20120622

भूसे के ढेर में राई का दाना- गैंग्स ऑफ़ वासेपुर


भूसे के ढेर में राई का दाना ...अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स के ही फिल्म के एक गीत के बोल है. जिसका तात्पर्य शायद यही है कि भूसे के ढेर में एक राइ के दाने को  तलाशना जितना जटिल काम है. उनकी फिल्म गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में  उनके विजन को समझना उतना ही कठिन है. लेकिन अगर आप अपनी समझ से उस राइ के दाने की तलाश में भूसे में घुसने की कूबत रखते हैं तो यकीं मानिये परत दर परत यह फिल्म आपको एक साथ कई पहलुओं से अवगत कराती है. जो आपको चौंकाती भी है. डराती भी है. तो कई सच्चाइयों से सामना भी कराती है. तो कई मायनों में आईना भी दिखाती है.


बहस हो रही है, मतलब कामयाब है film
गैंग्स ऑफ़ वासेपुर आज रिलीज हुई है. और लगातार जमकर  प्रतिक्रिया आ रही है. नेगेटिव भी. पोजिटिव भी. लोग बहस कर रहे हैं. फिल्म के रिलीज से पहले से बहस तलब हो रही है. मेरा मानना है कि वे फिल्में जिनपर फिल्म की मेकिंग से लेकर फिल्म रिलीज होने के बाद भी लोग बात करें. तो यही फिल्म की कामयाबी है. चूँकि, लगातार कई लोग अपनी अपनी सोच से जब बात रखते हैं तो निर्देशक को भी उनमे एक नया नजरिया मिलता है और संतुष्टि भी. क्यूंकि कुछ राय तो वो आ जाते हैं सामने जो वाकई निर्देशक ने सोच आकर फिल्म में दिखाई है. और कुछ ऐसे भी जो निर्देशक ने नहीं सोचा.वह भी उसे दर्शकों की नजर से जानने का मौका मिलता है. 
वरना,  हिंदी फिल्मों में गिनीचुनी ही तो फिल्में आ रही हैं.जिनपर बहस भी हो. लोग अपने अपने एंगल से राय रख सकें. प्राय: तो फिल्म कैसी है. देखें की नहीं देखें तक बात ख़त्म हो जाती है. तो बहस के मानक पर फिल्म की कामयाबी तय करें तो इधर रॉकस्टार ,पान सिंह तोमर , डेली बेली, डर्टी पिक्चर, शांघाई और अब गैंग्स ऑफ़ वासेपुर उन कामयाब  फिल्मों की फेहरिस्त में शामिल है.
दिमाग से नहीं दिल से कनेक्शन 
बहरहाल, मेरा नजरिया आज रिलीज हुई गैंग्स... पर. यह प्रतिक्रिया एक पत्रकार के नजरिये से नहीं, बल्कि झारखंड के बोकारो शेहेर में बिताये अपनी जिंदगी के अहम् २० सालों के आधार पर हैं. एक आम दर्शक और एक छोटे शहर के परिवेश के आधार पर. इसे मेरी सोच में ब्यास्नेस भी समझा जा सकता है  कि मुझे वो फिल्में प्रभावित करती हैं जिनसे मैं खुद को कनेक्ट कर पाती हूँ. ऐसे फिल्मों से मैं दिमाग से जयादा दिल से कनेक्ट हो पाती हु. फिर चाहे वो कुछ कुछ होता है जैसी प्रेम कहानी हो, या फिर देसवा जैसी भोजपुरी फिल्म हो या फिर गैंग्स. चूँकि ऐसी फिल्मों पे मैं अपनी इमानदार और आँखों देखी. या अपने अनुभवों के आधार पर अपने विचार रख पाती हूँ.गैंग्स ऑफ़ वास्सेपुर इस लिहाज से मुझे प्रभावित करती है. 
चीनी मिटटी के बर्तन और स्टील के बर्तन के बीच की  खाई 
धनबाद बोकारो से १.५ घंटे की दूरी पर स्थित है. यह सच है कि वासेपुर को फिल्म से पहले मैं सिर्फ नाम से जानती थी. लेकिन इसके बावजूद फिल्म देखने के बाद मैंने कई चीजों से कनेक्ट किया. क्यूंकि फिल्म में दिखाए गए कई हालात, कई घटनाएं या दृश्य बोकारो और उससे जुड़े आसपास के इलाकों से मेल खाती हैं. 
