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20120406
निर्देशकों का थॉट फ्लोडर
फिल्म करीब के दौरान ही लेखक अभिजात व निदर्ेशक विधु विनोद चोपड़ा की मुलाकात एक ऐसे व्यक्ति से हुई थी, जिसने किसी यूनिवर्सिटी से लगभग साल की पढ़ाई किसी दूसरे नाम से पूरी की. क्योंकि वह पढ़ाई डिग्री के लिए नहीं, बल्कि महज शिक्षित होने के लिए पढ़ना चाहता था. अभिजात ने यह बात निदर्ेशक राजकुमार हिरानी को बतायी. राजकुमार चकित हुए. वे बकायदा गये और उन्होंने उस व्यक्ति से मुलाकात की. और यहीं नींव पड़ी फिल्म 3 इडियट्स की. राजकुमार हिरानी ने तय कर लिया था कि उनकी फिल्म का वन लाइनर यही होगा. और फिर पूरी कहानी गढ़ी गयी. आप अनुमान लगाये करीब रिलीज हुई थी वर्ष 1998 में और 3 इडियट्स वर्ष 2009. लगभग 8-9 सालों का फर्क है. लेकिन फिल्म की नींव कई सालों पहले ही रख दी गयी थी. और लगातार राजकुमार व अभिजात इस पर काम कर रहे हैं. हाल ही में राजकुमार ने एक कार्यक्रम के दौरान इस बात की चर्चा की कि जरूरी नहीं कि फिल्मों के आइडियाज तुरंत आ जायें और इस पर उसी वक्त काम कर लिया जाये. बल्कि उन्हें जब भी कोई आइडियाज आते हैं वे उन्हें लिख कर रख लेते हैं. और जिस फ्लोडर में वे इस सुरक्षित रखते हैं वे उसे थॉर्ट फ्लोडर का नाम देते हैं. दरअसल, वास्तविकता भी यही है कि किसी भी बेहतरीन रचना के लिए यह बेहद जरूरी है कि उसका थॉट फ्लोडर बनाया जाये. मसलन तकनीकी रूप से नहीं, बल्कि मानसिक स्तर के अनुसार. कोई भी निदर्ेशक अगर अपनी किसी फिल्म की योजना बनाता है तो सबसे पहले उसके उसी मानसिक फ्लोडर में थॉट यानी विचारों का जमावड़ा होना बेहद जरूरी है. फिल्में दृश्यों से बनती हैं और एक दृश्य के कई फ्रेम में आपको कई चीजें दर्शानी होती हैं. ऐसे में किसी निदर्ेशक के लिए यह कठिन होमवर्क होता है कि वे उन दृश्यों में किन किन बातों को संजोये. किन किन बातों को नहीं. इस लिहाज से अगर विचारों का फ्लोडर तैयार हो तो चीजें बहुत आसान हो जाती हैं, चूंकि फिल्में एक दिन में नहीं बनती और अच्छी फिल्में बनाने में सालों लग जाते हैं. उसकी वजह यही है कि कई निदर्ेशक हैं जो अपनी फिल्मों में डिटेलिंग करते हैं. वे डिटेलिंग कुछ और नहीं, उनके अपने जिंदगी से जुड़े वास्तविक अनुभव, वास्तविक जिंदगी की घटनाएं ही होती हैं और यह डिटेलिंग तभी आ सकती है, जब उसका होम वर्क हो. और वह होम वर्क कुछ और नहीं विचारों का ही फ्लोडर है. बतौर निदर्ेशक राजकपूर ने भी अपने जिंदगी के कई अनुभवों को ही अपनी फिल्मों में हमेशा ही शामिल किया. ऐसा नहीं है कि वे आइडिया उन्हें अचानक आते होंगे. बल्कि वे उनके थॉट फ्लोडर में खुद ब खुद ही सेव हो जाया करते हैं. अकिरा कुरसावा से लेकर जितने में श्रेष्ठ फिल्म मेकर रहे , उन सभी ने वे सृजन की इसी प्रक्रिया से गुजरते रहे हैं.फिल्म मेकिंग का कोर्स कर रहे छात्रों के लिए यह अच्छा मार्गदर्शन है कि हर छात्र को अपना एक थॉर्ट फ्लोडर बनाना ही चाहिए. जब भी उन्हें जो चीजें प्रभावित करती हों वह उन्हें लिखित व मानसिक दोनों तरीके से अपने जेहन में सुरक्षित करें और फिर सृजन करते वक्त उनका सही इस्तेमाल करें. चूंकि यही फिल्म सृजन का सही तरीका है. ऐसी फिल्में में जब परदे पर आती हैं तो उनमें डिटेलिंग स्पष्ट रूप से नजर आती है.
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