20130429

जीवन में शामिल सिनेमा

urmila kori


आस्था का नया नाम जय संतोषी मां

फिल्म ने आस्था को भी एक नया चेहरा और नाम दिया है- संतोषी मां. 1970 में जब ‘जय संतोषी मां’ रिलीज हुई थी, तब ऐसी किसी देवी के नाम से शायद ही कोई परिचित था. भारतीय पुराणों में भी ऐसी किसी देवी का जिक्र नहीं था. लेकिन इस फिल्म की रिलीज के बाद यह देवी पूरे देश में पूजी जाने लगीं. 16 शुक्रवार का व्रत घर-घर में आम हो चला था. यही नहीं, जब यह फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी तब सिनेमाघर मंदिर बन गये थे. दर्शक सिनेमाघर में नारियल फोड.कर जय-जयकार करते हुए नंगे पैर दाखिल होते थे. फिल्म के शुरू होने से पहले आरती की जाती थी. देवी के रूप में अनिता गुहा को देखकर परदे पर दर्शक फूल, पैसे और चावल र्शद्धा से फेंकते थे. जब ‘मत रो राधिके’, गीत बजता, तो महिलाएं रोने लगती थीं. सिनेमाघर के बाहर दानपेटी की भी व्यवस्था थी. आस्था को शायद ही किसी फिल्म ने इस तरह परदे पर परिभाषित किया हो.

बॉलीवुड का असर दर्शकों पर इस कदर हावी रहा कि दर्शक सितारों को भी भगवान मान बैठे. कोलकाता के दक्षिणी भाग में अमिताभ बच्चन के नाम पर एक भव्य मंदिर है. इसमें उनके जूते रखे गये हैं. मंदिर अमिताभ के पोस्टर्स से सजा हुआ है. अमिताभ चालीसा भी पढ.ी जाती है. वहां उनके प्रशंसक जो शॉल ओढ.ते हैं उस पर ऊं अमिताभ नम: लिखा है. बिग बी के अलावा कोलकाता में शाहरुख खान भी बहुत लोकप्रिय हैं. कोलकाता में शाहरुख खान के नाम पर भी मंदिर स्थापित किया जायेगा. जिसमें उनके छैंया-छैंया गीत वाला जैकेट, मोहब्बतें का वायलिन रखा जायेगा.

नेगेटिव-पॉजिटिव इफेक्ट्स

फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ की स्पेशल स्क्रीनिंग के दौरान निर्माता एल वी प्रसाद ने शोमैन राजकपूर से जब फिल्म पर अपनी प्रतिक्रिया देने को कहा तो राजकपूर ने कहा कि अगर आप अपनी फिल्म का अंत बदल दें तो यह फिल्म सुपरहिट हो जायेगी, क्योंकि भारतीय दर्शकों को हैप्पी एंडिंग पसंद है. वे फिल्म के अंत में हीरो हीरोइन का मरना पसंद नहीं करते हैं. लेकिन एल वी प्रसाद ने राजकपूर की बात नहीं मानी. उनका फैसला सही निकला, क्योंकि दर्शकों को इस फिल्म का अंत रुला गया. इसके बाद इस तरह के अंत वाली और फिल्में भी बनीं. वह दौर था जब फिल्म के किरदार बासु-सपना की तरह ही हर प्रेमी जोड.ा अपने नाम को दीवारों पर लिखकर अपने प्यार को अमर कर देना चाहता था.

रंग दे बसंती की अमिट छाप

2006 में आयी राकेश ओम प्रकाश मेहरा की फिल्म ‘रंग दे बसंती’ ने भारतीय समाज पर अपनी अभूतपूर्व छाप छोड.ी है. फिल्म के उपशीर्षक अ जनेरेशन अवेकन ने वाकई भारतीय युवाओं को जगा दिया था. इसी फिल्म से प्रेरणा लेकर इंडिया गेट पर मोमबत्ती जला के लोगों ने जेसिका लाल और प्रियदर्शनी मट्टू की हत्या के दोषियों को सजा दिलाने लिए मोर्चा निकाला. आज भी शांति से मोर्चा निकालने के लिए फिल्म के दृश्य का इस्तेमाल किया जाता है.

गांधीगिरी की धूम

महात्मा गांधी के गांधीवादी सिद्धांत को राजकुमार हीरानी की मुत्राभाई सिरीज की फिल्मों ने जन जन तक पहुंचा दिया. अगर ऐसा न होता तो मुंबई में ट्रैफिक नियम तोड.ने पर लोगों को समझाने के लिए गांधीगिरी का फॉर्मूला न अपनाया गया होता था. फूल देकर विरोध दर्ज कराने वाला गांधीगिरी के इस हिट फार्मूले को आम से लेकर खास सभी ने समय-समय पर अपनाया है.