एक हिन्दू के घर मुस्लमान आता है. और नेता की पत्नी अपनी नौकरानी से कहती है..चीनी मिटटी के बर्तन में देना. मुस्लिम है. समझी न...ऐसा वास्तविक जिंदगी बोकारो और उससे जुड़े हर मोहल्ले होता होगा. चूँकि धर्म के नाम पर आज भी लोगों की मानसिकता यही है. खुद हमारे घर हमारी दादी कभी भी मुस्लिमों के घर से आये किसी भी प्रकार के खाने को चीनी मिटटी के बर्तन में ही रखवाती थी. मेरी माँ की दोस्ती शादी से पहले मुस्लिम लड़कियों से रही है. सो, माँ वह खाने देख कर उत्साहित हो जाती थी. लेकिन मेरी दादी की तरफ से पाबन्दी थी.  हम बच्चों को भी खाने की इज्जाजत नहीं थी. 
फिल्म में भले ही यह छोटा सा दृश्य हो. लेकिन इसमें गहरी सोच है. यह वहां के समाज की सोच का आईना प्रस्तुत करता है. दरअसल, यह दरसता है कि चीनी मिटटी के बर्तन और स्टील के बर्तन के  बीच की  खाई क्या है. इस समाज की खाई क्या है. क्यों आज भी धर्म के आधार पर छुआ छूत की भावना प्रबल है.  यह अनुराग और उनके लेखक की बारीकी और उस जगह की सोच को लेकर उनकी इमानदारी को झलकता है.
 फिल्म के लेखक जीशान खुद वासेपुर से हैं. इससे साफ़ है कि उन्होंने बिना किसी आधार पर फिल्म को तथ्य नहीं दिए होंगे. और अनुराग आम निर्देशकों में से तो है नहीं. जो आँख मुंध कर किसी की बात पर अपनी सबसे महंगी फिल्म बना देंगे. जीशान पर उनका विश्वास फिल्म की विश्वसनीयता का सबसे बड़ा सबूत है. यह मेरा मानना है. चूँकि अनुराग के मौलिक और पारखी नजर  का कायल पूरा हिंदी सिनेमा जगत है. 
अख़बारों के कटिंग और आकड़ें
दूसरी बात, झारखंड के लोग इस बात से नाराज हैं कि फिल्म में वासेपुर का नाम ख़राब किया जा रहा है. बदनामी हो रही है उनके शहर कि. तो इस बात पर मेरा सवाल उनलोगों से यह है कि फिल्म में अख़बारों के कटिंग, प्रकाशित खबरों के बारे में कहा गया है. तो निशित्तौर पे अनुराग ने केवल इस फिल्म के लिए तो खुद से कोई कटिंग नहीं बनवाई होगी, या प्रकाशित करवाई होगी. कि अरे मुझे अपनी फिल्म में दिखाना है तो भाई कुछ लिख दो ऐसा हुआ होगा. अब अगर अनुराग और लेखक जीशान पर यह सवाल उठ रहा है कि वह वासेपुर को बदनाम कर रहे हैं तो फिर तो वे अख़बारों के कटिंग जिसमे फिल्म में दिखाई गयी घटनायों से संबंधित खबरें हैं. उन पत्रकारों पर भी यही सवाल उठाया जाना चाहिए. कि कैसे उन्होंने लोकल होते हुए भी अपने ही जगह को बदनाम किया है. जीशान ने अपनी बातचीत के दौरान बताया है कि रिसर्च के दौरान वे कई लोगों से मिले. उन्होंने फिल्म इए दिखाई गई घटनाओं के बारे में पूछा. कई मामलों में कई केस, कई घटनाएं ऐसी थी जिसपर वहां के लोगों ने हामी भरी कि हाँ ऐसा हुआ था. खुद वासेपुर से हैं जीशान, तो इतना वाकिफ तो वो भी होंगे. और इसके साथ यह बात हम नहीं भूल सकते कि बात फिल्म दोक्युद्रमा नहीं है. न ही वृतचित्र है. फिल्म वास्तविक घटनायों से प्रेरित काल्पनिक फिल्म है. 

