20120609

आठ पन्नों का रहस्य गैंग्स ऑफ वासेपुर



अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर के प्रोमोज आने के साथ ही लोगों में इस फिल्म को लेकर काफी जिज्ञासा देखी जा रही है. सोशल नेटवर्किग साइट्स, अखबारों व झारखंड के आम लोगों में इस फिल्म की चर्चा है. झारखंड के धनबाद जिले के छोटे से स्थान वासेपुर का नाम कुछेक लोग ही जानते थे, लेकिन अब इस जगह का नाम कान फिल्मोत्सव में जाना जाने लगा है. फिल्मी जानकारों का मानना है कि कई वर्षो के बाद किसी फिल्म की चर्चा इतने व्यापक स्तर पर हो रही है.
आपको जानकर हैरत होगी कि इस बहुचर्चित फिल्म की कहानी का रहस्य धनबाद के वासेपुर के लेखक जिशान कादरी की आठ पन्नों की कहानी में छुपा था, जिसे सुन कर अनुराग ने अब तक की अपनी सबसे महंगी फिल्म बनाने का निर्णय लिया. जी हां, अनुराग की चर्चित फिल्म के मास्टरमाइंड जिशान कादरी ही हैं. आठ पन्ने की कहानी से पांच घंटे की फिल्म बनने तक के इसके रोमांचक सफर के बारे में जिशान से अनुप्रिया अनंत ने बातचीत की.
अनुराग कश्यप उस दिन पृथ्वी थियेटर आनेवाले थे. जिशान को यह जानकारी वहां लगे एक पोस्टर से मिली. वह जानते थे कि उनकी कहानी अनुराग जैसे निर्देशक ही समझ सकते हैं. उन्होंने अनुराग का लगातार 1 से डेढ़ घंटे तक पीछा किया. अनुराग की पारखी नजर भी समझ चुकी थी कि यह लड़का कुछ कहना चाहता है.
अंतत: अनुराग आये. जिशान ने अपनी आठ पन्ने की कहानी उन्हें सुनायी. अनुराग दंग थे. धनबाद के जिशान कादरी की इस आठ पन्ने की कहानी में अनुराग को वह बात नजर आयी, जो आज पांच घंटे की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर के रूप में तैयार है. आठ पन्नों की कहानी में जेल है, तो बेल है, एक जान है. ये अल्ला लेगा या मोहल्ला जैसे वन लाइनर व बेखौफ संवादों ने अनुराग को आकर्षित किया.
जिशान के साथ उस दिन के बाद लगातार अनुराग ने मुलाकात की. चर्चा हुई. अनुराग के मन में कई सवाल थे, क्योंकि जिशान की कहानी में कुछ ऐसे लोगों, परिवार व उनसे जुड़ी घटनाओं का जिक्र था, जिनके बारे में यकीन करना मुश्किल था. अनुराग ने जिशान से बार-बार पूछा कि क्या वाकई यह सच्ची कहानी है. क्या ऐसा हो सकता है कि कहीं बात-बात पर बंदूक उठ जाये?
जिशान ने जब उन्हें यकीन दिलाया, तो अनुराग ने तय कर लिया कि वे इस पर फिल्म बनायेंगे. जिशान की कहानी में इतना दम था कि अनुराग ने तय किया, भले ही यह फिल्म कई हिस्सों में बने, कितनी भी लंबी क्यों न हो, वे इसे जरूर बनायेंगे. यहीं से शुरू हुई गैंग्स ऑफ वासेपुर की सिनेमाई कहानी.अनुराग ने जिशान को इस विषय पर पूरी तरह से शोध करने को कहा. 35 दिनों में जिशान अपनी रिसर्च के साथ मौजूद थे. रिसर्च के दौरान जिशान ने इस संदर्भ में जिन लोगों से भी मुलाकात की, ऐसी कई बातें उभर कर सामने आयीं जिन पर सबने चर्चा की. सबने एक परिवार, मर्डर, केस की बात की..जिससे यह बात पुख्ता हुई कि वहां वाकई वैसी बातें हुई थीं.
कैसे आयी जेहन में कहानी
बकौल जिशान, मैं खुद वासेपुर से हूं, इसलिए मेरे जेहन में वहां की हर बात तरोताजा है. कई चीजें मेरी आंखों के सामने घटी हैं. छोटे शहरों की अपनी खासियत होती है. सबको हर छोटी-बड़ी बात पता होती है. यह कहानी लिखने में मेरे लिए यही तत्व सहायक रहे. मेरा बचपन वासेपुर, धनबाद में बीता है. मैं यहां ही हर चीज से वाकिफ था. कहानी लिखते वक्त वही सारी घटनाएं मेरी आंखों के सामने आती रहीं. आप एक और बात पर गौर करेंगे, इस फिल्म में कोई एक हीरो नहीं. जितने किरदार हैं, उतने ही हीरो हैं. मसलन सभी अपने आप में हीरो हैं. सभी का अहम किरदार है.
पर्दाफाश का कोई इरादा नहीं
यह सच है कि कई लोग इस तरह की बातें कह रहे हैं कि हम इस फिल्म से वासेपुर का नाम खराब कर रहे हैं. लेकिन मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि हमारा इस फिल्म के जरिये किसी का पर्दाफाश करने का इरादा नहीं है. जो सच है, हम वही दर्शा रहे हैं. पूरी रिसर्च के बाद हमने कहानी बनायी. हमने सिर्फ माहौल, एंबीयंस या लोकेशन का ही इस्तेमाल नहीं किया.

