20160711

आया ही इसलिए था कि अपनी तरह की फिल्में करूं : इरफान खान


इरफान खान जब किसी फिल्म के साथ जुड़ते हैं तो वह फिल्म ब्रांड बन जाती है. इस बार वह मदारी बन कर आ रहे हैं. वे मानते हैं कि युवाओं को अपना आदर्श किसी फिल्म स्टार को नहीं, बल्कि वैसे लोगों को बनाना चाहिए, जो छोटे शहरों व गांवों में कुछ नया कर रहे हैं. उन्होंने स्वीकारा है कि लोगों का विश्वास उनकी सरीकी फिल्मों पर बढ़ा है. अपनी आगामी फिल्म के अलावा उन्होंने कई पहलुओं पर  बातचीत की.

मदारी सिस्टम के खिलाफ खड़ी है?
नहीं, सिर्फ सिस्टम के खिलाफ खड़ी है. ऐसा ही नहीं है. यह फिल्म इमोशनल थ्रीलर भी है.सिस्टम उसमें एक एलिमेंट है. लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या मुझे सिस्टम से शिकायत है तो मैं कहना चाहूंगा कि ऐसा नहीं होता कि सिस्टम से शिकायत हो जाये.सोसाइटी बदलेगा तो सिस्टम भी बदलेगा.मेरा मानना है कि वह कौन बदलेगा. आम आदमी ही बदलेगा न. वह आवाज उठायेगा तभी बदलेगा.फिल्म में और बहुत सारी चीजें हैं. 
इरफान का नाम जब किसी प्रोडक्ट से अब जुड़ता है तो वह ब्रांड बन जाता है. इस मुकाम पर पहुंच कर आप क्या महसूस करते हैं?
यह सब हमारा ही कियाधरा है. हमारे ही कर्मों का फल है. चूंकि आप चाह रहे थे कि इंडस्ट्री एक तरह से चल रही है, तो ऐसे में कैसे जगह बनायें. तो वहां आपको लग रहा था कि आपको अपने तरीके का काम करना है और जगह बनानी है. ऐसे में धीरे-धीरे आपको काम मिले और लोगों ने देखा.चूंकि  लोगों को वह एंटरटेनमेंट मिला है जो अलग है. जो आपके साथ रहता है.वह कहानी आपसे अगले दिन भी बात करती है. इसलिए लोगों ने आपकी फिल्मों को हिट कराया है. शुक्रवार का जो बिजनेस है.वह आपको सोमवार को तय हो रहा है. लोगों ने जब ऐसी फिल्मों को देखना शुरू किया तो सोमवार को फिल्म के बिजनेस ने नया आकार लिया. वह बात लोगों को समझ आती है. कोई फिल्म अगर सोमवार को हिट मतलब वह अच्छी ही है. मैं आया ही यहां इसलिए था कि यहां पर अपनी तरह की फिल्में कर सकूं और जगह बना सकूं.अपनी कहानियों को रिडिफाइन कर सकें. फिर चाहे वह विषय कोई भी हो. मेरी कोशिश है कि मैं नयापन ला सकूं. मेरी यह जरूरत थी और अब मेरी यह पहचान बन गयी है.
इस फिल्म से निर्माता बनने का ख्याल कैसे आया?
यह कहानी ही ऐसी थी कि हम सबको लग  रहा था कि हम अगर जाकर कॉरपोरेट में यह कहानी सुनायेंगे तो जो इंपैक्ट है. वह समझ नहीं पायेंगे. उन्हें लगेगा कि इतना पैसे कैसे डालें.तो बेहतर यही है कि हम खुद पैसे लगायें और बनायें. चूंकि यह रेगुलर स्ट्रक्चर वाली फिल्म नहीं है. फिल्म कहीं और से शुरू होती है और कहीं और जाती है. कई फिल्में होती है, जो पेपर पर एक्साइट नहीं करती. लेकिन होती कमाल की है. पीकू को ही देख लें. उसमें तो कोई कहानी ही नहीं थी.शूजीत सरकार बड़ा नाम था. लेकिन एक्टर हैं तो हम समझ पाते हैं कि हम कहानी में क्या भाव क्रियेट कर सकते हैं. इस फिल्म के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. इस फिल्म में ज्यादा एक्सरसाइज नहीं करेंगे.
इस फिल्म के माध्यम से क्या आपकी कोशिश है कि आप आम आदमी को यह बता पायें कि उनके अधिकार क्या क्या हैं?
फिल्म में वह एक एलिमेंट है कि आम आदमी की भी जिम्मेदारी है. सिर्फ वोट देना आम आदमी की जिम्मेवारी है. आम लोगों को भी सचेत रहना जरूरी है. राइट्स मांगना अधिकार है तो डयूटी निभाना भी जरूरी है.सिस्टम आपके लिए काम नहीं करेगा. अगर आप वोट देकर निश्ंिचत हो जायेंगे तो सिस्टम आपके लिए काम नहीं करेगा.सिस्टम जैसे चाहेगा. आपको नचायेगा. जब तक कि आपमें कुबत नहीं है.दरअसल, हम हमेशा वैसे ही समाज में जिये हैं. जहां फ्यूडल राजा  राज करता आया. अभी भी ऐसा ही लगता है कि हमने राजा चुन लिया और हम ढोल पटाखे बजा कर तमाशे का जश्न करते हैं. और फिर हमें लगता है कि हमारा राजा ही सबकुछ बदल देगा. इतने भुलावे में रहना तो ठीक नहीं है.
आप मानते हैं कि सिनेमा सोच बदलती है किसी भी लिहाज से?
सिनेमा का योगदान होता है अपना. आपको एंटरटेन करने का भी होता है. आपके मन में सवाल जागृत करने का भी होता है. सिनेमा आपके लिए कुछ ऐसा एक्सपीरियंस छोड़ जाता है. जो बाकी चीजें आपको नहीं देती हैं. कई नयी चीजों के बारे में बता देता है. लेकिन अकेली फिल्म कुछ नहीं कर सकती. 
कोई ऐसी फिल्म जिसने आपको बदला हो किसी भी लिहाज से?
बहुत सारी फिल्में हैं. लिटरेचर है. कई चीजें हैं, जैसे अगर आपने कहीं का सिनेमा देखा है, वह मुल्क नहीं देखा. लेकिन पढ़ा है. फिल्मों में देखा है तो यह सब आपके जीवन पर असर डालती है. सोसाइटी के बारे में अंदाजा मिलता है. जैसे ईरान नहीं गया हूं. लेकिन वहां के सिनेमा से वहां के समाज का अनुमान लगा पाता हूं. सोसाइटी का आभास होता है.लेकिन  हमारे यहां का सिनेमा उतना रियलिटी को डील नहीं कर पाता. लेकिन अब जो सिनेमा आ रहा है. वह रियल भी है. एंटरटेन भी कर रहा. यह जो सिनेमा है वह ज्यादा यूनिवर्सल होगा. नयी आॅडियंस तैयार हो रही है. 

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