प्राण के नाम से नफरत

ेआम दर्शकों ने अगर सितारों को सर पर बिठाया है, तो कभी ऐसा भी हुआ है कि उनके किरदारों से नफरत भी की है. 60 और 70 के दर्शक मशहूर चरित्र अभिनेता प्राण नाम के साथ ऐसा आंतक जुड. गया था कि उस दौर में किसी को अपने बेटे का नाम प्राण रखना नागवार गुजरता था. इसी वजह से 2004 में बाकायदा प्राण के परिवार के लोगों ने प्राण नाम वाले शख्स की तलाश शुरू की. सबसे बड.ी उम्र और सबसे छोटी उम्र के प्राण नाम वाले शख्स को बाकायदा पुरस्कार भी देने की चर्चा हुई थी.आस्था का नया नाम जय संतोषी मां

फिल्म ने आस्था को भी एक नया चेहरा और नाम दिया है- संतोषी मां. 1970 में जब ‘जय संतोषी मां’ रिलीज हुई थी, तब ऐसी किसी देवी के नाम से शायद ही कोई परिचित था. भारतीय पुराणों में भी ऐसी किसी देवी का जिक्र नहीं था. लेकिन इस फिल्म की रिलीज के बाद यह देवी पूरे देश में पूजी जाने लगीं. 16 शुक्रवार का व्रत घर-घर में आम हो चला था. यही नहीं, जब यह फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी तब सिनेमाघर मंदिर बन गये थे. दर्शक सिनेमाघर में नारियल फोड.कर जय-जयकार करते हुए नंगे पैर दाखिल होते थे. फिल्म के शुरू होने से पहले आरती की जाती थी. देवी के रूप में अनिता गुहा को देखकर परदे पर दर्शक फूल, पैसे और चावल र्शद्धा से फेंकते थे. जब ‘मत रो राधिके’, गीत बजता, तो महिलाएं रोने लगती थीं. सिनेमाघर के बाहर दानपेटी की भी व्यवस्था थी. आस्था को शायद ही किसी फिल्म ने इस तरह परदे पर परिभाषित किया हो.

बॉलीवुड का असर दर्शकों पर इस कदर हावी रहा कि दर्शक सितारों को भी भगवान मान बैठे. कोलकाता के दक्षिणी भाग में अमिताभ बच्चन के नाम पर एक भव्य मंदिर है. इसमें उनके जूते रखे गये हैं. मंदिर अमिताभ के पोस्टर्स से सजा हुआ है. अमिताभ चालीसा भी पढ.ी जाती है. वहां उनके प्रशंसक जो शॉल ओढ.ते हैं उस पर ऊं अमिताभ नम: लिखा है. बिग बी के अलावा कोलकाता में शाहरुख खान भी बहुत लोकप्रिय हैं. कोलकाता में शाहरुख खान के नाम पर भी मंदिर स्थापित किया जायेगा. जिसमें उनके छैंया-छैंया गीत वाला जैकेट, मोहब्बतें का वायलिन रखा जायेगा.

नेगेटिव-पॉजिटिव इफेक्ट्स

फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ की स्पेशल स्क्रीनिंग के दौरान निर्माता एल वी प्रसाद ने शोमैन राजकपूर से जब फिल्म पर अपनी प्रतिक्रिया देने को कहा तो राजकपूर ने कहा कि अगर आप अपनी फिल्म का अंत बदल दें तो यह फिल्म सुपरहिट हो जायेगी, क्योंकि भारतीय दर्शकों को हैप्पी एंडिंग पसंद है. वे फिल्म के अंत में हीरो हीरोइन का मरना पसंद नहीं करते हैं. लेकिन एल वी प्रसाद ने राजकपूर की बात नहीं मानी. उनका फैसला सही निकला, क्योंकि दर्शकों को इस फिल्म का अंत रुला गया. इसके बाद इस तरह के अंत वाली और फिल्में भी बनीं. वह दौर था जब फिल्म के किरदार बासु-सपना की तरह ही हर प्रेमी जोड.ा अपने नाम को दीवारों पर लिखकर अपने प्यार को अमर कर देना चाहता था.

रंग दे बसंती की अमिट छाप

2006 में आयी राकेश ओम प्रकाश मेहरा की फिल्म ‘रंग दे बसंती’ ने भारतीय समाज पर अपनी अभूतपूर्व छाप छोड.ी है. फिल्म के उपशीर्षक अ जनेरेशन अवेकन ने वाकई भारतीय युवाओं को जगा दिया था. इसी फिल्म से प्रेरणा लेकर इंडिया गेट पर मोमबत्ती जला के लोगों ने जेसिका लाल और प्रियदर्शनी मट्टू की हत्या के दोषियों को सजा दिलाने लिए मोर्चा निकाला. आज भी शांति से मोर्चा निकालने के लिए फिल्म के दृश्य का इस्तेमाल किया जाता है.

गांधीगिरी की धूम

महात्मा गांधी के गांधीवादी सिद्धांत को राजकुमार हीरानी की मुत्राभाई सिरीज की फिल्मों ने जन जन तक पहुंचा दिया. अगर ऐसा न होता तो मुंबई में ट्रैफिक नियम तोड.ने पर लोगों को समझाने के लिए गांधीगिरी का फॉर्मूला न अपनाया गया होता था. फूल देकर विरोध दर्ज कराने वाला गांधीगिरी के इस हिट फार्मूले को आम से लेकर खास सभी ने समय-समय पर अपनाया है.



प्राण के नाम से नफरत

ेआम दर्शकों ने अगर सितारों को सर पर बिठाया है, तो कभी ऐसा भी हुआ है कि उनके किरदारों से नफरत भी की है. 60 और 70 के दर्शक मशहूर चरित्र अभिनेता प्राण नाम के साथ ऐसा आंतक जुड. गया था कि उस दौर में किसी को अपने बेटे का नाम प्राण रखना नागवार गुजरता था. इसी वजह से 2004 में बाकायदा प्राण के परिवार के लोगों ने प्राण नाम वाले शख्स की तलाश शुरू की. सबसे बड.ी उम्र और सबसे छोटी उम्र के प्राण नाम वाले शख्स को बाकायदा पुरस्कार भी देने की चर्चा हुई थी.

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