20120406

अफसाना मुझे लिखता है

orginally published in prabhat khabar
आगामी 11 मई को सादत हसन मंटो का जन्मशताब्दी वर्ष मनाया जायेगा. सादत्त हसन मंटो उर्दू के जाने माने लेखक थे. विशेष कर लघु कहानियां लिखने में वे माहिर थे. मंटो इस वर्ष केवल औपचारिक रूप से स्मरण किये जाने योग्य नहीं हैं, बल्कि उनके योगदानों के लिए उन्हें यह सम्मान मिलना चाहिए. नयी पीढ़ी शायद इस लेखक के नाम से भी वाकिफ हो. लेकिन उनकी लघु कहानियां आज भी उतनी ही प्रासंगिक है. जितनी कई सालों पहले थी. मंटो शुरुआती दौर से ही लिखने के शौकीन रहे और शायद यही वजह है कि उन्हें जब भी जिस माध्यम में भी लिखने का मौका मिला वे लिखते रहे. वे रेडियो के लिए भी लेखन करते रहे और किताबों के लिए भी. साथ ही उन्होंने कई फिल्मों के लिए भी कहानियां लिखीं. मंटो को जितना लगाव लेखन से था. उतनी ही शिद्दत से वह फिल्में भी देखा करते थे. दरअसल, मंटो उन लोगों में से एक हैं, जो मूल्कों के बंटवारे को नहीं मानते थे.जिन्होंने जितना प्यार लाहौर को दिया. उतना ही प्यार वे मुंबई से भी करते थे. मुंबई में उनका दिल बसता था तो आत्मा लाहौर में. मुंबई से भी उनका खास लगाव रहा. वे 1936 में मुंबई आ गये थे. और बतौर फिल्म लेखक वे लोकप्रिय हो चुके थे. उन्होंने बांबे टॉकीज के लिए कई फिल्मों की कहानियां लिखी. साथ ही अच्छी आमदनी भी हो रही थी. उस दौर में भारत व पाकिस्तान का बंटवारा हो रहा था. मंटो भारत में ही थे. उनके दोस्तों में कई हिंदू दोस्त भी शामिल थे. उन्होंने मंटो को सलाह दी कि वे पाकिस्तान न जायें. चूंकि पाकिस्तान में फिल्म लेखकों के लिए खास करियर विकल्प नहीं थे. लेकिन उन्हें मजबूरन वर्ष 1948 में लाहौर जाना पड़ा. वह दौर जब उन्होंने आठ दिन, चल चल रे नौजवान व मिर्जा गालिब जैसी फिल्मों के लिए बतौर लेखक काम किया, उस वक्त वे फिल्में रिलीज नहीं हुई थीं, लेकिन फिर भी मंटो उसे अपनी जिंदगी का अहम दौर मानते थे. क्योंकि उस दौर में उन्होंने बतौर लेखक कई कृतियां तैयार कीं. वर्ष 1954 में जाकर ये फिल्में रिलीज हुईं.मंटो की जिंदगी का सफर बेहद दिलचस्प रहा है. और शायद यही वजह रही कि हिंदी फिल्मों में कई लोगों ने मंटो की कहानियों को, उनकी जिंदगी को कई रूपों में फिल्माने की कोशिश की.वर्ष 1936 में बनी किशन कनैहयया व नगरिया जैसी फिल्मों के लिए उन्होंने संवाद लेखन किया है. नसीरुद्दीन शाह ने मंटो इश्मत हाजिर हो नामक प्ले का निर्देशन किया इस प्ले में मंटो की कहानियों को दर्शाया गया. उनकी कहानियों पर आधारित तोबा तेक सिंह, खोल दो, ठंडा गोस्त व काली सलवार जैसी कई कृतियों पर भी नाटक होते रहे हैं. टोबा टेक सिंह पढ़ते व इस पर आधारित फिल्म देखते वक्त आप खुद समझने लगते हैं कि पागल कौन है टोबा टेक सिंह या हमसब.यह विशेषता थी मंटो की कहानी की. आप पढ़ते हुए ही इस बात को समझने लगेंगे कि क्या हकीकत है. मंटो अक्सर पीने के बाद दोस्तों से कहा करते मैं अफसाना अव्वल तो इसलिए लिखता हूं कि मुझे अफसाना लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है.दरअसल, हकीकत यह थी कि मंटो अफसाने नहीं लिखते थे, बल्कि मंटो जैसी शख्सियतों को खुद अफसाने लिखा करते थे.

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