20140514

कुछ विज्ञापन ऐसे भी


 चुनाव का दौर है. परिणाम आने में कुछ ही दिन बाकी हैं. इस बार प्रधानमंत्री के उम्मीदवारी के लिए खड़े हर उम्मीदवार ने दावा किया है कि वह धर्म या जाति के आधार पर काम नहीं करना चाहते. बहरहाल उनके दावे उनके पास. लेकिन इन दिनों टेलीविजन के विज्ञापन वाकई अपनी तरफ से कई कोशिशें कर रहे हैं, ताकि वह धर्म के आधार पर भेद करने वाले लोगों को सच्चाई दिखायें. एक चायपत्ती के विज्ञापन में एक हिंदू परिवार को पहले मुसलिम परिवार के घर चाय पीने से आपत्ति जताते और बाद में फिर उनका निमंत्रण स्वीकार कर दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाते हुए दिखाया जाता है. दरअसल, हकीकत यही है कि वर्तमान में विज्ञापन समाज को जितने अच्छे सीख दे रहे हैं. और चंद शब्दों में अपनी बात कह जा रहे हैं. फिल्में भी वह कमाल नहीं कर पा रही हैं. याद हो कि कुछ दिनों पहले गूगल रियूनियन पर आधारित जो विज्ञापन जारी किया गया था और उसमें एक मुसलिम और हिंदू की दोस्ती के गाढ़ेपन को दर्शाया गया. वह न सिर्फ दिलचस्प था. बल्कि अतुलनीय भारत की पहचान भी था. एक विज्ञापन में एक दोस्त दूसरे दोस्त से कहता है कि अपने तरफ का है तो इसे ही जीताऊंगा और फिर दूसरा दोस्त उसकी आंखें खोलता है. एक सीमेंट के प्रचार में एक बच्चा दीवार की परिभाषा इस रूप में देता है कि मैं और सलीम अच्छे दोस्त थे. लेकिन अब हमारे बीच दीवार खड़ी हो चुकी है. अब हम दोस्त नहीं रहे. वाकई विज्ञापन अच्छे संवाद और अच्छी कहानी के माध्यम से दर्शकों को पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहे कि हां, मजहब नहीं सिखाता कि आपस में बैर रखना. हिंदी हैं हम वतन हैं. ऐसे विज्ञापनों की भारत को फिलवक्त सख्त जरूरत है. ये भी अगर सोच में बदलाव लाने में सफल हो पायें तो चलचित्र माध्यम का उद्देश्य कुछ हद तक तो जरूर पूरा होगा होगा. 

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