20120411

एक नायक की ईमानदार आत्मकथा

फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ की शूटिंग के दौरान बलराज भिखारी के वेष में ही जब किसी दुकान में सिगरेट या खाना मांगने जाते, तो दुकानदार उन्हें भिखारी समझ कर इनकार कर देते थे.ल ही में अभिनेता बलराज साहनी की आत्मकथा पढ.ी. अब तक हिंदी सिनेमा से जुड़ी जिन शख्सियत की भी आत्मकथा पढ.ी है, उनमें बलराज साहनी की आत्मकथा हर मायने से खास है. जिस शैली में बलराज ने अपने अभिनय जीवन के सफर व साईयों से रू-ब-रू कराया है. वह बेहद ईमानदार और निष्पक्ष है. शायद यही वजह है कि इस आत्मकथा के चंद पóो ही आपके अजीज हो जाते हैं. किताब में पóो बेहद कम है, लेकिन कम अल्फाज में ही बलराज ने जिंदगी की व्यथा का सजीव चित्रण कर दिया है, क्योंकि यह दिल से लिखी गयी है. उन्होंने अपनी आत्मकथा में खुद को कहीं से नायक नहीं बनाया है और न ही लिखते वक्त वह आत्ममुग्ध नजर आये हैं. ऐसा भी नहीं है कि इस आत्मकथा में उन्होंने अपनी विफलताओं का जिक्र नहीं किया है, बल्कि अपनी विफलताओं के साथ ही उन्होंने साफतौर पर उन लोगों के बारे में भी लिखा है, जिन्होंने उनके जीवन में जहर घोला है. दरअसल, किसी भी व्यक्ति की आत्मकथा कुछ इसी अंदाज में लिखी जानी चाहिए. किताब का आकार भले ही छोटा हो, लेकिन स्पष्ट रूप से उन पहलुओं का जिक्र हो. बिना किसी लागलपेट कुछ इसी तरह बलराज साहनी अपनी जीवन की गाथा को दर्ज करते हुए बताते हैं कि एक दौर में जब वह मुफलिसी की जिंदगी जी रहे थे. उस वक्त छोटी उम्र में ही उन्होंने अपने बेटे परीक्षित को काम पर लगा दिया था. वे स्वीकारते हैं कि अपनी पत्नी दम्मो को वह अपने अहम की वजह से वह सारी खुशियां नहीं दे पाये. साथ ही वह उन सभी घटनाओं का जिक्र करते हैं, जिसे पढ. कर आंखों के सामने इस इंडस्ट्री का सच सामने नजर आ जाता है. बलराज ने सिर्फ अपनी आपबीती का ही जिक्र नहीं किया है, बल्कि कई घटनाओं के माध्यम से उन्होंने कई कड़वे सच से भी लोगों को रू-ब-रू कराया है. जिनमें मीना कुमारी पर उनके निर्माता की बुरी नजर व नायिका होने की भुक्तभोगी होने का पूरा वाक्या सुनाया है. उन्होंने बताया है कि कैसे उनके साथ उस दौर की मशहूर अभिनेत्रियां (जिनमें गीता बाली प्रमुख हैं) उनके साथ काम नहीं करना चाहती थीं. चेतन आनंद से उनकी गहरी दोस्ती, फिर देव आनंद को गलती से कहे गये यह शब्द कि वह कभी अभिनेता नहीं बन सकते. कैसे देव आनंद के दिल में घर कर गये और उनकी दोस्ती में दरार आ गयी. इस बात का मलाल भी ईमानदारी से जाहिर करते हैं बलराज. आत्मकथा के माध्यम से ही उन्होंने जॉनी वॉकर जैसे बेहतरीन कलाकार को कभी मदारी का नाच दिखानेवाला महज बंदर समझा जाता था. उस जमाने के लोकप्रिय कलाकारों के लिए वह केवल मनोरंजन के माध्यम थे. लेकिन बलराज ने उन्हें हौसला दिलाया और फिल्मों में उनकी एंट्री हुई. इसका भी पूरा विवरण दिया है. उन्होंने इस दर्द को भी जाहिर किया है कि किस तरह कम्युनिष्ट का ठप्पा लग जाने की वजह से उनके अभिनय जीवन पर विराम लगा. बलराज स्वीकारते हैं कि अपने इगो व गुस्सैल स्वभाव की वजह से वे कई बार असफल रहे हैं. मेरी समझ से अब तक लिखी गयी तमाम आत्मकथा में यह एक महत्वपूर्ण आत्मकथा है. जिसे जरूर पढ.ी जानी चाहिए.

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