 मुझे याद है. फिल्म में दिखाई गयी कई घटना, जैसे लड़कियों का राह चलते अगवा कर लेना. दो परिवारों में आपसी रंजिश होने. कोयला पर राजनीति इस पर कई सालों से वहां लिखा जा रहा है. लगभग उस वक़्त से जब मै ९७-८ वी क्लास में रही होंगी. तब से सुनती आ रही हूँ.  शाम को पापा के दोस्तों के बीच अक्सर ऐसे मुद्दों पर बातचीत होती थी. 
बोकारो में कई सालों पहले मोनिका नमक लड़की के साथ गैंग रेप किया गया था. भर्रा बस्ती में. पूरे बोकारो में कर्फ्यू था. बीबीसी तक गयी थी खबर. अब अगर कोई फ़िल्मकार इस विषय को लेकर  फिल्म बनाता है तो बोकारो के लोगों का यह कहना बोकारो कि बदनामी हो रही है. कहाँ तक उचित होगा.   ( हालाँकि मेरे पास इन बातों को सच करार देने का कोई ठोस सबूत या फिर आंकड़ा नहीं है. लेकिन अनुभव के आधार पर यह बातें रख रही हूँ. )
फिल्म में दिखाई गई वासेपुर की सकारात्मक बातें 
जीशान से बातचीत के दौरान उन्होंने खुद स्वीकारा था कि वासेपुर में भी लोग इंजिनियर बन रहे हैं. डॉक्टर बन रहे हैं. एडुकेशन में आगे बढ रहा है. फैजल का किरदार निभा रहे नव्जुद्दीन ने बताया कि वासेपुर के लोग बहुत सिम्प्ले हैं. दिल के साफ़ हैं. कैलकुलेट करके बात नहीं करते. वफादार हैं वहां के लोग. अपने लोगों के लिए जान ले भी लेते हैं. दे भी देते हैं. 

फिल्म में पियूष मिश्र का किरदार इसी आधार पे गढ़ा गया है. दर्शकों का ध्यान उनपर भी जाना चाहिए. उन्होंने भी शाहिद खान और फिर उसके बेटे सरदार खान समेत उसके पूरे परिवार के साथ वफादारी निभाई. ऋचा चड्डा नगमा के किरदार में धोखा खाने और तंग हाली होने के  बावजूद अपने पति के दुश्मन के हाथों से दिए भीख को ठुकराती है. सरदार खान की ताकत उनके दोस्त ही बनते हैं. दो ही सही लेकिन वफादार दोस्त. यह भी तो वासेपुर के लोगों की अच्छाई ही दर्शाता है. 

