एक चश्मे से दोफिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के प्रमोशन के सिलसिले में पटना आये अनुराग कश्यप से जब पूछा गया कि वह इस फिल्म से क्या संदेश देना चाहते तो उन्होंने दो-टूक कहा कि वह किसी भी फिल्म से कोई संदेश नहीं देना चाहते. वे संदेश देने या परदाफाश करने के लिए फिल्में नहीं बनाते. बल्कि वह चाहते हैं कि दर्शक सोचें. अच्छा या बुरा जो भी, लेकिन सोचें. वे याथार्थ को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने में विश्वास रखते हैं. वे हर फिल्म दर्शकों को सोचने पर मजबुर करने के लिए बनाते हैं. विषय चाहे जो हो, उसका ट्रीटमेंट इसी तरह से करते हैं. ऐसे ही निर्देशकों की श्रेणी में एक अहम नाम आता है प्रकाश झा का. सवाल किया जा सकता है कि दोनों निर्देशकों की तुलना क्यों? दरअसल दोनों ही निर्देशक दर्शकों को सपनों की दुनिया में नहीं ले जाते, बल्कि दर्शकों का सामना सामाजिक यथार्थ से कराते हैं. कहा जा सकता है कि दोनों सपने दिखानेवाले नहीं बल्कि नींद से जगानेवाले निर्देशकों में से एक है. उनकी फिल्में दर्शकों को झकझोरती हैं और हमेशा चर्चे में रहती हैं. हॉलीवुड में यदि कोई वाकई चर्चित निर्देशकों की सूची तैयार करे, तो इन दोनों निर्देशकों का नाम पहले नंबर पर होगा. दोनों की ही फिल्में रियलिस्टिक होती हैं. लेकिन अप्रोच अलग-अलग. प्रकाश झा, जहां वैसे सामाजिक मुद्दों को उठाते हैं, जिन पर खूब चर्चा होती है और वह किसी न किसी रूप में पूरे समाज को प्रभावित करती हैं. वहीं, अनुराग की फिल्में हमेशा सोशल आउटकॉस्ट विषयों पर होती हैं. लेकिन उन पर कोई बातचीत नहीं करना चाहता. अनुराग उन विषयों को उजागर करते हैं, जो समाज को असहज करती हैं. ‘दामुल’ से ‘आरक्षण’ तक व ‘ब्लैक फ्राइडे’ से ‘दैट गर्ल इन यल्लो बुट’ तक की फिल्मों को देख लें, तो इसका विश्लेषण स्पष्ट रूप से किया जा सकता है. प्रकाश कहानी व बड़े स्टारकॉस्ट के साथ खेलते हैं. वहीं अनुराग की कहानी ही उनका नायक है. शैली की बात करें तो प्रकाश भले ही बिहार की कहानियों पर फोकस करें, लेकिन वे शूटिंग के लिए बिहार की वास्तविक लोकेशन का नहीं, बल्कि माहौल का इस्तेमाल करते हैं. जबकि अनुराग वास्तविक माहौल में ही शूटिंग करने में विश्वास रखते हैं. दरअसल, ये दोनों ही सच के दो चश्मे की तरह हैं, लेकिन दोनों के चश्मे का नंबर अलग अलग हैं. लेकिन फिर भी वह बयां सच ही करती है
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