उनके लिए की एंड का में कोई भेद नहीं. मतलब उनके लिए स्त्रीलिंग और पुलिंग एक ही बात है. कुछ ऐसी सोच को लेकर वे फिल्म की एंड का लेकर आये हैं. बात हो रही है निर्देशक आर बाल्की की, जिन्होंने हमेशा अपने अलग कांसेप्ट से दर्शकों का दिल जीता है.
की एंड का का ख्याल कैसे आया?
शमिताभ के बाद मैंने सोचा था, मैं थोड़ा ब्रेक लूंगा. लेकिन अमिताभ जी और जयाजी का लगातार फोन आ रहा था. वे कह रहे थे कि लंबा ब्रेक मत लो. बैठो मत. कुछ करो. तो मुझे लगा कि इस विषय पर कुछ करते हैं. जब मैंंंने यह फिल्म सोची तो मेरे जेहन में सबसे पहले अर्जुन का ही नाम आया.अर्जुन आये. और वह तैयार हो गये. मुझे अर्जुन का हंक, मशकूलर अंदाज बेहद पसंद आया. और मुझे लगा कि वह इस फिल्म में फिट बैठेंगे. मैंने फिर अर्जुन और करीना की किसी पार्टी की तसवीरें साथ में देखी थी. वहां मुझे लगा कि दोनों की जोड़ी लग सकती है. करीना के बारे में मुझे लगता है कि वह फिनोमिनल एक्ट्रेस हैं. इस फिल्म के लिए मुझे अल्ट्रा मशकूलर लड़के की तलाश थी और मुझे अल्ट्रा फेमिनिन लड़की ही चाहिए थी. यह एक लव स्टोरी है. यह फिल्म हाउस हस्बैंड पर नहीं है. आमतौर पर आप कहानियों में देखेंगे कि एक लड़का काम कर रहा होता है. और एक लड़की उसके प्यार में पड़ती है. लेकिन यहां उल्टा होगा.
आपकी फिल्मों के शीर्षक हमेशा अलग रहते हैं?
जब आप फिल्म बनाते हैं तो काफी वक्त लगता है. काफी मुश्किलें आती हैं. काफी वक्त लगता है. इतने लोगों की मेहनत होती है.एक साल काम करने के लिए कुछ तो मोटिवेशन चाहिए. मेरा मोटिवेशन है कि शुरुआत अलग हो. कम से कम हमारी यह कोशिश होती है कि कुछ तो अलग करूं. ताकि हम एक साल बीता सकें. शुरुआत दिलचस्प होगी तभी ऐसा हो सकता. इसलिए मैं फिल्मों के शीर्षक अलग रखता हूं. हर एक आर्टिस्ट के लिए थॉट प्रोसेस अलग हो तो उससे काम करने की ऊर्जा मिलती है. ऐसा मैं मानता हूं.
अमिताभ आपकी फिल्मों के लकी चार्म रहे हैं?
मैं लकी हूं कि उनका साथ मुझे फिल्मों में मिलता रहा है. वे इस फिल्म में भी हैं. मेरी कोशिश होती है कि मैं उनके पास जब भी कोई प्रोजेक्ट लेकर जाऊं. वह वाकई में लीक से हट कर हो. वरना, इसका कोई अस्तित्व नहीं रह जायेगा. इस फिल्म में वह सेंटर आॅफ द फिल्म हैं.
करीना को फिल्म के लिए हां कहलवाना मुश्किल था या आसान?
मैं जब पहली बार करीना से मिला था. उसी वक्त से वे मुझे अच्छी लगी थीं. वह स्पॉनटेनियस एक्ट्रेस हैं. मैं हमेशा से उनके साथ फिल्म करना चाहता था. मेरी जिंदगी में आज तक मैं जितने लोगों से मिला हूं, मुझे उनमें करीना सबसे खुशमिजाज रहने वालों लोगों में से दिखीं. उन्हें किसी तरह का तनाव नहीं हैं. वह शिकायत नहीं करतीं. हमेशा आराम से रहती हैं. उनके साथ काम करके मुझे आस-पास हमेशा पोजिटिव एनर्जी ही नजर आती रही है. आज के दौर की मैजिकल हीरोइन में से एक हैं करीना. वह काफी नेचुरल हैं. बहुत कम लोगों में सिनेमा की समझ, लुक की समझ, वह ज्यादा शो आॅफ नहीं करतीं. बिंदास रहती हैं और शांत रहती हैं. फटाक फटाक काम करती हैं. बहुत सिंपल पर्सन हैं.बहुत इलेक्ट्रीफाइ हीरोइन हैं. मुझे उनके साथ काम करके बेहद मजा आया.
करीना और अर्जुन को कास्ट करते हुए कहीं उनकी उम्र का ख्याल जेहन में आया?