सरदार खान अपराधी अपने पिता के मौत के बदले की वजह से बना. सरदार खान जो भी अपराध करते दिखाया गया है. वह वासेपुर को बदनाम करता है. लेकिन उसी सरदार खान के स्वभाव का यह पहलू कि उसे खुद एहसास होता है कि उसे अब खून खराबा छोड़ कर कुछ बिसनेस करना चहिए. बिना किसी मनोवैज्ञनिक के एक अपराधी का हृदय परिवर्तन सरदार खान के नेक दिल को भी दर्शाता है. अपने मोहल्ले की अगुवा लड़की की इज्जत बचाना फिर उसका ब्याह रच वाना दर्शाता है कि उसी वासेपुर में पापी भी हैं और सरदार खान जैसे अपराधी होने के बावजूद मोहल्ले की  बेटी की रक्षा करना एक जिम्मेदारी भी. यह वासेपुर के लोगों की छवी को ही तो दर्शाता है. कि वहां के लोग सिर्फ अपने लिए नहीं जीते. फिल्म के एक दृश्य में कुछ लड़के एक लड़की को अगवा करते हैं. वास्तविकता में भी बोकारो, धनबाद से नजदीक ऐसी कई इलाके हैं वाकई जहाँ दिन दहाड़े लड़कियों का अपहरण हो जाता है. सिमंडी, भरा बस्ती, वैसे इलाकों में से एक है. धनबाद जंक्शन में खुद मेरी एक दोस्त के साथ अकेले  एक ट्रेन का इंतज़ार करने के दौरान  करने के दौरान रात के १२ बजे रेलवे पूछताछ में बैठे लोगों द्वारा बदतमीजी और छेड़खानी से बातचीत करने की कोशिश की गई थी. उसने बमुश्किल खुद की रक्षा की थी. ऐसे में अगर किसी फिल्म में यह वाक्य दिखाया जाये तो क्या वो बेमतलब उस जगह की बदनामी होगी. हिंदी फिल्मों में यह पहली बार तो नहीं हो रहा की किसी स्थान को नाम शामिल किया जा रहा हो. शूट आउट अत वडाला के बाद शूट आउट अत लोखंडवाला भी बन रही है. इसका यह मतलब तो नहीं कि वहां के लोग कहें कि यह हमारे इलाके की बदनामी है. जबकि मुंबई के अधिकतर फिल्म स्टार इसी इलाके में रहते हैं. फिल्म लंका में बिजनौर की पूरी नेगेटिविटी ही दिखाई गई है. मतलब बिजनौर तो गन्दा शहर हो गया. वहां अछ्चाई बची ही नहीं. अधिकतर गैंग्स की फिल्म मुंबई पे है. मुंबई को हादसों का शहर कहा जाता है. इसका यह मतलब नहीं की वाकई यहाँ मोड़ मोड़ पे हादसे होते रहते हैं. 
दानिश और फैजल का बचपन 
 गौर करें तो सरदार खान को छोटा बेटा फैजल के हावभाव से लगता है कि अगर उसे मौके मिलते तो अच्छी तरह पढ़ लिख सकता था. लेकिन पैसे की तंगहाली में  उसे ट्रेन में गन्दगी साफ़ करनी पड़ती है. वास्तविकता में भी फैसल दानिश से कई बच्चे आपको ट्रेन में गन्दगी साफ़ करते नजर आयेंगे. 

सुल्ताना डाकू धनबाद नहीं आया?
इस पर भी बहस हो रही है कि सुल्ताना डाकू का धनबाद से संबंध नहीं रहा. इस संदर्भ में मैंने जो फिल्म में समझा. दरअसल, फिल्म में भी सुल्ताना डाकू की बात किस्से की तरह ही बताई गई है. क्यूंकि किसी ने उसे नहीं देखा.  सो, इसका फायदा  कुरैशी और खान दोनों परिवारों ने उठाया, सुल्ताना के नाम पर डकेती करती थी. जबकि दोनों परिवारों में से कोई भी सुल्ताना डाकू नहीं था. बस उसके नाम का इस्तेमाल होता था.  धनबाद जंक्शन आज भी दिन दहाड़े लूट और चोरी के लिए बदनाम है.  डाल्टनगंज, गया, जहानाबाद इलाके में आज भी ट्रेन में लूट हो जाती है. बिहार झारखंड के कई बस रूट में डकेती होती है.लोग सहम कर पैसे लेकर यात्रा करते हैं. विशेषकर बारात लेकर जा रहे लोग तो सबसे अधिक डरे रहते हैं. तो अगर कोई फिल्म मेकर यह सब दर्शा दे तो वह उस जगह की बदनामी होगी? या सच दर्शाना होगा.

फिल्म कोल माफिया पे है?
फिल्म को लेकर आम लोगों ने यह धारणा बना ली है कि वासेपुर का तो कोल से लेना देना नहीं. फिर कोल माफिया की बात फिल्म में कैसे दर्शा दी गई है. यह बातें करने वाले सबसे पहले फिल्म देख लें. फिल्म सिर्फ कोल माफिया पर नहीं है. यह बात शुरू से अनुराग कहते आ रहे हैं.गलत फहमी दूर हो जाएगी. 

