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20120327
कटिंगदचाय.कॉम की चुस्की
दादा साहेब फाल्के ही हिंदी सिनेमा के जनक हैं. लेकिन यह अफसोसजनक बात है कि हममे से कई लोग जो सिनेमा के क्षेत्र से संबंध रखते हैं. अब तक हमने राजा हरिशचंद्र, यानी भारत की पहली फिल्म भी नहीं देखी. इसकी वजह यह है कि अब भी भारत में हिंदी फिल्मों के संरक्षण को लेकर बहुत सजगता नहीं है. इस पर हमने पहले भी कई बार चर्चा की है. लेकिन हिंदी फिल्मों के कुछ फैन ऐसे भी हैं, जो अपनी दीवानगी की हद तक जाकर भी उन फिल्मों को सहेजने का काम कर रहे हैं. जी हां, गाजियाबाद के ब्लॉगर सौम्यादीप चौधरी फिल्मों के ऐसे ही प्रशंसकों में से एक हैं, जो अपनी वेबसाइट कटिंगदचाय.डॉम के माध्यम से उन हिंदी फिल्मों को सहेजने का काम कर रहे हैं, जिनका नाम भी शायद हमने न सुना होगा. शायद सौम्यादीप ने वेबसाइट का नाम भी इसी ख्याल से रखा है कि चाय पुरानी चीज होते हुए भी हमेशा ताजगी का एहसास कराती है. लोग इसकी चुस्की आज भी लेना पसंद करते हैं. कुछ इसी तरह पुरानी फिल्में भी पुरानी होकर नयी ही हैं. हिंदी सिनेमा के 100 वर्ष पूरे होने पर इससे बेहतरीन तोहफा और क्या होगा कि अब यूटयूब पर सौम्यादीप की मदद पर हम सभी राजा हरिशचंद्र देख पायेंगे. जल्द ही इस वेबसाइट पर यह पूरी फिल्म अपलोड की जायेगी. 1944 में रिलीज हुई अशोक कुमार अभिनीत फिल्म किस्मत के प्रिंट शायद ही कहीं संरक्षित हों. लेकिन सौम्यादीप ने इसे भी ढूंढ निकाला है. आप खुद जब इसके साइट पर जायेंगे तो आप देखेंगे कि 1979 में किसी ब्रांड के लिए मॉडलिंग कर चुकीं रेखा की पुरानी तसवीर भी यहां उपलब्ध है. राजेश खन्ना जिस दौर में शूटिंग व शर्टिंग जैसे ब्रांड के लिए विज्ञापन किया करते थे. उस दौर की तसवीरें भी इस वेबसाइट पर मौजूद हैं. सौम्यादीप ने यूएस में स्थित दरअसल, यह सौम्यादीप की दीवानगी ही है. चूंकि कोई व्यक्ति जब दीवाना होता है, तभी वह इतना बेहतरीन काम कर सकता है.सौम्यादीप भी युवा हैं और एक युवा होने के नाते वे यह जिम्मेदारी समझते हैं कि आनेवाली पीढ़ी के लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि हिंदी सिनेमा का इतिहास कितना विस्तृत और सुसंस्कृत था. वाकई, ऐसे दौर में जहां हिंदी फिल्मों को पॉपकॉर्न व कोक के साथ महज तीन घंटों के मनोरंजन का जरिया मानते हैं युवा. ऐसे में अगर सौम्यादीप जैसे युवा इस तरह अपनी सिनेमा की संस्कृति को सहेजने की कोशिश कर रहे हैं तो यह काबिलेतारीफ है. साथ ही ऐसी कोशिशों से होगा यह कि हिंदी दर्शकों के लिए जहां फिल्में केवल मनोरंजन का जरिया हैं. वे फिल्म देखने की संस्कृति को भी समझ पायेंगे. खुद अमोल गुप्ते मानते हैं कि भारत में सिनेमा को कभी विषय के रूप में नहीं लिया गया. अगर सिनेमा भी पाठयक्रम का हिस्सा होती तो लोग इसे गंभीरता से लेते. हिंदी फिल्मों को गंभीरता से न लेने की यह भी वजह है कि वर्तमान में जैसी फिल्में बन रही हैं. कम ही फिल्में गंभीर होती हैं. और पुरानी क्लासिक फिल्में नयी पीढ़ी ने देखी ही नहीं है. सो, वे सिनेमा को समझ नहीं पाते. ऐसे में सौम्यादीप जैसे युवाओं की सख्त जरूरत है, जो जिम्मेदारी समझ कर हिंदी सिनेमा की धरोहर को सहेजने की कोशिश करें.
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लिंक लगा दें तो बेहतर हो. वर्ड वेरिफिकेशन हटाने पर विचार करें.
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