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20120304
बॉक्स ऑफ़िस पर वोटिंग
प्राय: हिंदी सिनेमा के निर्देशकों से शिकायत की जाती है कि वे अच्छी फ़िल्में नहीं बनाते. अच्छे विषयों की खोज नहीं होती. विषयपरक फ़िल्में नहीं बनती. हिंदी फ़िल्मों को भी हॉलीवुड की फ़िल्मों की तरह गंभीर होना होगा. उसे नाच गाने से ऊपर उठना होगा और न जाने ऐसी और कौन कौन सी तोहमत लगायी जाती है, लेकिन जब अच्छी फ़िल्में बनती हैं तो उन्हें दर्शक नहीं मिलते.
लोगों तक अच्छी फ़िल्मों की जानकारी तक ही नहीं पहुंच पाती और फ़िर विषयपरक अच्छी फ़िल्मों को, प्रयोगात्मक फ़िल्मों को बॉक्स ऑफ़िस पर सफ़लता हासिल नहीं होती. निराश होकर निर्देशक फ़िर अच्छी फ़िल्में न बनाने के लिए बाध्य हो जाता है. अब दौर आ चुका है कि सिनेमा को कला के रूप में देखा जाये.
फ़िर चाहे वह मल्टीप्लेक्स के दर्शक हों या फ़िर सिंगल थियेटर के या फ़िर किसी भी छोटे शहर के. अब इस बात पर सोचने विचारने का समय आ चुका है कि दर्शक जिस तरह अपने जीवनशैली से जुड़ी हर बात का चुनाव सोच समझ कर करते हैं. उसी तरह वे फ़िल्मों का भी चुनाव करें.
यह बेहद जरूरी है कि वे प्रोमोशन के बहकावें में न जायें. यहां पान सिंह तोमर फ़िल्म के प्रमोशन का इरादा नहीं, लेकिन एक अच्छे दर्शक होने के नाते हर भारतीय दर्शक को यह फ़िल्म जरूर देखी जानी चाहिए थी. यह अफ़सोस की बात है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स व कई माध्यमों के बावजूद फ़ेसबुक पर अब भी लोग पूछते हैं यह पान सिंह तोमर कौन है? यही वजह है कि पान सिंह तोमर, चिल्लर पार्टी, स्टैनली का डब्बा, बबलगम, साडा अड्डा जैसी कई फ़िल्में आती हैं और चली जाती हैं.
दर्शकों के गलत चुनाव की वजह से इन्हें असफ़ल मान लिया जाता है. हकीकत यही है कि अच्छी फ़िल्में बनाना एक खर्चीला व्यवसाय है. इसलिए यह बेहद जरूरी है कि ऐसी फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर भी कमाल दिखा पायें. वरना, दोबारा इन निर्देशकों को अच्छी फ़िल्में बनाने के लिए हिम्मत जुटाने में भी तकलीफ़ होगी. साथ ही बजट जुगाड़ने में भी. ऐसे में बेहद जरूरी है कि ऐसी फ़िल्मों का प्रमोशन न भी हो तो दर्शक खुद फ़िल्में देखने जायें.
जिस तरह वह वोट करते वक्त आप बार बार सोचते हैं कि सही उम्मीदवार ही जीतें. उसी तरह फ़िल्मों का चुनाव भी इसी आधार पर करें, ताकि अच्छी फ़िल्में बनें. बार-बार सोचें. खुद निर्णय लें. गुगल पर जायें, खुद सोशल नेटवर्किंग के माध्यम से जानने की कोशिश करें कि जिस फ़िल्म के लिए वह पैसे खर्च कर रहे हैं, वह वाकई सही है या नहीं. इसका यह कतई अर्थ नहीं कि केवल गंभीर फ़िल्में ही देखी जाये.
बल्कि इसका सीधा संदर्भ इससे है कि मसालेदार व मनोरंजक फ़िल्मों के साथ साथ छोटी-स्तरीय फ़िल्मों को भी बढ़ावा मिले.अच्छी फ़िल्मों को अच्छी और बुरी फ़िल्मों को बुरी कहने का प्रचलन शुरू हो. दर्शकों को ही फ़िल्में देखने व चुनने के विषय को गंभीरता से लेना होगा, ताकि दर्शकों का सही वोट सही फ़िल्म को सफ़ल बना सके.अच्छे बुरे का फ़र्क करना ही होगा
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