वासेपुर के संदर्भ में. हमने उन घटनाओं को वैसे ही प्रस्तुत किया है, जो सचमुच घटी हैं. दूसरी बात, हम यह दर्शाना नहीं चाहते कि वासेपुर में सिर्फ खून खराबा होता है. ऐसा नहीं है. वहां से भी हर साल आइएएस अधिकारी, डॉक्टर निकल रहे हैं.

लेकिन क्राइम का मुद्दा भी अहम है. वासेपुर में परेशानियां हैं, जो सुलझ नहीं रही हैं. इसकी अपनी कई वजहें हैं. कुछ लोग ये सब खत्म कर सकते हैं, लेकिन पीछे हट रहे हैं. हमारी फिल्म बस उसी हकीकत को दर्शाती है. आप ही सोचिए, मैं क्यों अपनी ही जगह का नाम खराब करूंगा. हां, जो सच है, उसे फिल्म के माध्यम से दिखाऊंगा. वहां के दर्शक जब फिल्म देखेंगे तो खुद उन्हें यकीन हो जायेगा कि हमने सच दिखाया है.
हार्ट ऑफ द टाउन
मेरे लिए तो हमेशा मेरा शहर वासेपुर हार्ट ऑफ द टाउन रहेगा, क्योंकि वहां के लोग बहुत अच्छे हैं. सबसे खास बात है कि एक दूसरे की परवाह करते हैं. वहां लोगों का गप्पे मारना, शाम को चौक-चौराहे पर बातें करना वगैरह. छोटे शहर में हर कोई रॉबिनहुड होता है. ऐसे रॉबिनहुड भी नजर आयेंगे फिल्म में.
कान फिल्मोत्सव का अनुभव
बतौर लेखक मेरी यह पहली फिल्म है और मैं खुश हूं कि पहली बार ही मुझे कान जैसे प्रतिष्ठित फिल्मोत्सव का हिस्सा बनने का मौका मिला. गैंग्स ऑफ वासेपुर के दोनों हिस्से यानी पांच घंटे की पूरी फिल्म वहां दिखाई गयी थी. ढाई घंटे की फिल्म के बाद 20 मिनट ब्रेक था. लगभग 800 लोग वापस ब्रेक के बाद लौट कर आये और पूरी फिल्म देखी. अनुराग कश्यप के निर्देशन को हैट्स ऑफ. यह उनका ही कमाल था. वरना, फिल्मोत्सव में आप प्राय: बोरिंग फिल्में छोड़ कर चले जाते हैं.
एक्टिंग का पैशन बरकरार रहेगा
मुझे अनुराग कश्यप फिल्म रॉकी के सिल्वेस्टर स्टैलॉन पुकारते हैं. क्योंकि रॉकी फिल्म भी सिल्वेस्टर ने लिखी थी और यही शर्त रखी थी कि वह फिल्म में एक्ट भी करेंगे. मैंने भी यही शर्त रखी थी. अभिनय मेरा पैशन है और मैं उसे ही बरकरार रखूंगा.

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