हिमालय की गोद में आयोजित सोनपानी फिल्मोत्सव के बाद फिल्मोत्सव की बयार ने अब उत्तर-पूर्व की तरफ रुख किया है. वाकई, ऐसे स्थानों पर जहां आम जीवन हर दिन कठिनाईयों से गुजरती है, वहां फिल्में बनाना, उन्हें देखना-दिखाना केवल वही कर सकते हैं, जो जुनूनी हों. इसमें कोई संदेह नहीं कि जहां परेशानियां अधिक होती हैं, वहां के लोग अधिक कर्मठ होते हैं. मुझे याद है दार्जलिंग में सफर करते वक्त मैंने एक गर्भवती महिला को पीठ पर सिलेंडर उठाये ऊंचाईयों पर चढ़ते देखा था. हमने शब्दों में बात नहीं की थी, लेकिन उसने अपनी मुस्कान से ही जाहिर कर दिया था कि वे कितने जुनूनी है. और जुनून का ही तो दूसरा नाम है सिनेमा. शायद यही वजह है कि अब इन स्थानों पर फिल्मों को लोगों ने गंभीरता से लेना शुरू किया. अब सिनेमा का नया सूरज इन राज्यों में भी चमकता नजर आ रहा है. इसी 15 अप्रैल से इंफाल में पहली बार इंटरनेशनल शॉर्ट फिल्मोत्सव की शुरुआत की गयी है. इसमें बाहरी फिल्मों के अलावा वे फिल्में भी प्रदर्शित होंगी, जो मणिपुर के निर्देशकों ने बनाया है. इस वर्ष हालांकि मणिपुर की सिर्फ चार फिल्में ही शामिल हो पायी हैं. लेकिन यहां के युवा निर्देशकों ने संकेत दे दिया है कि अब वह भी फिल्म जैसे सशक्त माध्यम का और तेजी से इस्तेमाल करेंगे. भले ही मणिपुरी फिल्मों को अब तक सही तरीके से ऊंचा फलक नहीं मिला, लेकिन सीमित संसाधन, सीमित स्रोत के साथ ही उन्होंने कई फिल्में बनायी हैं. मणिपुर में भी फिल्मों के निर्माण का इतिहास बहुत पुराना है. वर्ष 1946 में श्री गोविंदाजी फिल्म कंपनी ने पहली बार यहां फिल्म कंपनी की शुरुआती की थी. अब तक लगभग 9 मणिपुरी फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ही यहां फर्स्ट मोशन पिक्चर थियेटर स्थापित किया गया था. वर्ष 1948 में ही पहली बार मैनु बेमछा नामक पहली फिल्म बनाने का प्रयास किया गया था, लेकिन फिल्म बन नहीं पायी. इन सभी तथ्यों से ज्ञात होता है कि मणिपुर में फिल्मों को लेकर शुरू से लोग जुनूनी रहे हैं. मणिपुरी फिल्मों को उस वक्त भी अधिक बढ़ावा मिला जब यहां हिंदी फिल्मों के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गयी थी. एक साल में लगभग उस वक्त 150 फिल्में बनने लगीं. सुरक्षा को मद्देनजर रखते हुए केवल मॉर्निंग शोज में फिल्में दिखायी जाती थीं. बावजूद इसके कि वहां फिल्म सिटी नहीं है. कलाकार सीमित स्थानों पर शूटिंग पूरी करते हैं. जहां लोग फिल्मों का निर्माण, अभिनय व सारे इंतजाम अपने बलबुते कर रहे हैं. अब भी यहां कलाकारों को 50 हजार में काम करना पड़ता है. इसके बावजूद वहां की सरकार की तरफ से इसके लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया है. अगर सही तरीके से इन्हें मदद मिले और सरकार प्रयास करे तो यहां रोजगार के नये अवसर भी पैदा किये जा सकते हैं. माँतामगी पहली लंबी मणिपुरी फिल्म थी. यह वर्ष 1972 में उषा टॉकिज में दिखायी गयी थी. |
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20120418
क्षेत्रीय सिनेमा की नयी मिसाल
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