पीठ पीछे वार, और अपने उल्लू सीधा करना
रामधीर सिंह कभी सामने से वार नहीं करता. फिल्म में. उसने हमेशा दो परिवारों को ही लड़ाया. मजदूरों के साथ ज्यद्द्ती, फिर मजदूरों में से ही एक शाहिद का अपने मतलब के लिए इस्तेमाल, फिर उसके दो परिवारों में आग लगाना और अपना फायदा करना. राजनीति की यह चाल तो आज भी कई छोटे जगहों पर खेली जा रही है.इस लिहाज से निर्देशक ने इसे बखूबी दर्शाया है कि कैसे आम मजदूर. अल्पसंख्यक हमेशा इस्तेमाल होते रहे हैं.सुल्तान कुरैशी जैसे मासूम लेकिन बेवकूफ तो हर गली मोहल्ले में बसे हैं. कही भग्गू के रूप में तो कहीं सुल्तान के रूप में.
एक साथ कई स्ट्रोक 
यह सच है कि अनुराग अपनी फिल्मों में एक साथ कई कनवास पर पेंटिंग करते हैं. वे एक साथ बहुत कुछ दिखा जाते हैं. फिल्म में इमोशन भी है. सरदार खान का अपने बच्चों अपनी दोनों पत्नियों के लिए प्रेम, मोहल्ले की लाज, एक दबंग का शान से जीने का अंदाज़, हंसी ठिठोली, फैजल, दानिश का प्रेम प्रसंग, कसाई की अत्यधिक क्रूरता, एक लालची , इन्सेक्युर नेता की कमजोरी, उसकी ताकत. पीठ पीछे वार करनेवाले राज नेता की छवी, राजनीति और राजनीति में रहने वाले के दो चेहरे. साजिश, रंजिश. सब एक साथ है इस फिल्म में. कई कहानियां एक साथ. कई किरदार और सभी किरदारों की अपनी एक कहानी. अनुराग की इस फिल्म की यह भी बड़ी खासियत है कि इस फिल्म का हर किरदार एक कहानी है. सब पर अलग से छोटी छोटी फिल्में बन सकती है. सरदार खान की दबंगई, और एक पिता की मौत में जलते आदमी के जिंदगी के मकसद की कहानी, दानिश की प्रेम कहानी से दो परिवारों का मिलन. नगमा के रूप में एक पत्नी और माँ के फ़र्ज़ को अदा करती औरत की कहानी. गंगा के रूप में दूसरी औरत  की इन्सेक्त्युरिटी, पियूष मिश्र के रूप में एक वफादार नौकर की कहानी, फैजल के रूप में एक ऐसे बच्चे की कहानी जो एक गलतफहमी की वजह से माँ से दूर हो जाता हो और उस वजह से नशे की लत, सुल्तान के रूप में एक कट्टर परिवार के लड़के की कहानी. इस लिहाज से एक साथ फिल्म में कई कहानियां हैं. और अनुराग सभी को दिखाने में सफल हुए हैं.
फिल्म के हंसगुल्ले
ऐसा नहीं है कि अनुराग ने फिल्म में सिर्फ हिंसा ही दिखाई है. कई संवाद, सरदार खान के चेहरे के हावभाव, गंभीर जगहों पर भी हंसी ठिठोली, बम बनाते वक़्त भी चाय बनाने सा आनंद और सरदार खान का मोहल्ले में खुल्ले आम रामधीर को चुनौती देने वाले दृश्य, फैजल का प्यारा सा रोना धोना, उसकी मासूम हरकतें. इन सभी पलों के साथ आप न सिर्फ हँसते हो बल्कि इन्हें आप खुद के साथ घर भी लाते हो. 

कुछ बातें जो खटकी 
फिल्म में कुछ दृश्य अत्यधिक लम्बे हैं. फिल्म में कसायिओं के काम और बूचर खाने के दृश्य अत्यधिक वास्तविक होने की वजह से विचलित करते हैं. वे न भी रहे तो फिल्म अपनी नब्ज पकड़े रहते. चूँकि हिंदी फीचर फिल्म के दर्शक शायद अब भी इतनी हिंसक चीजें बर्दाशत न कर पाएं. फिल्म के अंत के दृश्य में बिहार के लाला गीत का इस्तेमाल ऐसे जगह पर क्यों. जहाँ दुख है. जबकि यह गीत सेलेब्रेशन का है. 


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