहल नहीं की, कि हिंदी अखबारों से कुछ प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना चाहिए. पूर्वधारणा बना लेना कि जो हिंदी में काम करते हैं वे अंगरेजी नहीं बोल सकते. सरासर गलत है. इसका विरोध होना चाहिए था
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