किसी निर्देशक के जेहन में मुझे नहीं लगता यह बातें आती हैं और लोग जो यह कह रहे हैं कि अर्जुन तो करीना से छोटे हैं. मैं जानना चाहता हूं कि जब कोई हीरो के साथ उससे 15 साल से कम उम्र की लड़की काम करती है तो यह सवाल क्यों नहीं आता कि अरे लड़की कितनी छोटी है. हीरोइन को लेकर हमारे यहां यह अवधारणा बनी हुई है और यह बेहद अफसोसजनक बात है. मुझे तो लगता है कि सबसे ज्यादा महिलाएं ही आंखें तरेरती हैं कि उम्र को लेकर. उम्र की बातें लेकर. यह गलत है. आप इस पर सवाल नहीं उठा सकते. महिलाओं में यह सोच होती है अगर वह दो साल भी बड़ी होंगी तो ढिंढोरा पिटेंगी कि अरे मैं तो बड़ी हूं. बड़ी हूं. बोलेंगी मैं तो बूढ़ी हो गयी हैं. लोगों ने मान लिया होता है कि 30 साल की उम्र लड़कियों के लिए बहुत बड़ी उम्र है. लेकिन मर्दों के लिए बहुत कम होती है. उदाहरण के तौर पर दीपिका पादुकोण अगर 29 वां जन्मदिन मनायेंगी तो खबरें आती हैं कि दीपिका पादुकोण 30 की पड़ाव पर और अर्जुन कपूर के बारे में खबरें आयेंगी कि अर्जुन इस साल जस्ट 30 के हुए. इसमें क्या तूलना है. करीना तो यंग गर्ल है. करीना तो अभी बस 34 की हैं और रनबीर भी 34 के हैं तो रनबीर यंग एक्टर हैं और करीना बुजुर्ग हो गयी हैं. यह गलत माइंडसेट हैं. मेरे लिए आलिया छोटी हैं. लेकिन दीपिका यंग हैं. करीना यंग हैं. मैं वाकई विश्वास करता हूं स्त्रीलिंग पुलिंग सेमथिंग़. दोनों बराबर हैं. मैंने कभी भी पुरुष को पुरुष की तरह या औरत हैं तो औरत की तरह नहीं दिखाया है. मैं हमेशा दोनों को लोग मानता हूं.
इस विषय को लेकर आपकी इतनी स्पष्ट राय बनी. इसकी क्या वजह रही. आपकी परवरिश, माहौल ...?
मैंने हमेशा यूनिसेक्स को अहमियत दी है. मेरी पत् नी हमेशा वह सबकुछ करती है जो मैं कर सकता हूं. मैंने हमेशा वैसे लोगों को ही जिंदगी में भी तवज्जो दी है. जो सम्मान की सोच रखें. दोनों को बराबर देखें. मुझे आरक्षण जैसे शब्दों में विश्वास नहीं है.
विज्ञापन की दुनिया की कुशलता फिल्म मेकिंग में कितनी सहायता करती है?
मैंने हमेशा एक बात सीखी है कि कहानी होनी चाहिए. बिना कहानी वाली मेरी फिल्म नहीं होती. इसलिए इसका श्रेय मैं विज्ञापन जगत को दूंगा. वहां लिखते लिखते आप पॉलिश हो जाते हैं और फिर आप क्रिस्प लिख पाते हैं. सोच पाते हंै. मेरा बजट भी हमेशा कहानी पर ही निर्भर होता है. शमिताभ का बजट काफी था.पा काफी बजट वाली फिल्म थी. लेकिन हां मैंने कंट्रोल तरीके से खर्च करता हूं. शमिताभ की शूटिंग में मैंने महसूस किया कि मुंबई में शूटिंग करना ज्यादा महंगा है. बजाय इसके कि आप कहीं बाहर जाकर शूट करें. यहां सड़क पर छोटी सी शूटिंग के भी काफी फीस देनी पड़ जाती है. वहां ऐसा नहीं है.यह सब एड की दुनिया से आप सीख पाते हैं.
हर फिल्म से कितना सीखते हैं आप?
मंैने कुछ नहीं सीखा. न ही कुछ सीखने की कोशिश करता हूं. मैं किसी फिल्म से कुछ नहीं सीखता. मुझे लगता है कि दुनिया में ऐसी काफी चीजें हैं जिसे आप सीख सकते हैं. मेरा ट्रीक है कि मैं कैसे खुद को अनलर्न्ड रखूं. यहां काफी कुछ है जानने के लिए. मैं ज्यादा जानना की कोशिश करता हूं तो मैं कंफ्यूज्ड हो जाता हूं. सो, मेरी कोशिश होती है कि मैं कई चीजें नहीं सीखता. मैं तो कोशिश करता हूं कि मैं सबकुछ रिमूव करता चलता हूं
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