हंसल मेहता की फिल्म शाहिद इस वर्ष मामी फिल्मोत्सव की चर्चित फिल्मों में से एक रही थी. फिल्म की कहानी एक ऐसे वकील की कहानी थी, जो आतंकवाद के खिलाफ उन मासूम लोगों के हक की लड़ाई लड़ता था, जिन्हें केवल शक के आधार पर आतंकवादी मान लिया जाता है.फिल्म में मुख्य किरदार निभा रहे राजकुमार यादव शाहिद की भूमिका में हैं और फिल्म में वे खुद इसके भुक्तभोगी होते हैं. किसी के बहकावे में आकर सिर्फ एक बार जेहादी संगठन से जुड़ने के बाद फिर वहां से भाग आने के बाद, सिर्फ इसलिए उन्हें कई सालों तक जेल में रखा जाता है, क्योंकि उन पर आतंकवादी होने के आरोप लग जाते हैं. शाहिद जब जेल में पहुंचता है तो वह देखता है कि उसकी तरह कई ऐसे निर्दोष लोग हैं, तब वह तय करता है कि वह वकील बनेगा और ऐसे लोगों की मदद करेगा. जेल में ही उन्हें प्रोफेसरों का साथ मिलता है और वह अपनी पढ़ाई पूरी करता है. लगातार संघर्ष के बाद उसकी पढ़ाई पूरी होती है और फिर वह एक वकील बन जाता है. लेकिन वकील बनने के बाद जब भी वह किसी मासूमों की तरफ से केस लड़ता है. उसका बीता कल उसका साथ नहीं छोड़ता. लोग आज भी उस पर छींटाकशी करते हैं कि वे खुद भी आतंकवादी संगठन के हिस्से रहे थे. दरअसल, हंसल मेहता की यह फिल्म आतंकवाद के मसले को बिल्कुल अलग तरह से दर्शाती है. यह फिल्म उन मासूम लोगों के जीवन की कहानी बयां करती है, जो सिर्फ इसलिए मुजरिम हैं, क्योंकि वे शक के गिरोह में हैं. शाहिद हर लिहाज से एक महत्वपूर्ण फिल्म है. चूंकि इस फिल्म में ऐसे मुद्दों को उजागर करने की कोशिश की गयी है. जो आमतौर पर आतंकवाद पर आधारित फिल्मों में नहीं देखे जाते. जल्द ही रामगोपाल वर्मा की फिल्म 26-11 मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों पर ही आधारित है. लेकिन हंसल मेहता अब तक जितनी भी फिल्में ऐसे विषयों को लेकर बनाई गयी हैं, उन सब से ऊपर और गहराई से जाकर उन आम लोगों के मर्म को दर्शाती है जो आमतौर पर फिल्मों में नजर नहीं आता. न सिर्फ भारत में बल्कि पूरे विश्व में कितने मासूम हैं, जो सिर्फ इस वजह से परेशानियां झेल रहे हैं. दर्द झेल रहे हैं कि वह मुसलिम हैं. गुअतनामो जेल इस बात का गवाह रहा है कि उसने कितने मासूमों को अपनी दीवारों में कैद कर रखा था. ऐसे सिस्टम के सामने कई महत्वपूर्ण सवाल उठाती हैं ऐसी फिल्में. हंसल बधाई के पात्र हैं. और हिंदी सिनेमा में ऐसी और भी फिल्में बननी चाहिए.
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20130204
हंसल ke शाहिद
हंसल मेहता की फिल्म शाहिद इस वर्ष मामी फिल्मोत्सव की चर्चित फिल्मों में से एक रही थी. फिल्म की कहानी एक ऐसे वकील की कहानी थी, जो आतंकवाद के खिलाफ उन मासूम लोगों के हक की लड़ाई लड़ता था, जिन्हें केवल शक के आधार पर आतंकवादी मान लिया जाता है.फिल्म में मुख्य किरदार निभा रहे राजकुमार यादव शाहिद की भूमिका में हैं और फिल्म में वे खुद इसके भुक्तभोगी होते हैं. किसी के बहकावे में आकर सिर्फ एक बार जेहादी संगठन से जुड़ने के बाद फिर वहां से भाग आने के बाद, सिर्फ इसलिए उन्हें कई सालों तक जेल में रखा जाता है, क्योंकि उन पर आतंकवादी होने के आरोप लग जाते हैं. शाहिद जब जेल में पहुंचता है तो वह देखता है कि उसकी तरह कई ऐसे निर्दोष लोग हैं, तब वह तय करता है कि वह वकील बनेगा और ऐसे लोगों की मदद करेगा. जेल में ही उन्हें प्रोफेसरों का साथ मिलता है और वह अपनी पढ़ाई पूरी करता है. लगातार संघर्ष के बाद उसकी पढ़ाई पूरी होती है और फिर वह एक वकील बन जाता है. लेकिन वकील बनने के बाद जब भी वह किसी मासूमों की तरफ से केस लड़ता है. उसका बीता कल उसका साथ नहीं छोड़ता. लोग आज भी उस पर छींटाकशी करते हैं कि वे खुद भी आतंकवादी संगठन के हिस्से रहे थे. दरअसल, हंसल मेहता की यह फिल्म आतंकवाद के मसले को बिल्कुल अलग तरह से दर्शाती है. यह फिल्म उन मासूम लोगों के जीवन की कहानी बयां करती है, जो सिर्फ इसलिए मुजरिम हैं, क्योंकि वे शक के गिरोह में हैं. शाहिद हर लिहाज से एक महत्वपूर्ण फिल्म है. चूंकि इस फिल्म में ऐसे मुद्दों को उजागर करने की कोशिश की गयी है. जो आमतौर पर आतंकवाद पर आधारित फिल्मों में नहीं देखे जाते. जल्द ही रामगोपाल वर्मा की फिल्म 26-11 मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों पर ही आधारित है. लेकिन हंसल मेहता अब तक जितनी भी फिल्में ऐसे विषयों को लेकर बनाई गयी हैं, उन सब से ऊपर और गहराई से जाकर उन आम लोगों के मर्म को दर्शाती है जो आमतौर पर फिल्मों में नजर नहीं आता. न सिर्फ भारत में बल्कि पूरे विश्व में कितने मासूम हैं, जो सिर्फ इस वजह से परेशानियां झेल रहे हैं. दर्द झेल रहे हैं कि वह मुसलिम हैं. गुअतनामो जेल इस बात का गवाह रहा है कि उसने कितने मासूमों को अपनी दीवारों में कैद कर रखा था. ऐसे सिस्टम के सामने कई महत्वपूर्ण सवाल उठाती हैं ऐसी फिल्में. हंसल बधाई के पात्र हैं. और हिंदी सिनेमा में ऐसी और भी फिल्में बननी चाहिए.
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